।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.05 II Additional II
।। अध्याय 10.05 II विशेष II
।। विभूति भाव (2) ।। विशेष – गीता 10.05 ।।
इन्द्रिय- मन एवम बुद्धि ही किसी जीव के प्राकृतिक संसाधन है जो जीवात्मा को चेतन रखता है। यदि गति, ऊर्जा या कार्य करने की करने की क्षमता को जीव माना जाता तो जीव मोटर, मशीन और विद्युत के यंत्र होते।
प्रकृति अपने तीन गुणों से जीव को संचालित करती है और परमात्मा को यदि हम पावर सप्लाई समझे तो यह कह सकते है कि विद्युत तो सभी को समान रूप से मिलती है किंतु कार्य वह अपने भाव अर्थात प्रकृति के गुण से करता है जैसे बिजली से मोटर चलती है और बल्ब जलता है।
जीव में परमात्मा ने सृजन की शक्ति दी है, यही शक्ति जीव को कर्ता भाव से भी जोड़ती है एवम मोह, ममता और कामना-आसक्ति का भी कारक है। परमात्मा की योगमाया से प्रकृति के तीनों गुणों का प्रभाव यह रहता है कि जीव अज्ञान को ही ज्ञान मान कर जीवन व्यतीत करता है।
अतः क्या हम यह मान ले कि भाव की शून्यता ही ब्रह्म है। यदि यह सत्य है जो किसी सुंदर स्त्री या धन या भोजन को देख कर मन मे जो भाव उठता है, वह मिथ्या है। यही यदि सत्य है तो हमारे खजुराहो एवम कोणार्क के मंदिरो के बाहर गढ़ी हुई मुर्तिया में हम परमात्मा के भाव को किस प्रकार प्राप्त कर पाएंगे? क्या इस से जीवन नीरस और शुष्क सा भावजन्य नही हो जाएगा? ध्यान का अर्थ चिंतन करना ही है, ध्यान किसी लट्ठ की भांति ठूठ होने का नाम नही है। ध्यान उस पर ब्रह्म का चिंतन ही है, उस के भाव स्वरूप को समझने और उस मे लीन होने का ही चितंन है।
भगवान श्री कृष्ण की बाल लीला से ले कर महाभारत के गीता के उपदेश तक उन की लीलाओं का आनंद भागवद में वर्णित है। यह आनंद भाव जनित भक्ति का ही आनन्द है। जब प्रकृति के सत-रज-तम गुण से प्रकृति का आनन्द लेने की चेष्टा करते है, तो वह आनन्द का अस्तित्व भी क्षणिक होता है, किन्तु जब वही आनन्द परमात्मा के भाव के साथ किया जाय तो स्थायी हो जाता है।
प्रकृति नीरस नही है, खिलते और सुगंध बिखेरते फूल, झर झर बहते शोर मचाते हुए झरने, कल कल बहती नदियां और स्वच्छ आकाश के सौंदर्य में किस का मन प्रफुल्लित नही होता। बच्चों की मधुर मुस्कान किस का मन नहीं मोह लेती। मन पसंद भोजन किसे पसंद नहीं। नारी की रमणीयता किसे नहीं भटकाती। यह प्रकृति का सौंदर्य जीने के लिए, साहस और भोगने के लिए और अपना कर्तव्य कर्म करने के लिए ही तो है। भाव प्रधान व्यक्ति ही जीवन का आनंद ले सकता है। दुविधा वहीं उत्पन्न होती है, जब आनंद की जगह स्वार्थ, मद, अहंकार, काम, वासना, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या आदि दुर्गुण जीव को घेर लेते है। वह भूल जाता है कि वह स्थायी या अमर नही है। उसे भी प्रकृति के नियम से नष्ट होना ही है। जो शाश्वत है, वह परब्रह्म का अंश है, जिसे कुछ लोकसंग्रह के कर्म हेतु इस धरती पर भेजा है परंतु वह कर्म फल और बंधन के दल दल में धसता जा रहा है।
भगवान श्री कृष्ण भी ग्याहरवें अध्याय 33वे श्लोक में कहते है कि हे अर्जुन तू उठ खड़ा हो, मुफ्त में प्राप्त यश को प्राप्त कर, अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, समृद्धि-सम्पन्न हो कर राज्य का भोग कर, क्योंकि जो कार्य होना है, वह मेरे द्वारा पहले से निर्धारित है, तू उस का निमित्त है। यही समर्पण है, यही समर्पण परमात्मा का भाव है। राजा जनक , राजा राम, स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने निष्काम कर्मयोग द्वारा राज करते हुए, शासन किया और सांसारिक जीवन जी कर उदाहरण प्रस्तुत किया। इसलिये त्याग का अर्थ ही परमात्मा के भाव से जुड़ कर, प्रकृति के भाव का त्याग है। जहां किसी भी भाव मे कामना, आसक्ति, लोभ, स्वार्थ, मोह, ममता या लोकसंग्रह का अभाव है, वह परमात्मा से भाव से अछूता है।
भगवान का कथन है जिस स्वभाव जन्य कर्म से बद्ध हो कर तू किसी कार्य को नही करने की इच्छा करता है, वही कार्य प्रकृति भाव मे पराधीन हो तू करने को विवश होगा। अर्थात भावजन्य कर्म प्रकृति ही निश्चित करती है, वह जो करवाना चाहती है, वही भाव प्रदान करती है। इस प्रकृति की माया से जनित भाव को परमात्मा के भाव से युक्त कर लेने से कर्तृत्व और भोक्तत्व से मुक्ति सम्भव है।
गीता कर्म प्रधान ग्रन्थ है, अतः अपने कर्तव्य कर्म में यदि कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त हो कर परमात्मा के भाव से हम यदि अपने को जोड़ ले, तो वही कार्य हमारे लिये परमात्मा की पूजा के समान हो जाएगा। जो होता है और जो होगा वह परमात्मा का ही भाव है, मैं उस का निमित्त हूँ, यह निमित्त होने के अहम को भी परमात्मा का भाव समझने के लिए ही, विभूतियों में भाव की अवस्था को सर्वप्रथम लिया गया है।
यही भाव जब हम किसी चर्चा करते समय, भजन कीर्तन के समय, भोजन करते हुए, या अपना कार्य करते हुए, परमात्मा के भाव से जोड़े तो यह समर्पण है, किन्तु ऐसा नही होता। विचार करे, गीता पढ़ते हुए, यह भाव की गीता पढ़ने और उसे आत्मसात करने की प्रेरणा में परमात्मा से प्राप्त हो, यह भाव उत्पन्न हुआ या नही।
गीता या किसी भी आत्मोन्नति का चिंतन करते हुए, यदि भाव प्रकृति का है, तो हम अहम में ज्ञान को बाटते ज्यादा है और आत्मसात कम करते है। प्रायः परमात्मा के भाव के अभाव में कोई भी सत्संग का हम स्थायी आनन्द नही ले पाते, यह तब तक ही रहता है, जब तक हम देखते या सुनते है।
कौन है, जिस ने किसी कार्य को करने, किसी को देखने या सुनने के समय अपने अंदर की आवाज को नहीं सुना हैं। विशेष तौर पर जब कोई कार्य अनुचित या धर्म के विरुद्ध हो, यह अंतरात्मा की आवाज आप के भाव को पढ़ती है, समझती है, मार्गदर्शन देती है, यही तो परमात्मा का भाव है जो सभी प्राणियों के हृदय में उत्पन्न होता रहता है। किंतु जब प्रकृति के गुण से जुड़े तो परिवर्तित हो कर शांत हो जाता है।
भाव की अवस्था गहन विषय है, विभूतियों में परमात्मा को देख पाना बिना भाव के संभव नही, गीता को समझ पाना भी भाव के अभाव में संभव नही, इसलिये परमात्मा के भाव के चिंतन को आगे बढ़ाते है। इसे आगे और विस्तृत रूप में पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 10.05 ।।
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