।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.22 II Additional II
।। अध्याय 10.22 II विशेष II
।। 33 कोटि देवी देवता का आशय ।। विशेष – गीता 10. 22 ।।
सनातन संस्कृति में देवी – देवताओं से हम क्या समझे और 33 कोटि देवी – देवता क्यों कहा गया है?
हमारे वेद और शास्त्रो में वर्णित अनेक कथन, परिभाषा एवम अर्थ अक्सर भ्रांति पैदा कर देते है, जब इन्हे शाब्दिक अर्थो के अनुसार पढ़ा जाता है। देवी-देवता भी प्रकृति में परब्रह्म के अंतर्गत एक योनि ही है, जिस प्रकार मनुष्य की योनि होती है, उसी प्रकार देवता और दैत्य की भी योनि होती है। देवता माने जो किसी भी पराप्रकृति की शक्ति पर आधिपत्य रखता हो। यह मुख्य तौर पर सात्विक वृति प्रधान होते है, जब कि दैत्य तामसी वृति प्रधान, इस के कारण दोनों में आपस मे वैर भी माना गया है। मनुष्य से इन की निकटता अधिक होने से मनुष्य इन को इन की शक्ति के आधार पर पूजता भी है।
देवता (संस्कृत के दिव् धातु से, जिस का अर्थ दिव्य होना है) कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र है,या पराप्राकृतिक है और इसलिये पूजनीय/अमर है। देवता अथवा देव इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये। हिन्दू धर्म में देवताओं को या तो परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक रूप माना जाता है, या तो उन्हें ईश्वर का सगुण रूप माना जाता हैं।
बृहदारण्य उपनिषद में एक बहुत सुन्दर संवाद है जिसमें यह प्रश्न है कि कितने देव हैं। उत्तर यह है कि वास्तव में केवल एक ही है जिस के कई रूप हैं।
1 पहला उत्तर है एक जिसने सृष्टि की रचना की
2 दूसरा उत्तर है त्रिदेव अर्थात (ब्रह्मा विष्णु महादेव)
3 तीसरा उत्तर है 33 कोटि अर्थात (33 प्रकार) इन में 12 आदित्य,11 रूद्र,8 वसु और 2 अश्विनी कुमार हैं।
4 चौथा उत्तर हैं 3339 ये इंद्रलोक के देवता है जिन को अलग अलग कार्य मिला है जैसे इंद्र बारिश के देवता, पवन वायु के देवता, सूर्य देवता, अग्नि देवता, जल देवता, इत्यादि इत्यादि।
वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का देवता और ऋषि, कीलक होता है।
देवता वास्तव में 33 करोड़ ही हैं, 33 प्रकार के नहीं। प्रथम तो कोटि शब्द का अर्थ करोड़ भी है और प्रकार भी है, इसे हम अवश्य स्वीकार करते हैं, परंतु यह नहीं स्वीकार करते कि यहां कोटि का अर्थ करोड़ न हो कर प्रकार होगा। पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार योनि या श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी एक प्रकार यानी एक कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिन के नाम अमुक- अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग- अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं?
ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य आदि-आदि। लेकिन यहां तो एक-एक देवता को एक-एक श्रेणी अर्थात प्रकार कह दिया है।
द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, देवयोनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, मनुष्य योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिस में इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इन के अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं।
शुक्ल यजुर्वेद ने कहा : अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता।
अथर्ववेद में आया है : अहमादित्यरुत विश्वेदेवै।
इस में अग्नि और वायु का नाम भी देवता के रूप में आया है। अब क्या ऊपर की 33 देव नामावली में ये न होने से देव नहीं गिने जाएंगे? मैं ये नहीं कह रहा कि ये ऊपर के गिनाए गए 33 देवता नहीं होते बिलकुल होते हैं लेकिन इनके अलावा भी करोड़ों देव हैं।
भगवती दुर्गा की 5 प्रधान श्रेणियों में 64 योगिनियां हैं। हर श्रेणी में 64 योगिनी। इनके साथ 52 भैरव भी होते हैं। सैकड़ों योगिनी, अप्सरा, यक्षिणी के नाम मैं बता सकता हूं। 49 प्रकार के मरुद्गण और 56 प्रकार के विश्वेदेव होते हैं। ये सब कहां गए? इन की गणना क्यों न की गई?
33 कोटि बताने वालों का अन्य अर्थात द्वितीय खंडन:
शिव-सती : सती ही पार्वती है और वही दुर्गा है। उसी के 9 रूप हैं। वही 10 महाविद्या है। शिव ही रुद्र हैं और हनुमानजी जैसे उनके कई अंशावतार भी हैं।
विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के 24 अवतार हैं, वही राम हैं और वही कृष्ण भी। बुद्ध भी वही है और नर-नारायण भी वही है। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नागदेवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।
ब्रह्मा-सरस्वती : ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है। उनके मानस पुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि हुए जिन की कई पत्नियां थीं। उन्हीं से इस धरती पर पशु-पक्षी और नर-वानर आदि प्रजातियों का जन्म हुआ। चूंकि वे हमारे जन्मदाता हैं इसलिए ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है।
इन के तर्क का पुन: खंडन :
यदि कश्यप ऋषि आदि को आप इसीलिए देव नहीं मानते, क्योंकि ब्रह्मा के द्वारा इनका प्राकट्य हुआ है, सो ये सब ब्रह्मरूप हुए सो इनकी गिनती नहीं होगी तो कश्यप के द्वारा प्रकट किए गए 12 आदित्य और 8 वसु तथा 11 रुद्रों को आप कश्यप रूप मानकर छोड़ क्यों नहीं देते? इनकी गिनती के समय आप की प्रज्ञा कहां गई?
यदि सारे रूद्र शिव के अवतार हैं, स्वयं हनुमानजी भी हैं, तो क्या आप पार्वती को हनुमानजी की पत्नी कह सकते हैं? क्यों नहीं? इसीलिए क्योंकि हनुमान रुद्रावतार हैं उस समय अवतार यानी वही ऊर्जा होने पर भी स्वरूपत: और उद्देश्यत: भिन्न हैं। ऐसे ही समग्र संसार नारायण रूप होने पर भी स्वरूपत: और उद्देश्यत: भिन्न हैं। इसी कारण आप सीता को कृष्ण पत्नी और रुक्मिणी को राम पत्नी नहीं कह सकते, क्योंकि अभेद में भी भेद है और जो सभी के एक होने की बात करते हैं वे यदि इतने ही बड़े ब्रह्मज्ञानी हैं तो क्या उन्हें शिव और विष्णु की एकाकारता नहीं दिखती?
शिव और विष्णु में इन्हें भेद दिखता है इसलिए इन्हें अलग-अलग गिनेंगे और राम और विष्णु में अभेद दिखता है, सो इन्हें नहीं गिनेंगे। समग्र संसार ही विष्णुरूप है, रुद्ररूप है, देवीरूप है। भेद भी है और अभेद भी है। लेकिन यदि अभेद मानते हो फिर ये जो 33 देव गिना रहे हो ये भी न गिना पाओगे, क्योंकि जब विष्णु के अवतार राम और कृष्ण को अभेद मानकर नहीं गिन रहे, सती के 10 महाविद्या अवतार को नहीं गिन रहे तो फिर शिवजी के 11 रुद्र अवतार को किस सिद्धांत से गिन रहे हो? सभी ग्रामदेव, कुलदेव, अजर आदि क्षेत्रपाल, ये सबको कौन गिनेगा? ये छोड़ो, इस 33 वाली गणना में तो गणेश, कार्तिकेय, वीरभद्र, अग्नि, वायु, कुबेर, यमराज जैसे प्रमुख देवों को भी नहीं गिना गया।
वेदों में कही-कहीं 13 देवता की भी बात आई है और कहीं-कहीं 36 देवता की भी चर्चा है। 3,339 और 6,000 की भी चर्चा है। अकेले वालखिल्यों की संख्या 60,000 है। तो वहां इन 33 में से कुछ को लिया भी गया है और कुछ को नहीं भी। तो क्या वह असत्य है? बिलकुल नहीं। जैसे जहां मनुष्य की चर्चा हो वहां आप केवल उनका ही नाम लेते हैं जिसका उस चर्चा से संबंध हो, सभी का नहीं। वैसे ही जहां जैसे प्रसंग हैं वहां वैसे ही देवों का नाम लिया गया है। इसका अर्थ ये नहीं कि जिनकी चर्चा नहीं की गई, या अन्यत्र की गई, उसका अस्तित्व ही नहीं। इस 33 की श्रेणी में गरूड़, नंदी आदि का नाम नहीं जबकि वेदों में तो है। विनायक की श्रेणी में, वक्रतुण्ड की श्रेणी में गणेशजी के सैकड़ों अवतार के नाम तंत्र में आए हैं।
कार्य कारण के सिंद्धान्त के कारण हर वस्तु का नियामक एक देवता होता है। यदि कोई व्यक्ति आप को मिले। या कोई वस्तु आप के पास कितने समय तक रहे, यह कौन तय करेगा। इसलिये हर वस्तु के नियामक को देवता माना गया है। अतिभौतिक, अतिदैविक और अध्यात्मवाद के अनुसार, आधिदैविक शक्तियां भी जीव के जीवन काल में कार्य करती है। इन्ही आधिदैविक शक्तियों की विभिन्न स्वरूपों मनुष्य पूजा करता है और इसी कारण आदिवासी के देव और ब्रह्मविद के देव में अंतर ज्ञान से पहचान सकते है।
परमात्मा का कहना है कि वह प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और वेदांत कहता है कि ब्रह्म का अंश जिस ने प्रकृति की योगमाया (सत – रज – तम) को नियंत्रित किया, वह देवता बना और जो प्रकृति की योगमाया से नियंत्रित है, वह जीव हुआ। अतः जीव और देवता में अंतर योग का है, नियंत्रण और आत्मशुद्धि का है। इसलिए मानव में महापुरुष देवता बन कर उन के अनुयायियों से पूजे जाते है। इन महापुरुषों को भी देवतुल्य मानते है तो 33 कोटि देवी देवता का अर्थ स्पष्ट है कि प्रत्येक जीव जिस ने प्रकृति की योगमाया को जीत लिया, वही देवी/ देवता है। 33 कोटि कोई संख्या नही, एक मील का पत्थर है कि देवी – देवता भी अनगिनत हो कर ब्रह्म के उस अंश का स्वरूप है। जिन्हे जीव विभिन्न स्वरूपों में पूजता है, अर्थात हर जीव जो लोकसंग्रह के लिए निष्काम भाव कर्म करता है, वही देवता है।
जब किसी बीमार की निस्वार्थ सेवा करने वाला देव पुरुष हो, जब किसी भूखे व्यक्ति को भोजन कराने वाला और वस्त्र हीन को वस्त्र देने वाला देव पुरुष हो, जब किसी के संकट में उस की रक्षा करने वाला देव पुरुष हो और जब अज्ञान में ज्ञान की ज्योति जगाने और समाज को रास्ता दिखाने वाला देव पुरुष हो, तो 33 करोड़ देवी देवता क्यों नहीं हो सकते? अतः 33 करोड़ देवी देवताओं से आशय अनगिनत सात्विक गुणों से युक्त जीव ही होना चाहिए।
हां, 33 कोटि देव की बात है जरूर और कोटि का अर्थ करोड़ ही है, क्योंकि देवता केवल स्वर्ग में नहीं रहते। उन के सैकड़ों अन्य दिव्यलोक भी हैं और ऐसा कहा जाए तो फिर सभी एकरूप होने से सीधे ब्रह्म के ही अंश हैं तो ये 33 भी गिनती में नहीं आएंगे। फिर वैसे तो हम सब भी गिनती में नहीं आएंगे। हम सभी भारतीय ही हैं तो इन्हें 140 करोड़ अलग-अलग क्यों गिनते हैं?
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष 10.22 ।।
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