।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.28 II
।। अध्याय 10.28 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.28॥
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥
“āyudhānām ahaḿ vajraḿ,
dhenūnām asmi kāmadhuk..।
prajanaś cāsmi kandarpaḥ,
sarpāṇām asmi vāsukiḥ”..।।
भावार्थ:
मैं सभी हथियारों में वज्र हूँ, मैं सभी गायों में सुरभि हूँ, मैं धर्मनुसार सन्तान उत्पत्ति का कारण रूप प्रेम का देवता कामदेव हूँ, और मै ही सभी सर्पों में वासुकि हूँ। (२८)
Meaning:
Among the weapons, I am Vajra and among cows I am Kaamadhenu. Among the creative powers I am Kandarpa and among the snakes I am Vaasuki.
Explanation:
The Shrimad Bhagavatam Puranas relate the story of the sacrifice offered by the great sage Dadhichi, which was unparalleled in history. Indra, the king of heaven was once driven out of his celestial kingdom by a demon named Vritrasura. The demon had a boon whereby he could not be killed by any weapon known till then. In desperation, Indra approached Lord Shiv for help, who took him to Lord Vishnu. Vishnu revealed to Indra that the only weapon that could kill Vritrasura was a thunderbolt made from the bones of the sage Dadhichi. Indra then beseeched Dadhichi to make the ultimate sacrifice of laying down his life so that his bones could be used for making the thunderbolt. Dadhichi accepted the request, but desired to first go on a pilgrimage to all the holy rivers. Indra then brought together all the waters of the holy rivers to Naimisharanya, thereby allowing the sage to have his wish fulfilled without further loss of time. Dadhichi then gave up his body by the practice of yogic techniques. The thunderbolt made from his bones was then used to defeat the demon Vritrasura, allowing Indra to regain his place as the king of the celestial abodes. Shree Krishna deliberately refers to this thunderbolt here as the representation of the glory of God, preferring it above the mace and disc that are always held in the hands of Lord Vishnu. Shri Krishna says that Ishvara is Vajra among the weapons because it is powered by austerity and penance. Therefore, it has got the strength born out of tapas shakthi; because we consider spiritual power or meditative power is much stronger than the material power.
In the Puraanas, Kaamadhenu is a cow that has the ability to fulfil any desire that she is approached with. kāmadhēnūḥ is a unique cow which can yield anything you want; kāmaṁ kāmaṁ dogdhi iti kāmadhuk. Even a normal cow has the ability to provide milk to a fanily in need, Symbolically, Kaamadhenu represents our mind because it can generate all kinds of thoughts, good or bad, out of thin air. Shri Krishna says that Ishvara expresses himself as Kaamadhenu. And this also indicates what; beautiful symbolic presentation; the mind is kāmadhēnūḥ. The human mind and intellect are so powerful that if you fully tap you can create anything; all the scientific advancements and gadgets; they are all born out of what? human intellect; internet is born out of what? human intellect; kaamadenuhu. So therefore, if a human being decides to tap his own mind intellect complex, he can achieve anything in life. All the fourteen lokas he can accomplish, why he can attain mōkṣa also; mōkṣam api dogdi; The mind- kāmadhēnūḥ mōkṣam also it will milk and give you; therefore, it is called kāmadhuk.
In this verse, Shree Krishna also reveals that the act of sexual intercourse is not unholy when it is performed for the sole purpose of begetting good children. Our mind has the ability to generate desires that prompt us to act. Kandarpa referes to Kaama deva, the lord of desire. Desires are the seed of creativity because without desire, there will be no creation. Kaamdev, the god of love (cupid), is responsible for the force of attraction between the opposite sexes that facilitates the continuance of humankind through procreation. This sexual urge has its origin in God and should not be mis-utilized for sensual enjoyment, but rather be used solely for the purpose of begetting worthy progeny. In verse 7.11 as well, Shree Krishna had declared that he is the sexual desire that is not in conflict with virtue and scriptural injunctions.
Vaasuki is the king of snakes and is seen coiled around the neck of Lord Shiva. He symbolizes our ego or ahankaara, our sense of “I”. If we are able to tame our ego, then it becomes an ornament, as in the case of Lord Shiva. If we cannot tame it, it becomes dangerous and can strike us when we least expect it, by causing strong feeling of superiority or inferiority as an example. So, Shri Krishna says that Vaasuki is Ishvara’s expression among all the snakes.
So, whenever we see someone devote their life towards a selfless cause, when our mind generates positive thoughts, when our desires are righteous and our ego is in check, we should realize that all this is Ishvara’s expression.
।। हिंन्दी समीक्षा।।
कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर ‘वृत्रासुर’ नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में ‘दधीचि’ नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र- शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इसलिये जो शस्त्र जन हित के लिये त्याग से बना हो जिस में तप का ब्रह्मतेज हो वो वज्र मै ही हूँ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में से एक कामधेनु गाय थीं, जिसे ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया था. कामधेनु प्रतीक है मन की निर्मलता की. क्योंकि विष निकल जाने के बाद मन निर्मल हो जाता है. ऐसी स्थिति में ईश्वर तक पहुंचना और भी आसान हो जाता है.
कामधेनु गाय देखने में एक सफेद गाय की तरह है जिनका सिर एक महिला के जैसी है. इनके पूरे शरीर में अलग- अलग देवी देवता निवास करते हैं. इसलिए हिंदू धर्म में सभी गायों को कामधेनु की सांसारिक अवतार के रूप में पूजा जाता है. इनकी रोज पूजा करने से धन, वाहन, मकान जैसी जीवन से जुड़ी हर इच्छा पूरी हो सकती है.
इनके चारों पैरों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का प्रतिक है. इनका सींग ब्रह्मा का रूप है तो सिर का मध्य हिस्सा विष्णु और नीचे का हिस्सा भगवान शिव का रूप है. उनकी आंखें चंद्रमा और सूरज का प्रतीक है। यह मनोकामना पूर्ण करने वाली गाय मानी जाती है। गो इंद्रियाओ को भी कहते है, जिस की इंद्रियाओ उस के अनुसार काम करे उसे की भी कामनाएं पूर्ण हो जाती है। परमात्मा कहते है वह कामधेनु गौ मै ही हूँ।
ब्रह्मा जी को जब सृष्टि रचना का कार्य सौंपा गया तो उन्होंने मानस पुत्रो की रचना की। किन्तु इन से सृष्टि नहीं चल सकती थी। इसलिये नर नारी की रचना हुई। प्रजोत्पत्ति के कारणों में मैं कामदेव हूँ भारतीय धारणा के अनुसार काम का देवता कन्दर्प (कामदेव या मदन) है, जो एक कुटिल हृष्टपुष्ट युवक के रूप में चित्रित किया गया है। यह कामदेव अपनी मन्दस्मिति के धनुष के द्वारा पाँच सुपुष्पित बाणों से मनुष्य की एक एक इन्द्रिय को आहत करता है यह जीव विज्ञान से सम्बन्धित एक सत्य है। प्रजोत्पत्ति माने केवल गर्भाधान की क्रिया या वनस्पति जगत् में होने वाली सेचन क्रिया ही नहीं समझी जानी चाहिए। भारतीय कामशास्त्र के अनुसार इसका अर्थ उन समस्त कामुक प्रवृत्तियों की शान्ति से है, जो सभी इन्द्रियों के माध्यम से व्यक्त होती हैं। एक दार्शनिक सच्चा वैज्ञानिक होता है और इस कारण उसमें वह मिथ्या लज्जा या संकोच नहीं होता, जो प्राय स्वभाव से अनैतिक किन्तु दिखावे के लिए कट्टर नैतिकतावादी व तिलकधारी पाखण्डी लोगों का होता है। वेदान्त के आचार्य कामवासना के संबंध में विश्लेषण करते समय इस प्रकार निर्मम होते हैं, जैसे चिकित्साशास्त्र के महाविद्यालय में कोई प्राध्यापक। भगवान् घोषणा करते हैं कि प्रजोत्पत्ति के सब कारणों में कन्दर्प मैं हूँ। वैषयिक भोग के क्षेत्र में कामदेव मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक व्यक्तित्व के पूर्ण सन्तोष का प्रतीक है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीव के कर्म के चार आधार स्तंभ है। काम का अर्थ इच्छा, और इच्छा ही प्रेरणा और कर्म के आवश्यक है। ऐसे ही सन्तानोत्पति सृष्टि यज्ञ चक्र का एक भाग है, काम इस को पूर्ण करता है, किन्तु जब काम से वशीभूत हो कर इस यज्ञ चक्र के कर्तव्य को त्याग कर सिर्फ काम ही का कार्य किया जाता है तो संतान भी अपने को दुर्घटना से उत्पन्न समझती है एवम संस्कार रहित होती है।
कामदेव, जो काम, वासना और रूप के देव माने जाते हैं, के बारे में लोगों ने सुन बहुत रखा है लेकिन जानते कम ही हैं। कामदेव का हिंदू संस्कृति और आध्यात्म में एक बड़ा स्थान है और उन्हें’ हिंदू धर्मग्रंथों में प्रेम का देवता माना गया है।
कामदेव ने ही शिव द्वारा भस्म लिए जाने के बाद, हिंदू देवी श्री के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतार लिया है, यह माना जाता है। उन का हथियार धनुष है क्योंकि धनुष ही एक ऐसा अस्त्र है जिस में स्थिरता और चंचलता दोनों ही होती है और रूप में भी यही गुण होता है। बसंत को कामदेव का मित्र कहते हैं इसलिए उन का धनुष भी हमेशा पीला रहता गया है।
धनुष के अलावा तीर कामदेव का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमश: तीन लोकों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला कोना ब्रह्म के आधीन है जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना कर्म का प्रतीक है जो मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश (शिव) के आधीन होता है जो मोक्ष का प्रतीक है।
‘कामदेव’ के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होता है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का एक लक्ष्य खुद काम हैं, जिन्हें पुरुष माना गया है, जबकि दूसरा रति हैं, जो स्त्री रूप में जानी जाती हैं।
महाभारत में कौरव वंश के पतन की नींव महाराजा शांतनु के मत्स्यगंधा सत्यवती के प्रति काम से वशीभूत होने पर लिखी गई थी और रामायण में रावण के पतन की नींव उस के द्वारा काम के वशीभूत हो कर सीता के अपहरण पर लिखी गई। अतः काम सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ सृजक होने के बावजूद, यदि नियंत्रित नही है, तो व्यक्ति विशेष का पतन का कारण भी है।
इसी प्रकार बाल विवाह के पीछे तर्क था कि चरित्र संयम एवम धर्मोचित मार्ग के बाल विवाह किया जाता था, जब कि कमाने लगेगा तब विवाह करना अर्थोचित निर्णय है और बड़ी उम्र का विवाह कामोचित निर्णय है। यहां कामदेव को भगवान ने अपना स्वरूप कहा है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि जब मैथुन क्रिया सन्तान की उत्पत्ति के उद्धेश्य से की जाती है तब उसे अपवित्र नहीं कहा जा सकता। कामदेव विपरीत लिंगों में आकर्षण उत्पन्न करने का दायित्व निवर्हन करता है ताकि प्रजनन प्रक्रिया द्वारा सहज रूप से मानव जाति का निरन्तर अस्तित्व बना रहे। इस यौन आकर्षण का मूल भगवान हैं और इसका प्रयोग कामुक आनन्द के लिए न करके केवल योग्य संतान की उत्पत्ति के लिए करना चाहिए। सातवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने इसी प्रकार की घोषणा की थी कि वे ऐसे यौन आकर्षण हैं जो सदाचरण और शास्त्रीय आज्ञाओं के विरुद्ध नहीं हैं।
वासुकी प्रसिद्ध नागराज जिसकी उत्पत्ति प्रजापति कश्यप के औरस और रुद्रु के गर्भ से हुई थी। इस की पत्नी शतशीर्षा थी। नागधन्वातीर्थ में देवताओं ने इसे नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था।शिव का परम भक्त होने के कारण यह उन के शरीर पर निवास था। जब उसे ज्ञात हुआ कि नागकुल का नाश होने वाला है और उस की रक्षा इस के भगिनी पुत्र द्वारा ही होगी तब इस ने अपनी बहन जरत्कारु को ब्याह दी। जरत्कारु के पुत्र आस्तीक ने जनमेजय के नागयज्ञ के समय सर्पों की रक्षा की, नहीं तो सर्पवंश उसी समय नष्ट हो गया होता। समुद्रमंथन के समय वासुकी ने पर्वत का बाँधने के लिए रस्सी का काम किया था। त्रिपुरदाह के समय वह शिव के धनुष की डोर बना था। वासुकी सभी सर्पो का राजा कहा जाता है, परमात्मा ने इस वासुकी को भी अपना रूप कहा है।
वासुकी को अहंकार का प्रतीक भी माना जाता है। जब सक्षम व्यक्ति द्वारा अहंकार शांत और विन्रम भाव से धारण किया जाए तो अहंकार उस के एक गहना होता है, इसे हम शिव के द्वारा गले में धारण वासुकी के रूप में पहचानते है। अहंकार आप के व्यक्तित्व की पहचान भी है जो गलत और तामसी गुणों को आप के पास आने से रोक देता है। किंतु यही अहंकार मन और बुद्धि में आ जाए तो पतन का कारण बन जाता है।
व्यवहार में आप यदि अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिलना पसंद करते है जो अपने निजी स्वार्थ या व्यापार या किसी कार्य से आप का समय खराब करता हो या फिर देश का नेता जन हित के कारण पत्रकार, चाटुकारों से दूर रहता हो तो उस का यह अहंकार उस के लक्ष्य के लिए सहायक होगा। बड़े संत जमीन से जुड़े और विन्रम होते है किंतु अपने नियमो के चलते, वे किसी बाद का परहेज रखते हो तो हम उस को अहंकार मानते है किंतु यह अहंकार उन का आभूषण ही है।
ब्रह्म तेज, आस्था और विश्वास से जन हित के लिये बना शस्त्र वज्र, इंद्रियाओ का नियमन स्वरूप कामनाओं की पूर्ति हेतु कामधेनु, सृष्टि यज्ञ चक्र के कामदेव एवम सर्पो के राजा के राजा के रूप में वासुकी जो जन कल्याणकारी शिव को लपेटे हुए भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते है, सभी परमात्मा के ही स्वरूप है। परमात्मा की विभूतियों को समझने के सात्विक एवम अनुसुवये होना पड़ता है, किसी भी शक्ति या तेज के दैवीय एवम आसुरी गुण होते है। यदि उसे दैवीय गुण से धारण करे तो वह परमात्मा की विभूति है किंतु आसुरी गुण से देखे तो वह अहम एवम भोक्तत्व का कारक है। अतः गुण में अवगुण या सतगुण उस व्यक्ति के विवेक और क्षमता पर निर्भर है। स्वयं में कोई भी गुण या अवगुण नहीं होता।
।।हरि ॐ तत सत।। 10.28।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)