।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.08 II
।। अध्याय 10.08 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.8॥
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥
“ahaḿ sarvasya prabhavo,
mattaḥ sarvaḿ pravartate..।
iti matvā bhajante māḿ,
budhā bhāva-samanvitāḥ”..।।
भावार्थ:
मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सम्पूर्ण जगत की क्रियाशीलता है, इस प्रकार मानकर विद्वान मनुष्य अत्यन्त भक्ति-भाव से मेरा ही निरंतर स्मरण करते हैं। (८)
Meaning:
I am the cause of everything, everything is set in motion by me. Realizing this, wise individuals filled with this attitude worship me.
Explanation:
“Avikampena yoga”, the unwavering, unshakeable yoga, is defined by Shri Krishna as knowing that Ishvara is the cause of everything, and that everything originates from Ishvara. Those who have established themselves in this yoga are “budhaa”, they are wise. They only worship or contemplate upon Ishvara, remaining unaffected by the ups and downs in life.
So, Lord being the cause of the universe, the Lord has the potentiality to manifest as pots, etc. Just as the seed has the potentiality to manifest as the tree; which is called śaktiḥ to evolve as the universe. This power of manifestation; this śakti is called yōgaḥ; yōgaḥ śaktiḥ this is called or māya śaktiḥ it is called. Thus Lord has got this māya. So what is the definition of māya? The potential power is māya; and any potential is always in dormant form.
And later, when the potential comes to manifestation; the manifest form is always pratakṣam means what? Visible; When the seed’s potential has become kinetic; In science we talk about potential energy and kinetic energy; potential is hidden; kinetic is activated; it is actuallised; when the seed has the potential; you do not see; when it has become a tree, that yōga has become what? Visible. And the visible version is called vibhūthiḥ; the unmanifest power is called yōgaḥ; the manifest version of the same power is called vibhūthiḥ.
Thus, parabrahm is the Supreme Lord of both the material and spiritual creations. “He does not directly involve himself in the works of creating, maintaining, and dissolving the material universes.”
He expands himself as Karanodakshayi Vishnu, who is also called Maha Vishnu. Maha Vishnu is also known as Pratham Puruṣh (first expansion of God in the material realm).
He then expands himself to reside at the bottom of each universe as Garbhodakshayi Vishnu, who is called Dwitīya Puruṣh (second expansion of God in the material realm).
From Garbhodakshayi Vishnu, Brahma is born. He guides the process of creation—creating the various gross and subtle elements of the universe, the laws of nature, the galaxies and planetary systems.
Garbhodakashayi Vishnu further expands himself as Kshirodakshayi Vishnu, and resides at the top of each universe, in a place called Kṣhīra Sāgar. Kshirodakshayi Vishnu is also known as Tṛitīya Puruṣh (third expansion of God in the material realm). He resides at the top of the universe, but he also resides as the Supreme soul, in the heart of all living beings in the universe, noting their karmas, keeping an account, and giving the results at the appropriate time. He is thus known as the maintainer of the universe.
Imagine an adult and a child walking inside a haunted house within an amusement park. Though both of them see and hear the same things, they have different reactions. The child thinks that the ghosts and the eerie noises are real and becomes afraid. The adult knows that everything inside is fake, it is unreal. So enjoys the thrill of the haunted house without being afraid.
The difference between the adult and the child is that the adult has knowledge about the cause of the ghosts and the noises. Similarly, Shri Krishna says that one who knows Ishvara as the cause of everything, and as the inner controller of everything, will develop an extremely positive attitude towards life. He will take failures as learning opportunities, not as triggers for depression. He will never question why something bad happened to him, knowing that it is a result of his prior actions.
One who has developed such an outlook towards life will worship Ishvara at all times. This is indicated by the worlds “maam bhajante”. He will experience sorrow only if he forgets that Ishvara is the cause of everything. When one has understood that Ishvara, as the cause of everything, also is the ultimate goal, then they become totally immersed in Ishvara, as described in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान के ही योगबल से यह सृष्टि चक्र चल रहा है; उन्ही की शासन-शक्ति से सूर्य, चंद्रमा, तारागण और पृथ्वी आदि नियम पूर्वक घूम रहे है; उन्ही के शासन से समस्त प्राणी अपने अपने कर्मानुसार अच्छी बुरी योनियों में जन्म धारण करके अपने अपने कर्मो का फल भोग रहे है- इस प्रकार से परमात्मा को सब का नियंता और प्रवर्तक समझना एवम श्रद्धा एवम भक्ति युक्त बुद्धिमानी से भजन करना ही परमात्मा को सम्पूर्ण जगत का प्रभव समझना है। बुद्धिमान संसार परायण न रह कर केवल भगवतप्रयाणं रहते है।
एक कुम्भकार कुम्भ बनाने के लिए सर्वप्रथम घट के निर्माण के उपयुक्त लचीली मिट्टी तैयार करता है। तत्पश्चात् उस मिट्टी के गोले को चक्र पर रखकर घटाकृति में परिवर्तित करता है। तीसरी अवस्था में घट को सुखाकर उसे चमकीला किया जाता है और चौथी अवस्था में उस तैयार घट को पकाकर उस पर रंग लगाया जाता है। घट निर्माण की इस क्रिया में मिट्टी निश्चय ही कह सकती है कि वह घट का प्रभव स्थान है। चार अवस्थाओं में घट का जो विकास होता है, उस का भी अधिष्ठान मिट्टी ही थी, न कि अन्य कोई वस्तु। यह बात सर्वकालीन घटों के सम्बन्ध में सत्य है। किसी भी घट की उत्पत्ति, वृद्धि और विकास उस के उपादान कारण भूत मिट्टी के बिना नहीं हो सकता। जल में तरंग, लहरे, गति, भंवर और भी न जाने क्या कुछ होता है किंतु इन सब का आश्रय जल ही होता है। इसी प्रकार एक ही चैतन्यस्वरूप परमात्मा, ईश्वर और जीव के रूप में प्रतीत होता है। जिस पुरुष ने विवेक के द्वारा व्यष्टि और समष्टि के इस सूक्ष्म भेद को समझ लिया है, वही पुरुष अपने मन को बाह्य जगत् से निवृत्त करके इन दोनों के अधिष्ठान स्वरूप आत्मा में स्थिर कर सकता है।
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, ” श्री कृष्ण के रूप में परब्रह्म ही सृष्टि के सृजन, पालन और संहार के कार्य के लिए प्रत्यक्ष रूप से स्वयं को सम्मिलित नहीं करते।” भगवान श्रीकृष्ण का मुख्य कार्य अपने दिव्य धाम ‘गौलोक’ में मुक्त पुण्य आत्माओं के साथ अपनी अनन्त प्रेमामयी लीलाओं में लीन होना है। संसार की सृष्टि के प्रयोजनार्थ वे स्वयं का विस्तार कारणोदकशायी विष्णु के रूप में करते हैं जिन्हें महाविष्णु कहा जाता है फिर महाविष्णु भगवान के इस रूप में अनन्त प्राकृतिक ब्रह्माण्डों से निर्मित भौतिक जगत पर शासन करते हैं। महाविष्णु को सर्वप्रथम पुरुष अर्थात भौतिक क्षेत्र में भगवान के सर्वप्रथम विस्तार के रूप में जाना जाता है। वे कारण नामक सागर के दिव्य जल में निवास करते हैं और अपने दिव्य शरीर के रोमों से अनन्त भौतिक ब्रह्माण्डों को प्रकट करते हैं। तत्पश्चात वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड के तल पर रहने वाले गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में अपना विस्तार करते हैं और जिन्हें द्वितीय पुरुष अर्थात भौतिक जगत में भगवान का द्वितीय विस्तार कहा जाता है।
गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनके मार्गदर्शन में ब्रह्माण्ड के विभिन्न स्थूल और सूक्ष्म तत्त्वों एवं पदार्थों का निर्माण, प्राकृतिक नियमों का निर्माण, आकाश गंगाओं और ग्रह की सूक्ष्म और स्थूल प्रणालियों का निर्माण और उन में निवास करने वाले जीवों आदि को उत्पन्न करने की प्रक्रिया का सृजन किया जाता है। प्रायः ब्रह्मा के नाम का उल्लेख ब्रह्माण्ड के सृजनकर्ता के रूप में लिया जाता है। वास्तव में वे सृष्टि के दूसरे क्रम के सृजनकर्ता हैं। गर्भोदकशायी विष्णु आगे फिर क्षीरोदक्षयी विष्णु के रूप में अपना विस्तार करते हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के ऊपर क्षीरसागर नामक स्थान पर रहते हैं। क्षीरोदक्षयी विष्णु को तृतीय पुरूष अर्थात भौतिक जगत में भगवान का तीसरा विस्तार कहा गया है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के शीर्ष पर रहने के साथ-साथ वह परमात्मा के रूप में ब्रह्माण्ड के सभी जीवों के हृदय में भी वास करते हैं और उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उपयुक्त समय पर उन्हें उनके कर्मों के अनुसार फल प्रदान करते हैं इसलिए उन्हें सभी ब्रह्माण्डों का पालक और संचालक कहा जाता है।
“अनन्त ब्रह्माण्डों में से प्रत्येक ब्रह्माण्ड के शंकर, ब्रह्मा और विष्णु, महाविष्णु के श्वास भीतर लेने पर उनके शरीर के रोमों से प्रकट होते हैं और श्वास बाहर छोड़ने पर पुनः उनमें विलीन हो जाते हैं। मैं, उन श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ जिनके महाविष्णु विस्तार हैं।” शंकराचार्य कृत पंचदशी में परब्रह्म से ब्रह्म और ब्रह्म से परमात्मा की उत्पत्ति हुई। परमात्मा ही योगमाया और प्रकृति के इस जगत का संचालन करता है।
मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जडचेतन, स्थावरजङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सब की उत्पत्ति के मूल में परमपिता परमेश्वरके रूप में मैं ही हूँ। संसार में उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरे से ही होते हैं। मूल में उन को सत्तास्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरे से ही मिलता है। जैसे बिजली की शक्ति से सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसार में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ। साधककी दृष्टि प्राणिमात्र के भाव, आचरण, क्रिया आदि की तरफ न जाकर उन सब के मूल में स्थित भगवान् की तरफ ही जानी चाहिये। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदि के मूल में जो तत्त्व है, उस की तरफ ही भक्तों की दृष्टि रहनी चाहिये। इस बात को जान लें अथवा मान लें, तो भगवान् के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जानेवाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा।
ज्ञान योग में तत्वविद जिस प्रकार संसार मे हर जगह परमात्मा को देखता है वैसे ही भक्ति योग में भक्त संसार की हर क्रिया को परमात्मा की लीला समझ कर भजता है। श्रीमद भागवत पुराण में परमात्मा की लीलाओं का ही वर्णन है, भक्त भगवान की हर लीला में परमात्मा को देखता है एवम भजता है। अन्य जो परमात्मा को न देखते हुए उन की लीला पर ध्यान देते है, उस को रचते है, स्वांग रखते है, वो परमात्मा को न भजते हुए संसार को भजते है।
इस प्रकार जब उन की महत्त्वबुद्धि केवल भगवान् में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास प्रेम आदि सब भगवान् में ही हो जाते हैं। भगवान् का ही आश्रय लेने से उन में समता, निर्विकारता, निःशोकता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वतःस्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा) होते हैं, वहाँ दैवीसम्पत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है।
प्रेम या भक्ति का मापदण्ड है पुरुष की अपनी प्रिय वस्तु के साथ तादात्म्य करने की क्षमता। संक्षेपत, प्रेम की परिपूर्णता इस तादात्म्य की पूर्णता में है। जब एक भक्त स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि एक परमात्मा ही समष्टि और व्यष्टि की अन्तकरण की उपाधियों के माध्यम से मानो ईश्वर और जीव बन गया है।
परमात्मा को भजने वाले कष्ट भी परमात्मा की देन समझते है। गुरु तेगबहादुर पर औरंगजेब जब धर्म परिवर्तन कराने के लिये अत्याचार कर रहा था, तो उस ने उन्हें गर्म तवे पर बिठाया, गर्म पानी- तेल भी डाला तो गुरु के स्मरण में परमात्मा को समर्पण था कि तेरी यह क्रिया भी कितनी मीठी एवम आनंद की है। ऐसा ही उदाहरण भक्ति का मीरा एवम भक्त प्रह्लाद का भी है।
परमात्मा की विभूतियों को समझने के लिये मन-बुद्धि की अवस्था क्या हो, यह इस श्लोक से समझना होगा, जब सृष्टि की रचना परमात्मा के संकल्प से हुई, तो यह सम्पूर्ण सृष्टि उन से अलग नही है, यह पढ़ने, लिखने, देखने और करने वाला वही एक परमात्मा ही है। जब कोई कहता है कि इस संसार मे दुख क्यों है, कोई अकस्मात मृत्यु या दुर्घटना को क्यों प्राप्त होता है, तो यह उस की विभेद दृष्टिकोण है। हरि खेलत, हरि खिलावत, हरि नाचत, हरि नचावत….। परमात्मा ने स्वयं को सम्पूर्ण जगत का पिता कहा है, उन्होंने कहा है जड़-चेतन सभी मे वह ही विद्यमान है, अतः विभूति में जिसे परमात्मा इस सर्वभूत में विद्यमान का ज्ञान होगया वहाँ अन्य कोई नही होगा, यही परब्रह्म के साथ उस का योग कहलायेगा। यही अनन्य भक्ति का समर्पण होगा।
जग ये दोउ खेलत होरी ।माया ब्रह्म बिलास करत हैं, एक से एक बरजोरी ।। माया ब्रह्म बिलास करत हैं, एक से एक बरजोरी ।।
सचिदानंद सरुप अखंडित, ब्यापक है सब ठौरी । हिये नैन से परख परी जेहि, जोति समाय रहो री ।।
जोबन जोर नैन सर मारत, ठहर सकै को कोरी । मदन प्रचंड उठै चमकारी, काया करी चित चोरी ।।
निरगुन रूप अमान अखंडित, जा में गुन बिसरो री । माया सक्ति अनंद कियो है, सबहि में अगर भरो री ।।
कारन सूछम स्थूल देंह धरि, भक्ति हेत तृन तोरी । धर्मनि बिना दरस गुरू मूरत, कस भव पार भयो री ।।
संक्षेप में बीज में वृक्ष बनने की शक्ति होती है किंतु वह वृक्ष नहीं है। परंतु जैसे ही धरती में बीज बोते है तो वह उग कर वृक्ष बनता है। इसलिए वृक्ष निर्गुण आकार में बीज में ही है और सगुण आकार में प्रकट स्वरूप में। इसलिए जगत में जो कुछ विद्यमान है वह निर्गुण आकार के बीज स्वरूप परब्रह्म से उत्पन्न हो कर सगुण है। और सगुण की निर्गुण की विभूति होती है। जिसे हम देख सकते है। बीज में शक्ति है वृक्ष होने की और वही सकती माया अर्थात विभिन्न तत्व से वृक्ष बनती है। परब्रह्म निर्गुणाकार शक्ति स्वरूप है, जब वह अपने गुणों का विस्तार करता है जो जगत का निर्माण होता है और जब वह पुनः अपने स्वरूप में आता है तो प्रलय होता है। यह संपूर्ण जगत परब्रह्म के अंश का विस्तार है, जो हम देखते है वे उस की विभूतियां है।
अब आगे भक्तों का भजन किस रीति से होता है – यह पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।।10.08।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)