।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.09 II
।। अध्याय 10.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.9॥
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
“mac-cittā mad-gata-prāṇā,
bodhayantaḥ parasparam..।
kathayantaś ca māḿ nityaḿ,
tuṣyanti ca ramanti ca”..।।
भावार्थ:
जिन मनुष्यों के चित्त मुझमें स्थिर रहते हैं और जिन्होने अपना जीवन मुझको ही समर्पित कर दिया हैं, वह भक्तजन आपस में एक दूसरे को मेरा अनुभव कराते हैं, वह भक्त मेरा ही गुणगान करते हुए निरन्तर संतुष्ट रहकर मुझमें ही आनन्द की प्राप्ति करते हैं। (९)
Meaning:
Their mind absorbed in me, their life force absorbed in me, educating each other and conversing with each other about me daily, they find contentment and delight.
Explanation:
Having described the state of avikampa yoga or the yoga of unwavering devotion, Shri Krishna now describes the state of the unwavering devotee. He says that their minds are always absorbed in contemplating Ishvara and their entire lives are submitted in extolling the virtues of Ishvara. This gives them an eternal source of joy and contentment.
The nature of the mind is to become absorbed in what it likes most. Devotees of the Lord become absorbed in remembering him because they develop deep adoration for him. His devotion becomes the basis of their life, from which they derive meaning, purpose, and the strength to live. They feel it as essential to remember God as a fish feels it essential to have water.
The Swiss are known for running their trains with near-perfect precision. If the train has to leave the platform at 9:30 am, it will leave the station not one second earlier or later. So whenever we have to board a train in Switzerland, there will never be a doubt in our mind as to whether the train will be on time or not. Our faith in the precision of their train system is unshakeable.
So thus, for a bhaktha; God vision is not at a particular time; but at all the time; and therefore maccittāḥ; their mind is always fixed on Me; they cannot lose sight of Me; and madgataprāṇāḥ; prāṇāḥ means sense organs; their sense organs also fixed on Me.
Similarly, when we our faith in Ishvara becomes firm, we do not go running towards other sources of joy in the world. We recognize that the universe operates under Ishvara’s laws, and that any pleasant or unpleasant situations that we encounter are a result of our prior actions. They are not random or arbitrary. Our likes and dislikes will slowly thin down. We will take every situation as a learning experience and keep our focus on Ishvara.
Shri Krishna says that when devotees gain such a strong faith and conviction in Ishvara, they do not think about anything else. Like cricket fans who eat, sleep, breathe and talk about cricket, the devotees converse about Ishvara, educate each other about Ishvara and dedicate their mind and senses to Ishvara.
Why do they do this? They only find contentment and joy in Ishvara since they do not need to run towards material objects for happiness. They revel in Ishvara. This is the difference between an ordinary seeker and a serious seeker. An ordinary seeker is interested in Ishvara “also”, whereas a serious seeker is interested in Ishvara “only”.
When such tremendous devotion is poured into Ishvara, the result should be something extraordinary. What is it? This is taken up next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
प्रातः काल रघुवीर छवि चितै चतुर चित्त मेरे।
होंहि विवेक – विलोचन निर्मल सुफल सुशीतल तेरे।।
तुलसी दास जी यह पंक्तियां इस श्लोक के भाव को दर्शाती है कि भक्त को हमेशा परमात्मा के नाम, रूप, गुण एवम धाम इन सभी को हृदय में भर कर एकनिष्ठ हो कर निरंतर समर्पण भाव से स्मरण करना चाहिए। यह स्मरण समर्पण भाव से अहम एवम कामना को त्याग कर होना चाहिए।
भगवान् से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान् से ही सब की चेष्टा हो रही है अर्थात् सब के मूल में परमात्मा है – यह बात जिन को दृढ़ता से और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है, उन के लिये कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस, उन का एक ही काम रहता है – सब प्रकार से भगवान् में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोक में बतायी गयी है। वे मेरे में चित्तवाले हैं। एक स्वयं का भगवान् में लगना होता है और एक चित्त को भगवान् में लगाना होता है। जहाँ मैं भगवान् का हूँ ऐसे स्वयं भगवान् में लग जाता है, वहाँ चित्त, बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान् में लग जाते हैं। कारण कि कर्ता (स्वयं) के लगनेपर करण (मन, बुद्धि आदि) अलग थोड़े ही रहेंगे वे भी लग जायँगे। करणों के लगने पर तो कर्ता अलग रह सकता है, पर कर्ता के लगने पर करण अलग नहीं रह सकते। जहाँ कर्ता रहेगा, वहीं करण भी रहेंगे। कारण कि करण कर्ता के ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है, करण भी वहीँ लगते हैं। जैसे, कोई मनुष्य परमात्म प्राप्ति के लिये सच्चे हृदय से साधक बन जाता है, तो साधन में उसका मन स्वतः लगता है।
जब मन सुगठित और एकाग्र होता है, तभी साधक उस मन के द्वारा परमात्मा का ध्यान सफलतापूर्वक कर सकता है। ध्येय से भिन्न विषय का विचार उठने पर यह एकाग्रता भंग हो जाती है। एक बार निश्चयात्मक रूप से यह जान लेने पर कि ईश्वर और जीव का वास्तविक स्वरूप एक चैतन्य आत्मा ही है, मन में किसी भी प्रकार की वृत्ति उठने पर भी सत्य के साधक को इस आत्मा का भान बनाये रखने में कोई कठिनाई नहीं होती।
भक्त के प्राण मेरे ही अर्पण हो गये हैं। प्राणों में दो बाते हैं जीना और चेष्टा। उन भक्तों का जीना भी भगवान् के ही लिये है और शरीर की सम्पूर्ण चेष्टाएँ (क्रियाएँ) भी भगवान् के लिये ही हैं। शरीर की जितनी क्रियाएँ होती हैं, उनमें प्राणों की ही मुख्यता होती है। अतः उन भक्तों की यज्ञ अनुष्ठान आदि शास्त्रीय भजनध्यान, कथाकीर्तन आदि भगवत् सम्बन्धी खानापीना आदि शारीरिक खेती व्यापार आदि जीविका सम्बन्धी सेवा आदि सामाजिक आदिआदि जितनी क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान् के लिये ही होती हैं।
जब मन, चित्त और प्राण परमात्मा को अर्पण हो गए तो मच्चित्ता एवम मदतप्राण की स्थिति हो गई। इस स्थिति में समस्त कर्म एवम चेष्टाएँ परमात्मा को ही समर्पित हो जाती है। परमात्मा के प्रति अनन्य भक्ति का आधार श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण और समर्पण है, किन्तु यह उस के अव्यक्त स्वरूप की अपेक्षा नामरूप व्यक्त स्वरूप से ही सम्भव हो पाता है। इसलिये विभूतियां परमात्मा के व्यक्त एवम नाम रूप की द्योतक है, जिस के माध्यम से मनुष्य भक्ति मार्ग से परमात्मा में असीम प्रेम से समर्पित होता है। बिना नाम और रूप के कोई किस को भजे या मन से स्मरण करें।
अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि आत्मज्ञान की मुख्य बाधा मन ही है । कर्म , मोह , स्वप्न एवं जनता जडता का भाव मन से ही होता है । अतः जिसका मन गल गया है ; उसके कर्म , मोह , स्वप्न एवं जडता सब समाप्त हो गये हैं । ऐसा व्यक्ति पूर्ण चेतन तथा जागृत अवस्था में सदा स्थित रहता है । यह अवस्था अनिर्वचनीय है, जिसको कैवल्य अवस्था कहते हैं ।।
जैसे दीपक के नीचे अँधेरा रहता है, पर दो दीपक एक दूसरे के सामने रख दें तो दोनों दीपकों के नीचे का अँधेरा दूर हो जाता है। ऐसे ही जब दो भगवद्भक्त एक साथ मिलते हैं और आपसमें भगवत्सम्बन्धी बातें चल पड़ती हैं, तब किसी के मन में किसी, तरह का भगवत् सम्बन्धी विलक्षण पैदा होता है तो वह उसे प्रकट कर देता है तथा दूसरे के मन में और तरह का भाव पैदा होता है तो वह भी उसे प्रकट कर देता है। इस प्रकार आदान प्रदान होने से उन में नये नये भाव प्रकट होते रहते हैं। यह साधक कभी श्रोता तो कभी वक्ता बन कर परमात्मा की चर्चा करते रहते है, जिस से इन को संतुष्टि एवम बौद्धिक विकास भी मिलता है।
भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं कि पूर्णत्व का साधक जब विचार मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसी समय उसे सन्तोष और रमण का अनुभव होता है। सन्तोष और आनन्द से मन में ऐसा सुन्दर वातावरण निर्मित होता है? जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यन्त अनुकूल बनकर साधक की सफलता निश्चित कर देता है। सदैव असन्तुष्ट, शोक मनाने वाले मानसिक स्तब्धता और बौद्धिक दरिद्रता का चित्र प्रस्तुत करने वाले साधक कदापि अपने इस परम आनन्दस्वरूप में प्रवेश नहीं कर सकते हैं।
व्यवहार में लक्ष्य तय करने के बाद उस पर एकनिष्ठ हो परस्पर सहयोग एवम सहकार्य करने से मन मे आनन्द होता है, अहम का टकराव न होने से वातावरण भी आनन्दित रहता है और उद्देश्य की पूर्ति भी पारस्परिक विचारों के आदान प्रदान से अच्छे एवम सुदृढ़ पूर्ण होती है। कामना एवम अहम को त्याग कर निस्वार्थ भाव से किया हर कार्य भगवान का भजन है, विभूति है, फिर चाहे आप आफिस में बैठ कर काम करे, दुकान में माल ख़रीदे- बेचे, सीमा की सुरक्षा में लगे या अनुसंधान में, विद्यार्थी द्वारा अपने अध्ययन को करना आदि आदि यह सब परमात्मा का भजन है, उस का निरंतर स्मरण एवम समर्पण है, जरूरत है आप के प्रयास में जनहित ही, सहकार्य की, निस्वार्थ भाव की, लगन की, मेहनत की अर्थात अपनी समस्त इंद्रियाओ, प्राण से परमात्मा के कार्यो में जुड़ने की। परमात्मा का कथन है कि इस प्रकार कार्य करने से वातावरण भी रमणीय होता है और मन मे आनन्द भी। तभी भगवान ने अर्जुन से कहा था कि मुझे स्मरण कर और युद्ध कर। भजन कीर्तन ढ़ोल बजाना या गला फाड़ कर गाना ही मात्र भगवान का स्मरण नही है, यह तो एक चित्त हो कर परमात्मा के कार्य मे जुट जाना है। प्रकृति का हर कार्य जो निष्काम और लोकसंग्रह का हो, वह परमात्मा का है, इसलिये अटल विश्वास के साथ कार्य कर के जो भी, जिस प्रकार का कार्य हो उसे पूर्ण श्रद्धा एवम विश्वास के साथ स्वीकार करते हुए अपने कार्य को करते रहना। यही परमात्मा का भजन है उस को शुकराना कभी नही भूलना चाहिए। हर बौद्धिक संवाद, सांत्वना, प्रेम से बोला शब्द परमात्मा का भजन है जिस से किसी को कष्ट न देने की भावना हो और जनहित से किया हर कार्य परमात्मा का कार्य है।
इसरो परमात्मा के भजन का उदाहरण है, जहां चंद्रयान भेजने वाले अध्यक्ष सिवान पहले तिरुपति बाला जी के दर्शन करते है और मिशन चंद्रयान एक के असफल होने पर भी यही कहा गया कि अगली बार हम इस से बेहतर करेंगे। युद्ध भूमि में गीता अर्जुन को कर्म मन के विकार से मुक्त हो करते रहने के लिये सुनाई थी। जिस ने अपने चित्त और प्राण परमात्मा को समर्पित कर दिए और इस भांति के लोगो के समूह में कार्य करना शुरू किया, वहाँ असंतोष, उद्विन्ता, स्वार्थ, कामना, आसक्ति को कोई स्थान नही रहता। यही स्वस्थ समाज की निशानी भी है।
परमात्मा से जुड़ने के दो भाव है आत्मिक भाव जिस में आप परमात्मा के प्रति निस्वार्थ और निष्काम भाव से समर्पित हो कर, प्रकृति के निमित्त हो कर अपने कर्तव्य कर्म को करते है और अन्य भाव शाब्दिक भाव है जिस में आप स्वार्थ, लोभ या मोह के प्राकृतिक भाव में परमात्मा को स्मरण करते हुए अपने कर्म को करते है। दोनो ही भजन या कीर्तन करे किंतु दोनो के भाव और कर्म में अंतर है। प्रथम में कर्म फल का बंधन नहीं है और द्वितीय में कर्म फल का बंधन है। इसलिए राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा में आत्मिक भाव से समर्पित सैलाब पूरे देश ने महसूस किया, वही शाब्दिक भाव का समर्पण भी कुछ लोगों से उच्च कोटि के आध्यात्मिक शब्दों में हम ने सुना। यह आत्मिक और शाब्दिक भाव हमारा अपना है, कोई इसको जांच नही सकता और न ही उसे इस का अधिकार है। क्योंकि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
भक्तों के द्वारा होने वाले भजन का प्रकार बताकर अब आगे के दो श्लोकों में भगवान् उन पर विशेष कृपा करने की क्या बात बताते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।10.09।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)