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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.30 II

।। अध्याय     09.30 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

“api cet su-durācāro

bhajate,

mām ananya-bhāk..।

sādhur eva sa mantavyaḥ,

samyag vyavasito hi saḥ”..।।

भावार्थ: 

यदि कोई भी अत्यन्त दुराचारी मनुष्य अनन्य-भाव से मेरा निरन्तर स्मरण करता है, तो वह निश्चित रूप से साधु ही समझना चाहिये, क्योंकि वह सम्पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में ही स्थित है। (३०)

Meaning:

Also, even if someone of extremely poor conduct worships me with wholehearted devotion, consider him a saint, for he has resolved very well.

Explanation:

Shri Krishna begins to explain the glory of bhakti or devotion with this shloka. He says that devotion is the easiest means of obtaining access to Ishvara. It is so easy that even a criminal, a sinner in the world can be considered a saint if he worships Ishvara with wholehearted devotion.

Why is bhakti so great as a means of accessing Ishvara? Bhakti has no prerequisites. It can be practiced by anyone at any stage in their life. There is financial, ancestral or intellectual requirement. Moreover, it is not alien to most of us. Many of us who grew up in the Indian tradition are already used to performing worship, even if it is for a minute in front of the deity in our living room. All we have to do is to expand this notion of worship to include everything we do.

Here, Shri Krishna says that if there is an individual that has extremely bad conduct, if he is the worst among sinners, if he starts worshipping Ishvara with single pointed devotion, this resolve is enough to uplift him to the status of a saint. The word “ananyabhaak” is very important in this shloka. It means that this person has shifted his attention from all worldly pursuits including name, fame, money and power. His only goal is Ishvara.

So, this person may not look like a saint outwardly, but he should be considered a saint, just like one who has checked into a flight is considered to have already reached the destination, even if it will take some more time. Such a saint has begun to shift his identification or sense of “I-ness” from his body to the infinite Ishvara. But his resolve or his commitment to this path is most important. He should be “samyak vyavasitaha” which means well determined and be able to absolutely understand as to what the right thing for him is.

In the scriptures, the classical examples of this are Ajamil and Valmiki, whose stories are commonly sung in all Indian languages.  Valmiki’s impious deeds were so overbearing that he was unable even to enunciate “Ra..ma,” the two syllables in Lord Ram’s name.  His sins were preventing him from taking the divine Name.  So, his Guru thought of a way of engaging him in devotion by making him chant the reverse, “Ma Ra,” with the intention that repetition of “Mara Mara Mara Mara…” will automatically create the sound of “Rama Rama Rama…”  As a result, even such a fallen soul as Valmiki was reformed by the process of ananya bhakti (exclusive devotion) and transformed into a legendary saint.

If this resolve is so important, how does one go about it? How long does it take? We shall see this next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा ने पहले भी कहा है वो समभाव है इसलिये यदि कोई दुराचारी व्यक्ति भी अपने दुराचारों का त्याग कर के यह दृढ़ निश्चय कर के की परमात्मा पतित पावन, सब के सहृदय, सर्वशक्तिमान, परमदयालु, सर्वज्ञ, सब के स्वामी और सर्वोत्तम है एवम उन के भजन अर्थात स्मरण में लग जाता है तो वो भी साधु समान है। क्योंकि परमात्मा के स्मरण से उस की आत्मा निरंतर शुद्ध होती जाएगी और उस की परमात्मा से निकटता भी बढ़ जाएगी।

जिस चित में परमात्मा के प्रति अखंड अनुराग उत्पन्न हो जाये, जो अपने मन एवम बुद्धि की सारी क्रियाये एक निष्ठ को परमात्मा के आधीन कर दे वो कर्मातीत हो जाता है। यह कहने की आवश्यकता नही होनी चाहिये जब भक्ति मार्ग या भागवत धर्म का ब्रह्म स्वयम परमात्मा ही है, इस लिये जो भी कर्म कृष्णअर्पण बुद्धि से होगा, उस से ही जीव का कल्याण होगा।

पूर्व में ज्ञान योग में भी कहा गया था कि प्रभु को प्राप्त करने के कोई बाधा नहीं, जिस क्षण से परमात्मा को प्राप्त करने के लिये जीव निष्काम भाव से ज्ञानयुक्त होना शुरू कर देता है उसी क्षण से वो परमात्मा के निकट आना भी शुरू कर देता है। यहां भक्ति योग में इसे और अधिक सरल बताया गया है क्योंकि भक्ति योग कर्म सन्यास योग और ज्ञान योग से भी सरल है। निष्काम भाव दोनों में निहित है, कर्म भी दोनों में निहित। किन्तु ज्ञान योग में एक कठिन अभ्यास की आवश्यकता एवम व्यवस्था है और कर्मयोग में निष्काम भाव की, जब कि भक्ति योग में कोई भी, कभी भी , कहीं भी, कैसे भी अपना कर्म करते हुए परमात्मा का कीर्तन या भजन करे। उसे इतना ही भान रहे कि जो कुछ हो रहा है वो परमात्मा की करता है, वो ही प्राप्त करता है, वो ही देता है, वो ही भोक्ता है वो ही कर्ता है। जीव तो निमित मात्र है।

जिस की बुद्धि समभाव हो जाये, वो ही श्रेष्ठ है। फिर वो पहले दुराचारी ही क्यों न हो, किसी मनुष्य की योग्यता उस के अन्तःकरण की शुद्धता पर अवलंबित होती है। इसलिये बुद्ध ने निःसंकोच आम्रपाली नामक वेश्या को दीक्षा दी। इसलिये परमात्मा ने भी पूर्व में कहा कि अंत समय मे भी मुझे स्मरण करता है, मै उसे भी मुक्ति देता हूँ किन्तु अंत समय मे स्मरण हो जाये, इसलिये जीवन मे निरंतर स्मरण रहना चाहिए। यहाँ यह बात भी गौण के स्मरण से पूर्व का जीवन किस प्रकार का रहा होगा।

तुलसीदास जी ने लिखा है ” उलटा नाम जपत  जग जाना । वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।” “समूचा संसार इस तथ्य का साक्षी है कि भगवान के नाम को उलटे क्रम में उच्चारण करने वाले वाल्मीकि सिद्ध संत कहलाएँ।” आदि कवि बाल्मीकि के बारे में सभी जानते है कि वो इतना दुराचारी था कि राम नाम तक नही ले सकता था और उस ने भजन मरा मरा कर के शुरू किया और महान साधु बन कर रामायण की रचना कर दी। अंगुलिमाल और न जाने कितने दुराचारी अपने दुराचार को त्याग कर परमात्मा के भजन को लगे और साधु कहलाये। इसलिए पापियों को अनन्त काल तक नरकवास नहीं दिया जाता। भक्ति की परिणत शक्ति के संबंध में श्रीकृष्ण उद्घोषणा करते हैं कि यदि महापापी लोग भी भगवान की अनन्य भक्ति करना प्रारम्भ करते हैं तब फिर वे कभी पापी नहीं कहलाते। वे शुद्ध संकल्प धारण कर लेते हैं और इसलिए वे अपनी उदार आध्यात्मिक अभिलाषा के कारण धर्मात्मा बन जाते हैं।

मै कर्तृत्व- भोक्तृत्व से रहित नित्य- शुद्ध- बुद्ध स्वरूप हूँ इस मे जब भी किसी ने अपने आत्मस्वरूप में ययार्थ निश्चय किया और मेरे को भजना शुरू किया, वो निश्चय ही मुझे प्राप्त होगा चाहे वो कितना भी दुराचारी, किसी भी वर्ण, जाति, रूप में हो। वो साधु ही है क्योंकि उस का साधु होना अब निश्चित हो गया है।

गीता का यह श्लोक वर्तमान में जो भी स्थिति में जीव का अंतर्मन से स्वीकार किया हुआ चरित्र है, वही मान कर उस को स्वीकार करना चाहिये। किसी व्यक्ति का भूतकाल उस का व्यक्तित्व नही होता, उस को उस के वर्तमान काल के चरित्र और व्यवहार से ही पहचानना चाहिए। अनन्य भक्ति का अर्थ छल-कपट, लोभ-स्वार्थ, कामना- आसक्ति एवम अहम को त्याग कर जिस ने परमात्मा की शरण ह्रदय से ली है, वह साधु ही है। समाज मे पारिवारिक प्रतिष्ठा या नैतिकता को आधार मान कर कोई गलत काम करे तो वह दुराचारी है। किंतु जो सुधरना चाहे, कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो, परमात्मा की अनन्य भक्ति से वह साधु अर्थात सज्जन ही कहलायेगा। परमात्मा सभी के लिये समान रूप से कृपा करता है, यही इस श्लोक से प्रमाणित होता है। परमात्मा प्रेम का भूखा है, व्यक्ति कैसा भी रहा हो, जो भी करता हो, जिस समय अनन्य भक्ति भाव से भगवान को स्मरण करना शुरू कर देता है, उसी समय से उस के पूर्व के कर्मफल क्षीण होने लगते है। ज्ञान या ध्यान योग में इस प्रकार के व्यक्ति उस की कठिन साधना के कारण नही जा सकते तो यह सरल भक्ति मार्ग भी सामाजिक चेतना एवम सुधार का क्रांतिकारी उपाय व्यास  जी ने गीता के माध्यम से दिया है।

व्यवहार में स्वामी दयानंद जी के कथन को याद करे कि हर व्यक्ति अपने आप में ज्ञानी है, उस की अंतर्चेतना उस को अच्छे और बुरे कर्म के लिए कचोटती रहती है। अच्छा और बुरा क्या है, उसे सिखाना नही पड़ता, जो उसे अपने साथ व्यवहार में पसंद नही वही बुरा है, इसलिए बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार सेवक को तलाशता है। अतः जिस क्षण हम सुधारने का ठान ले, ईश्वर की भक्ति शुरू हो जाती है। इस के कोई उम्र या प्रक्रिया भी नही। समर्पण, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास चाहिए। फिर भक्ति आर्त हो, अर्थार्थी हो, जिज्ञासु हो या ज्ञानी, एकरूप हो, बहुरूप हो या निरूप हो कोई फर्क नहीं पड़ता। उस को याद करते करते जीव की भक्ति शनैः शनैः अनन्य भक्ति में परिवर्तित होती जाती है। जीव को परमात्मा का योगक्षेम प्राप्त होता है, जिस से वह ज्ञानी हो जाता है। कालीदास हो या बाल्मिकी जी, जिस ने भक्ति की, प्रभु की कृपा उस पर बरसी।

बचपन से हमे भी यही भक्ति सिखाई गई, मंदिर जाओ, धोक खाओ, साधु संतों का आदर करो, बुरे कर्मो से बचो, जो भी चाहिए, परमात्मा से मांग लो, भक्ति सकाम हो या निष्काम। अंत: वह अनन्य भक्ति के रूप में परिवर्तित हो ही जाएगी, चाहे यात्रा कितने भी जन्मों की हो।

स्वामी दयानंद जी कहते है कि कोई किसी को ज्ञान या समझा नही सकता, जब तक वह स्वयं से इस के लिए तैयार न हो। गीता जैसे ग्रंथ का अध्ययन कितने भी लोग करे, जब तक वह स्वयं से समझने को तैयार न हो, कौन पढ़ा सकता है। किंतु जिस ने इसे पढ़ने के मन बनाया, उस के रास्ते भी ईश्वर बनाना शुरू कर देता है। अतः भक्ति के कोई गुणवत्ता, उम्र, स्थान, समय की आवश्यकता नहीं। जिस ने भी इस को शुरू करने का विचार किया, उस के ईश्वर सभी रास्ते खोलता जाता है। यह टर्निंग प्वाइंट या परिवर्तन का समय ही व्यक्ति को अपने हृदय से तय करना है।

पुन:श्च – अर्जुन ने प्रश्न किया था कि कर्म योग और सन्यास योग में जो श्रेष्ठ मार्ग है, बताए। सन्यास योग या कर्मयोग के मार्ग में सन्यास योग कठिन होने से कर्मयोग का मार्ग श्रेष्ठ कहा गया। किंतु मार्ग कोई भी हो, श्रेष्ठ गुण विन्रमता, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास के बिना अपूर्ण और निरर्थक है। क्योंकि इन के अभाव में दोनों गुणों में अहंकार, क्रोध, राग – द्वेष के मुक्ति नही मिलती। इसलिए दुर्योधन और द्रोणाचार्य दोनो ही कर्मयोगी थे किंतु दोनों ही अहंकार, राग और मोह, लोभ से मुक्त नही थे। इसलिए भगवान ने मध्यम सरल मार्ग कर्मयोगी के लिए स्मरण और समर्पण का बताया जिसे से जीव श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से संशय रहित हो कर परमात्मा की शरण में जाकर अपने कर्तव्य कर्म को अहंकार, क्रोध, मोह, ममता, लोभ और राग – द्वेष के बिना योगी की भांति कर सके। यह मार्ग सेवक और स्वामी या भक्त और भगवान का भक्ति मार्ग है। जिस क्षण जीव को यह समझ आ जाए कि वह जो कर रहा है, वह गलत और प्रकृति के नियम के विरुद्ध हैं उसी क्षण जीव का प्रकाश की ओर मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसलिए जब तक अहंकार से युक्त मन और बुद्धि है तो जीव कितनी भी पुस्तके पढ़े, भजन कीर्तन करे, प्रवचन सुने, उस का कल्याण नही हो सकता। यही हम उदाहरण में धृतराष्ट्र द्वारा संजय से गीता सुनने पर प्रत्यक्ष देख भी रहे है।

परमात्मा को भजने वाले दुराचारी एवम सभी भक्तों के लिये भगवान  और क्या कहते है, यह  हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.30।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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