।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.S II Summary II
।। अध्याय 09.S II सारांश II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: ९ सारांश॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे राजविद्यायोगो नाम नवमोऽध्यायः॥
||ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē
śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē rājavidyārājaguhyayōgō nāma navamō’dhyāyaḥ||
भावार्थ:
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण- अर्जुन संवाद में ‘राजविद्या- योग’ नाम का नौवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Meaning:
Thus ends the ninth chapter named Rajavidya rajaguhya yōga in Srimad – Bhagavad Gītā, which is the essence of the Upaniṣads, which deals with Brahman- knowledge as well as the preparatory disciplines, and which is in the form of a dialogue between Lord Krishna and Arjun
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Explanation:
Summary of Bhagvad Gita Chapter 9:
In the previous chapter, Shri Krishna described the endless cycle of creation and dissolution of the universe, and how all beings are stuck in that cycle. In this chapter, he began to reveal an extremely profound and secret knowledge to Arjuna that would allow him to escape this endless cycle. That knowledge is devotion or bhakti towards Ishvara. It is the easiest means of obtaining liberation, easier than performing rituals or penance or renouncing the world.
What is this knowledge? Ishvara is the ultimate cause of the universe. Everything is sustained by Ishvara. Everything is in Ishvara, like the wind is in space. We are not able to see Ishvara because our senses are preconditioned to only perceive names and forms, just like we see a blue sky where there is no real blue colour.
Ishvara becomes the ultimate cause of the universe through his power known as Prakriti. Through this power, he creates the world of names and forms, sustains them and eventually dissolves them.
Prakriti is nothing but the three gunas. It is a fully automatic system that delivers results to individuals based on their actions. Most people are stuck in this system and cannot get out because they are bound by selfish actions, they are too attached. Ishvara is an observer of this system. he does not get bound by Prakriti because he is unattached.
In order to free ourselves from the entrapment in Prakriti, we have to change our conditioning and rid ourselves of all misconceptions regarding Ishvara. The first misconception: Ishvara is finite human entity. The second misconception: I am body, mind, intellect. Third misconception: worship of finite deities will give infinite and permanent results. One by one, each of these misconceptions is clarified.
The easiest way to dispel all these misconceptions is to worship Ishvara, to follow the path of bhakti. There are several ways to bring this into our daily life. We can constantly meditate upon Ishvara as the cause of everything. This is known as “jnyaana yagnya”. We can perform actions in service of Ishvara. We can begin to see Ishvara in objects, people, and situations through pointers. Shri Krishna provides several pointers. For instance, we can learn to see Ishvara in our parents, our grandparents, in the weather cycle and so on.
Next, Shri Krishna describes two kinds of devotees. The sakaama or desire- oriented devotee performs rituals so that he can attain heaven after his death, but ultimately comes back to earth after his merits are exhausted.
The nishkaama or desire-less devotee only wants Ishvara. In an oft-quoted shloka, Shri Krishna says that Ishvara always takes care of desire-less devotees by giving them what they need at the right point in their lives including food, shelter, wealth, knowledge and a teacher.
We also learn that Ishvara does not expect big offerings when we worship him. In fact, he is happy with simple things like water, leaf, fruit or flowers. We can also offer our work and action to him when we serve others. What he wants the most is the feeling of devotion when we make the offering. Ishvara is impartial like the sun and rain and will reward us based on our faith and effort.
The glory of devotion is that it is accessible to everybody, from sinners to people of great worldly attachment all the way to sages. Everyone can worship at any point in their lives. There is no qualification to begin the path of devotion.
Shri Krishna ends this chapter with an actionable message. He says, “Keep your mind in me, become my devotee, erform actions for me, surrender to me.” This is the instruction for devotion towards Ishvara.
सारांश ।।नवम अध्याय।।
राजविद्या राजगुह्य योग नामक इस नवम अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन अनसूयु अर्थात अन्तःकरण से द्वेष रहित, श्रद्धावान एवम एकनिष्ठ होने के साथ शुरू किया गया। क्योंकि यह राज विद्या उन्ही को ज्ञान सहित प्रदान की जा सकती है जो अनन्य भाव से भक्ति एवम श्रद्धा रखते हो।
प्रथम दो श्लोको में ज्ञान के महत्व को बता कर इसे राजगुह्य या राजविद्या कहा गया, फिर परमात्मा ने बतलाया कि किस प्रकार वह अकर्ता एवम उदासीन हो कर जड़ से चेतन तक सभी मे एवम सभी कार्य करता है। इस प्रकार परमात्मा की सत्ता स्फूर्ति में प्रकृति चराचर जगत को उत्पन्न करती है और जगत इहलोक से ब्रह्मलोक तक आवागमन चक्र में घूमता रहता है।
इस के पश्चात अर्थार्थी, आप्त, जिज्ञासु एवम ज्ञानी जिस भी भाव एवम कामना से जिस की देवता की पूजा करते है, वह वास्तव में उन्हें ही पूजते है, परमात्मा ही सभी स्वरूप में उन की कामनाओं को पूरी करता हूँ। क्योंकि समस्त प्रगति का मूल अक्षय बीज परमात्मा ही है।
समस्त सृष्टि यज्ञ चक्र, वेद , ज्ञान एवम क्रियाए परमात्मा ही है। इसलिये परमात्मा को किसी से कुछ नही चाहिए क्योंकि देने लेने वाला एक ही है, परमात्मा तो प्रेम का भूखा है, वह तो प्रेम के साथ पत्र, पुष्प और जल से भी संतुष्ट है।
ज्ञान द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिये संम्भव नही है। क्योंकि इन्द्रिय- मन- बुद्धि को एकत्व भाव मे योग एवम ध्यान से लाना अत्यंत कठिन है। वेद एवम शास्रो का ज्ञान प्रत्येक जीव को उस के गुणधर्म के अनुसार प्राप्त नही है। ऐसे में उस का उद्धार कैसे हो, इसलिये संसार के प्रत्येक प्राणी के नवम अध्याय गुह्यतम ज्ञान भक्तिमार्ग का कहा गया जिस का मूल आधार श्रद्धा प्रेम, विश्वास और समर्पण है। यह ज्ञान किसी भी गुणधर्म के जीव के लिये मोक्ष का मार्ग है तो ज्ञानी और उच्च योनि के जीव के लिये तो स्वर्ण के समान है।
दुखः के संयोग का वियोग ही योग है अर्थात जो संसार के संयोग वियोग से सर्वथा रहित है वो ही योग है। परमतत्व परमात्मा के मिलन का नाम ही योग है। परमात्मा सभी मे विद्यमान है, किन्तु परमात्मा में कोई भी विद्यमान नही। इसलिये परमात्मा की प्राप्ति ही योग की पराकाष्ठा है।
इस योग की प्राप्ति के बिना अखिल भूत प्राणी जिस प्रकार प्रकृति के आवगमनरूपी चक्र में अनन्त कल्पोपर्यंत भ्रमण करते रहते है, उस क्रम का वर्णन किया और बतलाया कि कल्प के क्षय हुए भी भूत प्राणी आवागमन से छूट नही सकते, किन्तु कल्प के आदि में फिर उन को वरवश प्रकृति के आधीन उत्पन्न होना पड़ता है। फिर हम ने पढ़ा कि यद्यपि प्रकृति का यह सब व्यवहार परमात्मा की सत्ता स्फूर्ति में ही होता है एवम वो ही इस का संचालन करते है तो भी यह परमात्मा को बंधन कारक नहीं है।
परमात्मा कहते है कि इस संसार का मै रचियता हूँ और यह सब कार्य मेरी ही त्रिगुणमयी प्रकृति माया द्वारा करती है। फिर परमात्मा ने कल्प एवम विसर्ग के बारे में भी बताया।
इस के बाद परमात्मा ने चतुविंध पुरुषो का वर्णन किया जिस में सर्वश्रेष्ठ तत्ववेत्ता ज्ञानी पुरुषों को बताया जो सभी भूतों, सत- असत एवम अमृत मृत्यु रूप में सब रूप में एक परमात्मा ही है, यह परमगति को प्राप्त होते है, द्वितीय अनन्य भाव से परमात्मा का स्मरण एवम भक्ति करने वाले लोग है, तृतीय में देवी देवताओं को लौकिक सुख के लिये पूजते है फिर उस लोक का सुख भोग कर मृत्यु लोक को प्राप्त होते है और अंत मे मूढ़ लोग जो विषय भोग में लगे हुए है।
अनन्या उपासना के दो मार्ग है जिन्हें ज्ञान मार्ग एवम स्वामी सेवक भाव की उपासना अर्थात भक्ति मार्ग कहते है। त्रिवेद्य लोग जिस भी भावना से, कामना से परमात्मा को पूजते है, परमात्मा उन्हें वही प्रदान करता है।
परमात्मा का कोई स्वरूप नही अतः उस को जो जिस भी भाव से पूजता है , परमात्मा उसे उसी भाव से स्वीकार भी करता है। परमात्मा को अपना सर्वेश मानने वालों का भार भी परमात्मा ही लेता है, इस लिये परमात्मा ने योगक्षेम वहाम्यहम कह कर उस के समस्त भार को स्वीकार भी किया। किन्तु परमात्मा समभाव है, क्योंकि सब तत्व में परमात्मा ही है इसलिये जो प्राणी परमात्मा के जितना निकट रहेगा उस के प्रति परमात्मा की कृपा भी उतने अधिक होगी। परमात्मा भाव का भूखा है, इसलिये श्रद्धा, विश्वास एवम प्रेम से फूल, पत्ती, फल आदि जो भी स्मरण एवम समर्पण करते हुए देता है , परमात्मा उसे स्वीकार करता है, उसे स्वर्ण या अधिक मूल्यवान वस्तुओं से रिझाया नही जा सकता।
ज्ञान योग एक जटिल एवम बुद्धिगम्य मार्ग है, अतः दुराचारी, पापयोनि, श्रुति एवम स्मार्त से वंचित स्त्री, वैश्य, शुद्र आदि के लिये सरल मार्ग भक्ति ही है। परमात्मा सम भाव है, जब वो ही हर जीव, प्राणी, अपरा एवम परा प्रकृति में है, जो समस्त जगत का संचालन अपनी प्रकृति के माया द्वारा करता है तो वो ही हर प्राणी के परमगति का मार्ग भी बताता है। इसलिये परमात्मा कहता है कि तू सब धर्म, क्रिया, कामना, अहम छोड़ कर उस अकेले की शरण मे आ जावो, वह तुम्हारे सभी पापो को क्षमा कर के मुक्त कर देगा। अनन्य भक्त एक बार परमात्मा की शरण के आने के बाद विषम से विषम परिस्थिति में भी अडिग विश्वास के साथ बिना घबराए रहता है।
शांतिपर्व के उच्छवृति उपाख्यान में भी यह प्रश्न है कि ग्रहस्थ्यधर्म, वानप्रस्थ धर्म, राजधर्म, मातृ- पितृ सेवा धर्म, क्षत्रियों का रणांगण में मरण धर्म, ब्राह्मणों का स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, व्रत उपवास, ज्ञान, यज्ञ, याग, दान ,कर्म सन्यास अनेक मुक्ति के मार्ग एवम धर्मो में ग्राह्य धर्म कौन है। इन सब मे प्राणी का अंतिम साध्य साम्य बुद्धि रखना है जो बिना मन को एकाग्र किये प्राप्त नही किया जा सकता। साम्य बुद्धि एवम मन की एकाग्रता के लिये श्रद्धा, विश्वास और निश्छल प्रेम के अतिरिक्त कोई साधन नही है, परमात्मा भाव का भूखा है, उस की शरण की अनन्य भक्ति, श्रद्धा एवम विश्वास के साथ ही प्राप्त करना एक मात्र धर्म है। जिस से एकाग्र मन से निष्काम हो कर कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त करे।
भगवान का कथन की जीव मेरा ही अंश है और मैं ही एक अंश से सारे जगत में व्याप्त हूँ। अंश कोई हिस्सा या भाग नही है, वरन आकाश और घड़े के आकाश के समान है। बुद्धि और भाव के अंतर के कारण जीव परमात्मा के व्यक्त एवम अव्यक्त स्वरूप को नही समझ पाता। ज्ञान बुद्धि से व्यक्त स्वरूप के परमात्मा पर वाह वाह करने और विभिन्न सभाये आयोजित कर के विचार मंथन करने से जो कुछ अर्जित होता है, वह सांसारिक और अनित्य है। परमात्मा के जो भी सिंद्धात बताये गए है और जो हम आगे पढ़ेंगे की परमात्मा के सारे नाम रूपात्मक व्यक्त स्वरूप केवल मायिक और अनित्य है, इन की अपेक्षा उनका व्यक्त स्वरूप श्रेष्ठ है। यह सारे सिंद्धांत बुद्धि में आ जावे, मन मे प्रतिबिबिम्त हो जाय, ह्रदय में जम जाए और नस नस में समा जावे, इतना होने पर परमेश्वर के स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जावे की एक ही परब्रह्म सब प्राणियों के व्याप्त है। यही मत्परायण हो कर परमात्मा की शरण जाने के समान है। इस के लिये व्यावसायिक बुद्धि, वासनात्मक बुद्धि एवं आचरण के शुद्ध होने की आवश्यकता है। इस श्रेणी में नवम अघ्याय में परमात्मा के स्वरूप को हम में पढ़ा कि परमात्मा सर्वव्याप्त किसी भी स्वांग, ढोंग एवम भव्यता से परे सिर्फ और सिर्फ प्रेम, श्रद्धा, विश्वास और समर्पण से किसी जीव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, उसे पत्र, पुष्प से पूजा जा सकता है। मोक्ष के लिये कोई भी उसे स्मरण कर सकता है। यही भूमिका उस के विभूति स्वरूप को समझने में सहायक होगी।
व्यवहार में जब कोई व्यक्ति यह जान ले कि उस की रक्षा करने वाला एवम उस को मार्ग दिखाने वाला कोई है, तो उस की असफलता या मृत्यु का भय खत्म हो जाता है। यह आश्वासन जब परब्रह्म स्वयं देते है कि तू श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से कर्म कर, मैं तेरा योगक्षेम वहाम्यहम करूँगा, तो जीव की कार्य क्षमता बढ़ जाती है। अतः जब भी दुविधा या संकट लगता है, हमारा परमात्मा के प्रति विश्वास ही काम आता है।
तुकाराम राम जी कहते है ” चतुराई चेतना सभी चूल्हे में जावे, बस मेरा मन एक ईश चरणाश्रय पावे। आग लगे आचार विचारों के उपचय में, उस विभु का विश्वास सदा दृढ़ रहे ह्रदय में।।”
भागवत गीता के नवम अध्याय में भक्ति रूप में दृढ़ निश्चय के गौता लगाने के बाद, अब अगले अध्याय में हम परमात्मा की विभिन्न विभूतियों का वर्णन ” विभूतियोग” नामक दसवें अध्याय में पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। अध्याय 9।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)