।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.02 II
।। अध्याय 10.02 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.2॥
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥
“na me viduḥ sura-gaṇāḥ,
prabhavaḿ na maharṣayaḥ..।
aham ādir hi devānāḿ,
maharṣīṇāḿ ca sarvaśaḥ”..।।
भावार्थ:
मेरे ऎश्वर्य के प्रभाव को न तो कोई देवतागण जानते हैं और न ही कोई महान ऋषिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं ही सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों को उत्पन्न करने वाला हूँ। (२)
Meaning:
Neither the gods nor the great sages know of my origin, for I am the cause of the gods and great sages in every aspect.
Explanation:
Previously, Shri Krishna declared that only Ishvara can speak about Ishvara’s glories. Now, why should that be the case? Why can’t someone else talk about Ishvara’s glories? It is because Ishvara is the cause of everything in this entire universe. He is the “aadihi” or the first principle. He is the ultimate cause.
The devatās (celestial gods) and the ṛiṣhis (sages) cannot comprehend the real nature of the origin of God, who existed before they were even born. And so, the Rig Veda states:
“Who in the world can know clearly? Who can proclaim from where this universe was born? Who can state where this creation has come from? The devatās came after creation. Therefore, who knows from where the universe arose?”
Again, the Īśhopaniṣhad states:
“God cannot be known by the celestial devatās, as he existed before them.”
As we have seen earlier, most of us have an idea that a certain deity is almighty and all-powerful. But ultimately, all those gods and deities are emissaries of Ishvara. They came into existence much later than Ishvara. Similarly, great sages and wise people have also come into existence after Ishvara. Therefore, none of these individuals has the ability to clearly fathom the real nature of Ishvara.
For instance, imagine that you want to learn the history of a large corporation. You may research internet sites, you can talk to the current employees, you can even track down the original employees, but the only person who knows the entire history will be the company’s founder. He can reveal details that only he knew at the time of founding the company. No one else can know these details.
So then, if Ishvara is the ultimate cause of the universe, then everything in the universe is an effect of that ultimate cause. An effect can never know its cause in totality. Therefore, the most qualified person to expound the glories himself is Ishvara himself, speaking through the form of Shri Krishna. Such a teaching is called “apaurusheya”. It is not authored by a human, it has come from Ishvara directly.
As we hear more about the glories of Ishvara, we will need to delve deeper into what is meant by the term “ultimate cause”. To prepare for this exploration, picture a potter creating a pot. There are two main ingredients that go into the pot. One is clay, the substance of which the pot is made. The other is the intelligence of the potter that decides the shape and the method to create it.
With this picture in mind, let us remember four things that will help us in understanding Ishvara. The pot is an effect. The pot has come from a cause. The “material cause” of the pot is clay. The intelligence, also known as the “efficient cause”, is the potter. We will recall this example later in the chapter.
So then, what is the gain of learning about Ishvara and his glories? Such inaccessible knowledge will now be given by Shree Krishna to nurture the devotion of his dear friend.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परमात्मा कहते है मै अपने प्रभाव से जगत का सृजन, पालन और संहार करने के लिये ब्रह्मा, विष्णु एवम रुद्र के रूप में, दुष्टों का विनाश, भक्तों के परित्राण, धर्म के संस्थापन और नाना प्रकार की चित्र- विचित्र लीलाओं के द्वारा जगत के प्राणियों के उद्धार के लिये श्रीराम, श्री कृष्ण, श्री मत्स्य, श्री कच्छप आदि दिव्य अवतारों के रूपो में, भक्तों को दर्शन दे कर उन्हें कृतार्थ करने के लिये उन के इच्छानुसार नाना रूपो में तथा लीला वैचित्र्य की अनन्त धारा प्रवाहित करने के लिए समस्त विश्व रूपो में प्रकट होता रहता हूँ। मेरे इस रहस्य को कि मै किस समय और कहां, किस रूप में और किस प्रयोजन हेतु किस प्रकार प्रकट होऊगा, अतीन्द्रिय विषयो को समझने वाले देवता, महर्षि, सुरगण अर्थात रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्य, प्रजापति, उनचास मरुदगण, अश्विनीकुमार और इंद्र आदि एवम सप्त ऋषिगण भी नही समझ या जान सकते है।
यह कथन इसलिये कहा गया है कि परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही सब की उत्पत्ति का कारण है। कहा जाता है जब सत असत कुछ नही था तो परमात्मा ही था। ऐसा माना जाता है परमात्मा ने संकल्प या इच्छा प्रकट की उसे एक से विविध होना है और सृष्टि की रचना हुई। अतः जो आदि है, सब का मूल है उसे तो कोई भी नही जानता, वो ही सब को जानता है।
देवता और ऋषिगण उस भगवान के उदगम की मूल प्रकृति को जान नहीं सकते जो उन के जन्म से पूर्व विद्यमान था। इसी प्रकार का समान वर्णन ऋग्वेद में किया गया है-
“को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् कुत आ जाता कुत इयं विश्रुतिः।
अर्वागदेवा अस्य विसर्जनाय, अथा को वेद यत आबभूव।।”
(ऋग्वेद-10.129.6)
“संसार में कौन है जो स्पष्ट रूप से जान सकता है? कौन यह सिद्ध कर सकता है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कहाँ से प्रारम्भ हुई? कौन यह बता सकता है कि सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ से हुई? देवताओं का जन्म सृष्टि के उपरान्त हुआ। इसलिए कौन जान सकता है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कहाँ से हुई?”
उपनिषदों में भी वर्णन किया गया है
“नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।”
(ईषोपनिषद्-4)
“भगवान को स्वर्ग के देवता नहीं जान सकते क्योंकि वे उनसे पूर्व अस्तित्व में थे।”
सप्त ऋषियों का दार्शनिक अर्थ निम्न प्रकार से है। जब अनन्तस्वरूप ब्रह्म केवल आभासिक रूप से समष्टि बुद्धि (महत् तत्त्व) के साथ तादात्म्य को प्राप्त कर अपना एक व्यक्तित्व प्रकट (अहंकार) करता है, तब वह स्वयं ही स्वयं को, स्वयं के आनन्द के लिए इस विषयात्मक जगत् में प्रपेक्षित करता है अथवा व्यक्त करता है। वास्तव में, ये भोग के विषय सूक्ष्म होते हैं, जिन्हें तन्मात्रा कहते हैं। इन सबको पुराणों में सप्त ऋषि कह कर विभिन्न नाम भी दिये गये हैं वे सप्तर्षि हैं महत् तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएं। पुराणों में इन्हें मानवीय रूप दे दिया गया है। संयुक्त रूप में ये सप्तर्षि मनुष्य के बौद्धिक और मानसिक जीवन के तथा सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण के प्रतीक हैं। देव (सुर) शब्द का वाच्यार्थ स्वर्ग के निवासी यहाँ अभिप्रेत नहीं है, यद्यपि वह अर्थ भी संभव है। देव शब्द द्यु धातु से बनता है, जिसका अर्थ है प्रकाशित करना। अत हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे देव हैं, जो हमारे असंख्य अनुभवों के लिए विषयों को प्रकाशित करते हैं। इसलिए यह कथन उचित ही है कि चिन्मय स्वरूप मैं सब देवगणों तथा महर्षिजनों का आदिकारण हूँ, अर्थात् आत्मा हमारे स्थूल और सूक्ष्म, शारीरिक और मानसिक जीवन का अधिष्ठान है। यद्यपि वे इस सत्य आत्मा में ही स्थित रहते हैं, किन्तु वे मेरे प्रभव को नहीं जान सकते। चैतन्य आत्मा हमारे हृदय में द्रष्टा के रूप में स्थित है, इसलिए वह इन्द्रियों का दृश्य विषय या मन की भावना अथवा बुद्धि के ज्ञान का विषय कदापि नहीं बन सकता।
पूर्व में भी कठो उपनिषद के “नेति नेति” सूत्र को हम ने पढ़ा था। जिस का सारांश यही है जितना हम जानते है उस से आगे परमात्मा है, इस लिये प्रकृति प्रदत मन, बुद्धि, विवेक से पूर्ण रूप परमात्मा को जानना असंभव है, जब तक आत्मा ही परमात्मा में विलय न हो जाये। जो अजन्मा है, जो सृष्टि से पूर्व में भी था और सृष्टि के बाद भी होगा, उस अव्यक्त को व्यक्त करना किसी मच्छर द्वारा समुन्दर को पार करना है। किन्तु जितना भी हम आगे बढ़ते है उतने ही उस के निकट पहुचते है क्योंकि जैसे ही हम लौकिक प्रवृतियों को त्याग कर परमात्मा की ओर बढ़ना शुरू कर देते है तो उस की आभा और तेज से प्रकाशित होने लगते है। संसार उन ही विभूतियों को सम्मान और पूजता है, जिन में परमात्मा का तेज हो। तामसी या आसुरी प्रवृतियों से प्रभावित यदि कोई परमात्मा के होने का प्रमाण मांगते है वो तो मूढ ही कहलाते है।
परमात्मा की विभूतियों के वर्णन के साथ सर्वप्रथम यही समझना चाहिये कि जिसे देवता, महृषि, विद्वान एवम सांसारिक लोग नही जान सके, और उसे जितना भी जानने की कोशिश करते है, वह उतना ही और अधिक रहस्यमय होता जाता है, उस परमतत्व को व्यक्त स्वरूप में वर्णित करने का अर्थ उस के सूक्ष्मांश को व्यक्त करना। तथाकथित अपने को भगवान घोषित करनेवाले या परमात्मा से सीधे संपर्क स्थापित करने वाले जो भी स्वघोषित महात्मा या संत है, वो स्वयं ही कितने भ्रमित होंगे, यह अंदाजा लगाना कठिन है। हमारे वेदों और उपनिषदों ने देवऋषि, महृषि, ब्रह्मऋषि एवम देवी-देवताओं से अनेक को नवाजा, किन्तु परब्रह्म से नवाजे जाने वाले कलयुग में भले ही मिल जाये, सतयुग से द्वापर तक तो कोई भी नही है। परमात्मा का यह कथन है कि वह सब मे विद्यमान है किंतु सब उस मे विद्यमान नही। वह उन सब से भी परे बहुत कुछ है, इसलिये उस के ऐष्वर्य उस के अतिरिक्त कोई नही जानता। व्यास जी ने गीता में शायद इसी कारण से अर्जुन और कृष्ण के माध्यम से संवाद जीव और परमात्मा का दिखाया है।
परमात्मा ही जब सृष्टि का आदि है तो उस को वही जान या कह सकता है, इस लिए इस अध्याय के पूर्व के श्लोक में यदि परमात्मा अपनी बात को दोहराने की बात कहते है तो यहां यह भी स्पष्ट कर देते है कि अर्जुन तुम्हे मेरे अतिरिक्त समस्त जगत में कोई भी प्राणी इतना गुढ़ ज्ञान कह भी नही सकता और कोई जानता भी नहीं है। अक्सर जब प्रवचन या लेक्चर चल रहा हो, तो अक्सर मन भटकता है और हम सोचते है यह बात हम बाद में भी किसी ज्ञानी से सुन लेंगे या कभी कभी हम दंभ में भर कर बिना पूरा ध्यान से सुने समझते है कि यह किसी पुस्तक से या किसी विद्वान से पहले भी हम जान चुके है। प्रवक्ता को चाहिए कि श्रोता को, बात कहने से पूर्व ही बात के महत्व और अद्वितीय ज्ञान के विषय में सचेत कर दे। जिस से वह एकाग्र हो कर सुने। अतः परब्रह्म को जानने की जो चेष्टा करता है, उस के विषय मे परमात्मा क्या कहते है, आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।10.02।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)