।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.04 II Additional II
।। अध्याय 10.04 II विशेष II
।। विभूति भाव – 1।। विशेष – 10.04 ।।
परमात्मा द्वारा अपनी विभूतियों के वर्णन से पहले अध्याय नवम के श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के साथ स्मरण एवम समपर्ण की बात कही थी। पूर्व श्लोक में कहा कि मुझे जो मनुष्य अजन्मा, अनादि और सर्वलोको का महेश्वर जान लेता है, वह सब पापो से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त होता है एवम मुझे या मेरे प्रभाव को देवता भी नही जानते क्योंकि मैं अनादि, अनन्त काल से हूँ। अतः परमात्मा को जानने, समझने और स्मरण करने का मूल प्रारम्भ भाव से प्रारम्भ होता है।
शरीर के निर्माण में पांच कोश बताए हुए है, प्रकृति के पांच तत्व के शरीर का संचालन इन्ही पांच कोश अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय से शरीर के दुख सुख का अनुभव यदि होता है तो वह कौन है? यदि बुद्धि प्रकृति संसाधनों में सुख को खोजती है तो अच्छे भोजन से तृप्ति किसे प्राप्त होती है। परमात्मा के भजन में आनंद किसे होता होगा। अतः उस तत्व को जो शरीर के भावों और क्रियाओं को महसूस करता है, वह तत्व जो इन पांचों कोश में मनोमय कोश से प्रकृति के और आनंदमय कोश से परमात्मा से जुड़ता है, उसे ही ब्रह्म का अंश कहा गया है। और इस सभी कोश का संचालन मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश करते है। जिस के कारण मन और बुद्धि में भावनाए, कामनाएं और इच्छाएं उत्पन्न होती है। यह संपूर्ण प्रक्रिया ही परमात्मा की विभूती है।
भाव शब्द का अर्थ है ‘अवस्था’, स्थिति या वृति और सांख्य शास्त्र में ‘बुद्धि के भाव’ एवम ‘शरीर के भाव’ ऐसा भेद किया गया है। सांख्य शास्त्री पुरुष को अकर्ता और बुद्धि को प्रकृति का विकार मानते है, इसलिये वे कहते है, की लिंग शरीर को पशु पक्षी आदि के भिन्न भिन्न जन्म मिलने का कारण लिंग शरीर मे रहने वाली बुद्धि की ही विभिन्न अवस्था या भाव है।
वेदान्त का सिंद्धांत है कि प्रकृति और पुरुष के परे एक नित्य तत्व है, जिसे हम परब्रह्म अर्थात परमात्मा के नाम से जानते है, उसी के मन मे सृष्टि के निर्माण की इच्छा अर्थात भाव उत्पन्न हुआ और यह सारा दृश्य जगत का निर्माण हुआ। अतः यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा के मायात्मक रूप में सभी पदार्थ है और परब्रह्म का मानस भाव है।
यह भी सिंद्धांत है कि जड़ शरीर के साथ एक लिंग शरीर भी होता है, यह लिंग शरीर ही भाव से लिप्त होता है जिस का संचालन जड़ शरीर मे इन्द्रिय- मन एवम बुद्धि से होता है। समस्त कर्मो के फल इस लिंग शरीर से जुड़े रहते है, जिस से बंध कर जीवात्मा कर्मफलों के अनुसार अगली योनि में प्रविष्ट होती है। जीवात्मा स्वयम में अकर्ता, नित्य एवम साक्षी है किंतु अज्ञान एवम भ्रम से वह इस सूक्ष्म लिंग शरीर से बंधी है। जड़ अर्थात मृत्यु से इन्द्रिय,मन एवम बुद्धि भी समाप्त होने से पूर्व जन्म से सम्बन्ध खत्म हो जाता है और शरीर अपने कर्मफलों के अनुसार नए शरीर मे प्रविष्ट ही जाता है, जिस में उसे पुनः जड़ शरीर के साथ इन्द्रिय, मन और बुद्धि मिलती है। किंतु कर्मफल रूपी संस्कारो के चलते उसे जिस कुल या योनि में जन्म मिलता है, वह शीघ्र ही पूर्व जन्म के संस्कारों को भी प्राप्त कर लेता है। इसलिये परमात्मा ने भी कहा है कि एक जन्म में मोक्ष के लिये की हुई यात्रा, शरीर की मृत्यु के बाद भी नष्ट नही होती और अगले जन्म तक चलती है।
सांख्य कहता है कि यह भाव प्रधान सूक्ष्म शरीर प्रकृति और पुरुष से परे अन्य तत्व नही है। क्योंकि जीव अर्थात पुरुष उदासीन है इसलिये कर्म ही प्रकृति के सत-रज-तम गुणों का विकार है। लिंग शरीर मे बुद्धि तत्व प्रधान है अतः बुद्धि में यह अहंकार आदि विभिन्न भाव उत्पन्न होते है और सूक्ष्म शरीर मे फूलो की सुंगंध की तरह लिपट जाते है।
भाव की प्रधानता इसलिये है यह ही हमारे संचालन का माध्यम है। हम जो पढ़ते, लिखते, समझते और सुनते आदि है, वह इन भाव के द्वारा ही अनुभव करते है। जो जिस भाव मे रहता है, वह उसी भाव के अनुसार कर्म को प्रभावित भी होता है। भाव से हमारे जीवन को गति और स्वरूप मिलता है। हमारी दैनिक दिनचर्या से ले कर हमारा व्यापार- व्यवसाय , हमारा अध्यात्म, हमारा समाज, यहां तक जिसे हम अपना धर्म और आस्था मानते है, निर्धारित होता है। ज्ञानी ही भाव को नियंत्रित करता है। अज्ञानी भाव के अनुसार कर्म करता है। अगले श्लोक में कुछ और भाव पढ़ते है। परमात्मा विभिन्न विभूतियों में हमे किस प्रकार समझ मे आते है यह हमारे भाव पर ही निर्भर है। इसलिये विभूतियों में प्रथम स्वरूप में परमात्मा हमे भाव के बारे में ही बतलाते है।
परमात्मा ने भी कहा है कि कुछ लोग मुझे व्यक्त और कुछ अव्यक्त स्वरूप में देखते है। गीता में अर्जुन के भाव और संजय एवम धृष्टराष्ट्र के भाव भिन्न भिन्न होने से उन्हें उपदेश भी भिन्न भिन्न अर्थो में समझ मे आये। यही स्थिति हमारी भी है, जिस भी भाव को ले कर हम गीता का अध्ययन करते है, गीता हमे उसी रूप में प्राप्त होती है।
सृष्टि की रचना परमात्मा के भाव का परिणाम है और प्रकृति की माया भी परमात्मा के नियम पर भाव के साथ कार्य कर रही है। यह सृष्टि प्रकृति से संचालित है किंतु जीव अपना सम्बन्ध परमात्मा से न जोड़ कर प्रकृति से जोड़ लेता है तो वह कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से कर्मबन्धन में फस जाता है। किंतु जब वह अपना सम्बन्ध परमात्मा से जोड़ता है, तो उस के भाव परमात्मा के भाव होते है, वह प्रकृति के नियत कर्म करते हुए भी अकर्ता रहता है। अर्जुन को इसी भाव के साथ अपने कर्तव्य कर्म का आदेश देने का अर्थ यही था कि प्रकृति अर्थात नियति ने तुम्हे किसी कर्म के लिये तुम्हारे गुण धर्म के अनुसार यदि चुना है तो ज्ञान योग या भक्ति योग से कर्मयोग करते हुए, अपने कर्तव्य धर्म का पालन करो।
अष्टावक्रजी राजा जनक से कहते हैं कि समदर्शी धीर व्यक्ति के लिए सुख और दुःख में , नर और नारी में, सम्पत्ति और विपत्ति में कहीं कोई भेद नहीं है । आत्मज्ञानी समान दृष्टिवाला होता है । वह हमेशा , सर्वत्र एक ही आत्मा का अनुभव करता है । वह जीवनमुक्त है ।।
जब श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और समर्पण के परमात्मा के भाव को मनुष्य जान लेता है तो उस के भाव के विकार प्रकृति के गुण सत-रज-तम से परे परमात्मा के भाव हो जाते है, तब क्रोध, क्रोध नही रहता, युद्घ, शूरवीरता, धर्म रक्षा, दान, दया, सुख-दुख, आदि सभी लोकसंग्रह के कर्म हो जाते है। उस का राग-द्वेष प्रकृति से परे परमात्मा का कार्य हो जाता है, यही चरित्र हम ने भगवान श्री कृष्ण द्वारा उदाहरण स्वरूप में जाना भी है। अतः परमात्मा की विभूतियों में भाव मे परमात्मा को ही सर्वप्रथम वर्णित किया गया है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 10.04 ।।
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