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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.19 II

।। अध्याय      10.19 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.19

श्रीभगवानुवाच,

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

“śrī-bhagavān uvāca,

hanta te kathayiṣyāmi,

divyā hy ātma-vibhūtayaḥ..।

prādhānyataḥ kuru-śreṣṭha,

nāsty anto vistarasya me”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान ने कहा – हे कुरुश्रेष्ठ! हाँ अब मैं तेरे लिये अपने मुख्य अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तार की तो कोई सीमा नहीं है। (१९)

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

Of course. I will tell you my most significant divine expressions, O best of the Kurus. For there is no end to the extent of my expressions.

Explanation:

So far, Arjuna expressed interest and enthusiasm for hearing Ishvara’s manifestations and expressions in detail. Shri Krishna, delighted with Arjuna’s request, replied by saying “hanta”. The word hanta has three meanings. It is used to express excitement, wonder or dejection. In this context, Shri Krishna was happy and eager to speak about Ishvara’s glories, so the meaning here is with regards to excitement. So, hanta means very well; OK.; fine; it is just a particle very well. I shall certainly narrate; enumerate, enlist; ātmavibhūtayaḥ; my glories; here also the word ātma is reflective pronoun; my own glory.

The Amar Kosh (ancient Sanskrit dictionary that is widely respected) defines vibhūti as vibhūtir bhūtir aiśhwaryam (power and wealth). God’s powers and wealth are unlimited. Actually, everything about him is unlimited. He has unlimited forms, unlimited names, unlimited abodes, unlimited descensions, unlimited pastimes, unlimited devotees, and so on.

Hence, the Vedas refer to him by the name anant (unlimited) “God is infinite and manifests in innumerable forms in the universe. Although he administers the universe, he is yet the non-doer.”

The Ramayan states: “God is unlimited, and the pastimes he enacts in his unlimited Avatārs are also unlimited.

Sage Ved Vyas goes to the extent of saying: “Those who think they can count the glories of God have a childish intellect. We may be successful in counting the specks of dust on the crest of the earth, but we can never count the unlimited glories of God.”

Therefore, Shree Krishna says here that he will only be describing a small fraction of his vibhūtis. And what type of glory? divyāḥ; which are extra-ordinary, because even ordinary things are Bhagavān’s glories only.

Let us go back to our electricity example. There are thousands upon thousands of objects that use electricity. It is impossible to enumerate all of them. But it is possible to list those objects that are mighty, powerful, or have the capacity to elicit wonder and awe. Similarly, Shri Krishna admitted that though it would not be possible to list all of Ishvara’s glories and expressions because they are infinite. However, he would be able to list the most significant ones.

As we go through the list of Ishvara’s expressions in the upcoming shlokas, we may tend to get carried away by the richness of the stories, the mythology, the history and so on. While that is good and has its place, let us not forget the main point, which is to keep our mind established in the thought that “Ishvara is in everything”.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अमरकोष (अति प्रतिष्ठित प्राचीन संस्कृत शब्द कोष) में विभूति की परिभाषा ‘विभूतिर भूतिर ऐश्वर्यम’ (शक्ति और समृद्धि) के रूप में उल्लिखित है। भगवान की शक्तियाँ और ऐश्वर्य अनन्त हैं। वास्तव में भगवान से संबंधित सभी वस्तुएँ अनन्त हैं। उनके अनन्त रूप, अनन्त नाम, अनन्त लोक, अनन्त अवतार, अनन्त लीलाएँ, अनन्त भक्त और सब कुछ अनन्त हैं। इसलिए वेद उन्हें अनन्त नाम से संबोधित करते हैं।

अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता (श्वेताश्वरोपनिषद्-1.9) “भगवान अनन्त हैं और ब्रह्माण्ड में अनन्त रूप लेकर प्रकट होते हैं। यद्यपि वे ब्रह्माण्ड के शासक हैं तथापि अकर्ता हैं।”

महर्षि वेदव्यास इससे भी परे जाते हुए वर्णन करते हैं

यो वा अनन्तस्य गुणाननन्ताननुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः। रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित् कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः।।(श्रीमद्भागवतम्-11.4.2) “वे जो भगवान के गुणों की गणना करने की बात करते हैं वे मंदबुद्धि हैं। हम धरती पर बिखरे रेत के कणों को गिनने में सफलता पा सकते हैं लेकिन हम भगवान के अनन्त गुणों की गणना नहीं कर सकते”

रामचरितमानस में भी वर्णन किया गया है

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥ रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥ भगवान और उसकी लीलाएँ अनन्त हैं। वे अवतार लेकर जो लीलाएँ करते हैं, वे भी अनन्त हैं।”

गोस्वामी तुलसीदास की यह पंक्तियां परमात्मा की अनन्त विभूतियों की द्योतक है। सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न है अतः इस के ऐष्वर्य, सुख, आनन्द, सौंदर्य एवम आध्यात्मिक, आत्मिक एवम सांसारिक विभूतियों की कोई गणना नही हो सकती। परमात्मा प्रत्येक जड़-चेतन में होने से श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे यहाँ केवल मुख्य मुख्य उदाहरण के रूप कुछ विभूतियों को अर्जुन को बताने की बात कहते है।

गीता में अर्जुन का भगवद्विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस दसवें अध्याय में जब भगवान् ने यह कहा कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है, तब अर्जुन की दृष्टि भगवान् की अनन्तता की तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान् के विषय में तो मैं कुछ भी नहीं जानता क्योंकि भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं, अपार हैं। परन्तु अर्जुन ने भूल से कह दिया कि आप अपनी सब की सब विभूतियाँ कह दीजिये। तब भगवान् कहते हैं कि ठीक है! किंतु मैं अपनी दिव्य विभूतियों जो असाधारण है, केवल उन्हीं को संक्षेप से कहूँगा क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है।

दिव्य विभूतियों का वर्गीकरण में किसी को कम या नगण्य नहीं समझना चाहिए। क्योंकि पलकों का झपकना या हृदय का धड़कना साधारण सा दिखते हुए भी, असाधारण है। किंतु यहां हम दिव्य विभूतियों में उन महान व्यक्तित्व को समझेंगे, जिन्होंने सृष्टि यज्ञ चक्र में लोकसंग्रह हेतु अद्वितीय कार्य किया हो। क्योंकि परमात्मा ही योगमाया से यह सृष्टि का पालन और संचालन करता है, इसलिए इस सृष्टि में लोकसंग्रह के कार्य अद्वितीय जो कुछ भी है, वही दिव्य विभूति है।

भगवान् श्रीकृष्ण का यह विस्तृत एवं व्याख्यापूर्ण उत्तर, एक एक वस्तु और व्यक्ति में तथा उन के समूह में आत्मा की वास्तविक पहचान का वर्णन करता है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपनी विभूति और योग का वर्णन करते समय भगवान् श्रीकृष्ण निम्नलिखित दो बातों को बताने का विशेष ध्यान रखते हैं। (क) प्रत्येक वस्तु में अपना सर्वोच्च महत्त्व (ख) उनके बिना किसी भी एक वस्तु या समूह का सामञ्जस्य पूर्ण अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता। इस खण्ड का प्रारम्भ जिस हन्त शब्द से होता है, वह अर्जुन के प्रति गीताचार्य के प्रेमपूर्ण सहानुभूति को दर्शाता है तथा उस से अर्जुन में प्रतीत होने वाली अक्षमता के प्रति भगवान् की चिन्ता भी व्यक्त होती है, क्योंकि उस अक्षमता के कारण वह उस तत्त्व को नहीं अनुभव कर पा रहा था जो उसके अत्यन्त समीप है, उसका स्वरूप ही है। हन्त शब्द को इस खण्ड के प्रारम्भ का केवल सूचक मानने में उस में निहित गूढ़ अभिप्राय का लोप हो जाने के कारण वह अर्थ स्वीकार्य नहीं हो सकता।समष्टि और व्यष्टि उपाधियों के द्वारा इस बहुविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए आत्मा के विस्तार का अन्त नहीं हो सकता। इसलिए उस का वर्णन करना असंभव है, तथापि करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शरणागत् शिष्य अर्जुन के प्रति अपनी असीम अनुकम्पा के कारण इस असंभव कार्य को अपने हाथ में लेते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि उनके विस्तार का कोई अन्त नहीं है फिर भी वे अर्जुन को अपनी प्रधान विभूतियाँ बतायेंगे।

भौतिक जगत् में यह एक अनुभूत सत्य है कि सूर्यप्रकाश सभी वस्तुओं की सतह पर से परावर्तित होता है चाहे वह पाषाण हो या दर्पण किन्तु दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब या परावर्तन अधिक स्पष्ट और तेजस्वी होता है। भगवान् वचन देते हैं कि वे ऐसे दृष्टान्त देंगे जिन में दिव्यता की अभिव्यक्ति के साक्षात् दर्शन हो सकते हैं।

व्यवहारिकता में यह अध्याय विभिन्न विभूतियों के माध्यम से परमात्मा के गुणों का विश्लेषण है, जिसे किसी भी जीव को अपने जीवन में धारण करना चाहिये। किन्तु जीव उन के गुणों को धारण करने की बजाए, व्यक्ति पूजा करते हुए, उन से अपने सांसारिक स्वार्थ और परमार्थ की अपेक्षा शुरू कर देते है। परमात्मा का भी यही कहना है कुछ ज्ञानी अज्ञान के वशीभूत को इन्हें देवता मान कर पूजते है और इस लोक एवं  विभिन्न लोको की सुख सुविधा की याचना करते है। उन लोगो की पूजा को भी मैं उन्ही देवताओ के माध्यम से स्वीकार कर के देवताओ के सामर्थ्य के अनुसार उन्हें फल भी देता हूँ किन्तु मोक्ष के लिये उन्हें मुझ तक ही पहुचना होगा। विभूतियों का सांसारिक लोग जब वंशज बन कर उन के आचरण, कर्म, ऐष्वर्य एवम तप का मिथ्या गौरव लेने की कोशिश करते है, तो भी वह उन्हें तब तक प्रदान नही होता,जब तक वह स्वयं को तप, आचरण और कर्म से उस सीमा तक नही ले जाता। भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, माता, पिता, गुरु, शिष्य, जाति, धर्म और संप्रदाय सांसारिक बन्धन हो सकते है किंतु परमात्मा से सभी जीव का सम्बंध परमात्मा और उस के अंश का स्वतंत्र सम्बन्ध ही है। जो अंश या जीवात्मा मुक्ति के लिये परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करता है, परमात्मा उसी का योगक्षेम वहन करते है। इसलिये विभूतियों का वर्णन तुलात्मक स्वरूप में कुछ उच्चतम  विभूतियों में श्रेष्ठतम विभूति बता कर किया गया है। यही कारण है कि आप चाहे अग्रवाल, शर्मा, राजकुल या किसी महान नेता या महान संत, क्षत्रिय, ब्राह्मण वंश में जन्म लेने से अपने आप को कितना भी गौरवशाली महसूस करे या समाज मे अपना कितना भी गौरवगान करते रहे, किन्तु आप को अपना वास्तविक गौरव आप के कुल की श्रेष्ठतम विभूतियों के तप, कर्म और आचरण द्वारा लोकसंग्रह में देश, समाज और धर्म के लिए निष्काम हो कर किए हुए कार्यों से ही  प्राप्त होगा।

भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियों को तेरे लिये कहूँगा। जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि में जो कुछ भी विशेषता दीखती है, वह,वस्तुतः भगवान् की ही है। इसलिये उस विशिष्टता को भगवान् की ही देखना दिव्यता है और वस्तु, व्यक्ति आदि की देखना अदिव्यता अर्थात् लौकिकता है। विभूतियाँ और योग – इन दोनों में से पहले भगवान् बीसवें श्लोक से उनतालीसवें श्लोक तक अपनी बयासी विभूतियों का वर्णन करते हैं। फिर योग के विषय मे बताते है, इसे हम परमात्मा को ध्यान करते हुए, उन की विभूतियों को उन के तप,कर्म और आचरण को ध्यान में रखते हुए, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 10.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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