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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.34 II

।। अध्याय     09.34 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥

“man-manā bhava mad-bhakto,

mad-yājī māḿ namaskuru..।

mām evaiṣyasi yuktvaivam,

ātmānaḿ mat-parāyaṇaḥ”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! तू मुझ में ही मन को स्थिर कर, मेरा ही भक्त बन, मेरी ही पूजा कर और मुझे ही प्रणाम कर, इस प्रकार अपने मन को मुझ परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर कर के मेरी शरण होकर तू निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त होगा। (३४)

Meaning:

keep your mind in me, become my devotee, perform actions for me, surrender to me. In this manner, engage yourself in me. By making me your goal, you will attain only me.

Explanation:

Shri Krishna concludes the ninth chapter with a “take home message”. He gives us specific, tangible and practical instructions to bring the teachings of this chapter into our life. Having declared that this world is impermanent and devoid of joy, he wants us to follow a new way of life that orients us towards Ishvara and away from the world.

Let’s look at the most important instruction first. Shri Krishna wants us to make Ishvara as our sole goal in life. How does this work in practice? If for instance, we are ready to go to college, it should be in line with our svadharma so that we get skilled in performing our work. If we want to get married, it should be with the intention of serving our family and our parents. Any time we serve someone else, we are serving Ishvara.

Namaskuru (the act of humble obeisance) effectively neutralizes vestiges of egotism that may arise in the performance of devotion.  Thus, free from pride, with the heart immersed in devotion, one should dedicate all one’s thoughts and actions to the Supreme.  Shree Krishna assures Arjun that such complete communion with Him through bhakti- yog will definitely result in the attainment of God- realization; of this, there should be no doubt.

Now once this goal is set, everything else falls into place. Shri Krishna wants us to keep on contemplating Ishvara and perform all our actions for Ishvara. The more we do this, the more will our ego get subdued, and this is how we will convert ourselves into a true devotee. We may encounter people and situations that are unpleasant, disagreeable and not to our liking. Even in the midst of this we should bow down and surrender to Ishvara, knowing that it is our past actions that are manifesting as unpleasant but temporary situations.

So thus what are the five conditions to be a bhaktha?:

1. Develop devotion to Me.

2. Make Me as your ultimate goal.

3. Do not lose sight of Me as the goal.

4. Convert every moment of your life into a purificatory exercise; and

5. Always surrender to the Lord and do everything with Lord’s blessings.

What is the end result? If we are ever engaged with Ishvara throughout our lives, if we make Ishvara our goal and refuge, we will certainly attain him. This attainment is explained in the sixth chapter as “Yo maam pashyati sarvatra sarvam cha mayi pashyati”. We will not view the world as different from us. We will see Ishvara in all, and all in Ishavara.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अपने हृदय की बात वहीं कही जाती है, जहाँ सुनने वाले में कहने वाले के प्रति दोष दृष्टि न हो, प्रत्युत आदरभाव हो। अर्जुन दोषदृष्टि से रहित हैं, इसलिये भगवान् ने उन को अनसूयवे कहा है। इसी कारण भगवान् यहाँ अर्जुन के सामने अपने हृदय की गोपनीय बात कह रहे हैं।

तू मन्मना, मुझ में ही मनवाला हो। मद्भक्त, मेरा ही भक्त हो। मद्याजी, मेरा ही पूजन करनेवाला हो और मुझे ही नमस्कार किया कर। इस प्रकार चित्त को मुझमें लगाकर मेरे परायण शरण हुआ तू मुझ,परमेश्वर को ही प्राप्त हो जायगा। अभिप्राय यह कि मैं ही सब भूतों का आत्मा और परमगति परम स्थान हूँ, ऐसा जो मैं आत्मरूप हूँ उसी को तू प्राप्त हो जायगा। इस प्रकार पहले के माम् शब्द से आत्मानम् शब्द का सम्बन्ध है।

किसी को अपनी शरण मे आने का आव्हान तभी कर सकते है, जब जिसे आप कह रहे वह आप पर अत्यंत विश्वास रखता हो। अन्यथा लोग अन्य अर्थ में ले लेंगे। भगवान श्री कृष्ण ही परब्रह्म का व्यक्त स्वरूप है,  यह भेद उसी के समक्ष खोला जा सकता है,  जिस का उन पर पूर्ण विश्वास हो। इसलिये यह गुह्यतम ज्ञान है। यह श्लोक धृष्टराष्ट्र ने भी संजय के माध्यम से सुना किन्तु कृष्ण के प्रति उस की भावना समर्पण की नही होने से, उस के लिये यह कथन गुमराह करने वाला अति आत्मविश्वास से भरा लगा।

हम कह सकते हैं कि यह श्लोक अनेक श्लोकों की व्याख्या का कार्य करता है। वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए सम्यक् ज्ञान और ध्यान का उपदेश दिया गया है। ध्यान के स्वरूप की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि उस (सत्य) का ही चिन्तन, उसके विषय में ही कथन, परस्पर उसकी चर्चा करके मन का तत्पर या तत्स्वरूप बन जाने को ही, ज्ञानी पुरुष ब्रह्माभ्यास समझते हैं। ब्रह्माभ्यास की यह परिभाषा ध्यान में रखकर ही महर्षि व्यास इस श्लोक में दृढ़तापूर्वक अपने सुन्दर भक्तिमार्ग का चित्रण करते हैं। यही विचार इसी अध्याय में एक से अधिक अवसरों पर व्यक्त किया गया है। सब काल में किसी भी कार्य में व्यस्त रहते हुए भी मन को मुझमें स्थिर करके, मेरा भक्त मेरा पूजन करता है और मुझे नमस्कार करता है। संक्षेपत, जीवन में आध्यात्मिक सुधार के लिए मन का विकास एक मूलभूत आवश्यकता है। यदि वास्तव में हम आध्यात्मिक विकास करना चाहें तो बाह्य दशा या परिस्थिति, हमारी आदतें, हमारा भूतकालीन या वर्तमान जीवन कोई भी बाधक नहीं हो सकता है। प्रयत्नपूर्वक ईश्वर स्मरण या आत्मचिन्तन ही सफलता का रहस्य है। इस प्रकार जब तुम मुझे परम लक्ष्य समझोगे तब तुम मुझे प्राप्त होओगे, यह श्रीकृष्ण का अर्जुन को आश्वासन है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं, वह हमारे संस्कारों के कारण है। शुभ और दैवी संस्कारों के होने पर हम उन्हीं के अनुरूप बन जाते हैं।

गीता परमात्मा द्वारा दिया ज्ञान है इसलिये मेरी शरण मे आने का आवाहन परमात्मा की शरण को प्राप्त करना ही है जो जीव का मुख्य मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य है।

यह वाक्य कभी मनुष्य भी गुरु के लिये उपयोग करता है किंतु गुरु की शरण भी तभी जाना चाहिए जब गुरु अहम से मुक्त योग -तत्वविद- ब्रह्मसिद्ध हो क्योंकि गुरु ही परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग बताता है। अंध श्रद्धा या अंध विश्वास को हम पहले ही पढ़ चुके है।

गीता में पूर्व में ज्ञान-ध्यान योग से ब्रह्मसन्ध होने का मार्ग बताया गया था,  किन्तु यह मार्ग उन के लिये ही उचित था, जिन को वेद-शास्रो का ज्ञान मिला हो एवम   जिस ने योग अभ्यास एवम ध्यान के कठिन अभ्यास से इन्द्रिय-मन-बुद्धि को नियंत्रित कर लिया हो। इस मार्ग में सफलता लाखो में किसी एक को मिलती है क्योंकि इस मे जीव ब्रह्म के स्वरूप को एवम स्वयं को ब्रह्मस्वरुप के वास्तविक रूप में पहचानने का प्रयास स्वयं करता है।

अतः जो निम्न योनि में जन्म लेते है, जिन्हें वेद शास्रो का ज्ञान नही मिला हो, उन के लिये मार्ग यही है कि वह श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और समर्पण के साथ परमात्मा को स्मरण करें और परमात्मा के प्रति अपने को समर्पित कर दे। फिर जिसे वेद-शास्रो का ज्ञान मिला हो, जिस ने योग और साधना द्वारा अपने इन्द्रिय-मन और बुद्धि को नियंत्रित कर लिया हो, वह इस मार्ग से परमात्मा को समर्पित हो जाये तो उस का मोक्ष निश्चित है। अतः यह कथन भी अर्जुन इसी कारण कहा गया।

परमात्मा की भक्ति सब से सरल है, जब कोई राम का नाम भी लेता है तो एक आत्मिक चेतना का संचार होना शुरू हो जाता है। इसलिए नाम जपने से ही भक्ति शुरू हो जाए, इस से सरल कोई उपाय जन साधारण के लिए हो ही नहीं सकती। भक्त की पहचान और भक्ति की पराकाष्ठा के भक्त के लिए पांच बाते कही गई है।

1) भगवान् का भक्त बनने से, भगवान् के साथ अपनापन करने से, मैं भगवान् का हूँ इस प्रकार अहंता को बदल देने से मनुष्य में बहुत जल्दी परिवर्तन हो जाता है। इसे मदभक्त होना कहा गया है।

2) वह परिवर्तन यह होगा कि वह भगवान् में मनवाला हो जायगा, भगवान् का पूजन करनेवाला बन जायगा और भगवान् के मात्र विधान में प्रसन्न रहेगा। इस प्रकार भगवान ही उस अंतिम ध्येय हो जाता है। यह मत्परायण कहते है।

3) फिर वह पुकारने लगता है कि है नाथ मैं तुन्हें भूलूंगा नही। उस के समस्त कर्म और लक्ष्य परमात्मा के लिए हो जाते है। हम इसे मन्मना भव कहते है।

4) जब परमात्मा की संपूर्ण शरणागति प्राप्त हो जाए तो उस की कामना, आसक्ति और लोभ, मोह का विनाश होने लगता है और वह आत्मशुद्धि की और बढ़ने लगता है। इसे मद्याज भव कहेंगे

5) परमात्मा को सर्वश मानते हुए बार बार उसे नमस्कार करता है, नमस्कार करने का अर्थ है झुकना और हम झुकते उसी की ओर है जिस के प्रति हमारे मन में श्रद्धा, विश्वास और प्रेम हो। यही मार्ग अहम हो भी नष्ट करता है और आत्मविश्वास भी बढ़ाता है।

इस प्रकार इन पांचों बातों से शरणागति पूर्ण हो जाती है। परन्तु इन पांचों में मुख्यता भगवान् का भक्त बनने की ही है। कारण कि जो स्वयं भगवान् का हो जाता है, उसके न मनबुद्धि अपने रहते हैं न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है। अतः अनुसूयवे हो कर जो श्रद्धा,  प्रेम, विश्वास और समर्पण के साथ परमात्मा का स्मरण करता है, उस का दायित्व भगवान उठाते है। उसे ज्ञान ईश्वर कृपा से स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।

परमात्मा को तो वे ही जान सकते हैं, जो परमात्मा से एक हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने मैं और मेरापन सर्वथा भगवान् के समर्पित कर दिया है। मैं और मेरापन तो,दूर रहा, मैं और मेरेपन की गन्ध भी अपने में न रहे कि मैं भी कुछ हूँ, मेरा भी कोई सिद्धान्त है, मेरी भी कुछ मान्यता है आदि।जैसे, प्राणी शरीर के साथ अपनी एकता मान लेता है, तो स्वाभाविक ही शरीर का सुखदुःख अपना सुखदुःख दीखता है। फिर उस को शरीर से अलग अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता। ऐसे ही भगवान् के साथ अपनी स्वतःसिद्ध एकताका अनुभव होने पर भक्त का अपना कि़ञ्चिन्मात्र भी अलग अस्तित्व नहीं रहता।

व्यवहार में गीता के प्रथम श्लोक में अर्जुन अहम से भर कर युद्ध भूमि का निरीक्षण करता है तो स्वजनों को देख कर जब मोह ममता में भय भर जाता है तो अपने को सही सिद्ध करने के शास्त्रों के ज्ञान का सहारा लेता है। जिस से वह अपने अनुचित कृत्य को उचित बता सके। एक सफल प्रवक्ता या प्रबंधक या सलाहकार या शुभचिंतक की भांति यदि कर्म से देखे तो भगवान सब से पहले उस के ज्ञान के अहंकार को शास्त्रों की सही विवेचना से नष्ट करते है। फिर उस के मोह और भय को दूर करने के प्रकृति और जीव के कार्य को बताते है। इस श्लोक में आत्मसमर्पण कह कर उस के कंधे पर हाथ रखते है जिस से आत्मविश्वास खो चुके इंसान का विश्वास पुनः जागरण हो कि उस के साथ परमात्मा खड़ा है, उस में युद्ध के भगवान का चयन वास्तव में सही ही किया था, वह आत्मविश्वास से खड़ा हो सकता है। यही कुशलता एक कुशल रणनीतिकार या घर, समाज या व्यापार के प्रबंधक की होती है जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों में उन के निर्देश के अनुसार काम करने पर सफलता की गारंटी देते है। गीता के इस श्लोक का अत्यंत महत्व है किंतु कुछ ही लोग इसे समझ पाते है। यहां से अर्जुन मोह, ममता, भय नष्ट हो गई है और आत्मविश्वास लौट आया इसलिए आगे के अध्याय में एक जिज्ञासु की भांति वह अब अपने विश्वास को संबल करने हेतु परमात्मा हो समझने की चेष्टा करता है कि भगवान के स्वरूप में परमात्मा कैसे होगा। किसी को ज्ञान तभी दिया जाना चाहिए जब वह मानसिक अवसाद से दूर हो कर, मन और बुद्धि से समझने को तैयार हो जाए। अतः आगे के अध्याय ज्ञान पर आधारित ब्रह्म, प्रकृति और जीव के ज्ञान के है। जो मनुष्य पूर्वाग्रह से ग्रसित होते है, वे प्रायः इन अध्यायों को समझ नही पाते।

भक्ति के मार्ग में अपने कर्म के त्याग की कोई बात नही कही गई, इसे  ध्यान में रखते हुए, अगले अध्याय में भक्तियोग में भगवान की विभिन्न विभूतियों को विभूतियोग अध्याय में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।9.34।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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