।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.24 II
।। अध्याय 09.24 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.24॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥
“ahaḿ hi sarva-yajñānāḿ,
bhoktā ca prabhur eva ca.I
na tu mām abhijānanti,
tattvenātaś cyavanti te”..II
भावार्थ:
मैं ही निश्चित रूप से समस्त यज्ञों का भोग करने वाला हूँ, और मैं ही स्वामी हूँ, परन्तु वह मनुष्य मेरे वास्तविक स्वरूप को तत्त्व से नहीं जानते इसलिये वह कामनाओं के कारण पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। (२४)
Meaning:
For I am the recipient and also the lord of all sacrificial rituals, but they do not know me in essence. That is why they fall.
Explanation:
Earlier, Shri Krishna asserted that most people worship finite deities with the expectation of finite rewards, but ultimately, all their prayers reach the infinite Ishvara. This type of worship in itself is ok, but the result obtained through this worship can only be finite. Shri Krishna says that the reason most devotees commit this error because they do not recognize Ishvara in essence, they do not comprehend the real nature of Ishvara.
Here it is clearly stated that there are many types of yajna performances recommended in the Vedic literatures, but actually all of them are meant for satisfying the Supreme Lord. Yajna means Vishnu. In the Third Chapter of Bhagavad-gita it is clearly stated that one should only work for satisfying Yajna, or Vishnu. The perfectional form of human civilization, known as varnasrama-dharma, is specifically meant for satisfying Vishnu. Therefore, Krishna says in this verse, “I am the enjoyer of all sacrifices because I am the supreme master.” Less intelligent persons, however, without knowing this fact, worship demigods for temporary benefit. Therefore they fall down to material existence and do not achieve the desired goal of life. If, however, anyone has any material desire to be fulfilled, he had better pray for it to the Supreme Lord (although that is not pure devotion), and he will thus achieve the desired result.
Imagine that people from a remote village visit a city. They may mistake a minister’s office for the nation’s government. They may mistake a computer for the Internet. They may mistake a power outlet for the electric grid. Just like such people will commit grave errors unless they understand the presence of the larger in the small, we also will commit errors in our worship unless we understand the real infinite nature of Ishvara.
So therefore, when we act in this world, we should always bear in mind that the recipient of any action is Ishvara. When we feed someone, care for someone, help someone in need, we should know that ultimately we are feeding, caring for and helping Ishvara. This will reduce our sense of ego or I-ness.
Furthermore, emotions such as pride, greed and jealousy are caused because we think we own something, or we covet something that others own. If we know that the ultimate owner of everything is Ishvara, it reduces our sense of attachment and “mine-ness”. Ego and attachment are great obstacles in the path of liberation, and this knowledge cuts them down.
What is the fate of such faulty worship? This is taken up next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परब्रह्म के संकल्प से सृष्टि की रचना हुई, अतः परमात्मा ने पहले भी कहा है कि चर-अचर, जीव-प्रकृति, जड़-चेतन एवम ब्रह्मांड के किसी भी स्वरूप में वही विद्यमान है। महाभारत के नारायनियोपाख्यान में चार प्रकार् के भक्तो में कर्म करने वाले एकांतिक भक्त को श्रेष्ठ बतला कर कहा है कि ब्रह्मा को, शिव को, अन्यथा अन्य देवताओं को भजने वाले साधु पुरुष भी मुझ में ही आ मिलते है। सेव, पितर, गुरु, अतिथि, ब्राह्मण और गौ प्रभृति की सेवा करने वाले पर्याय विष्णु का ही यजन करते है।
भगवान श्री कृष्ण ने पूर्व में कहा था कि यह अपरा एवम परा प्रकृति उसी का अंश है वो इन सब में है किंतु यह सब उस मे नही। इसी प्रकार प्रतीक स्वरूप देवी या देवता एक प्रकार का साधन है – वह सत्य, सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर नही हो सकता। नाम रूपात्मक या व्यक्त या सगुण वस्तु में कुछ भी ले, वह माया है, जो सत्य परमेश्वर को देखना चाहता है उसे इस सगुण रूप से भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चाहिए। भगवान कहते है मै अव्यक्त हूँ तथापि कुछ मूर्ख लोग मुझे व्यक्त मानते है, जो वाचा, नेत्र या कान से गोचर हो वह ब्रह्म नही है।
हम यज्ञ करते हैं, तो यज्ञके भोक्ता देवता बनते हैं दान देते हैं, तो दान का भोक्ता वह लेने वाला बनता है कुत्तो को रोटी और गायको घास देते हैं, तो उस रोटी और घास के भोक्ता कुत्ता और गाय बनते हैं हम भोजन करते हैं, तो भोजनके भोक्ता हम स्वयं बनते हैं, आदिआदि। तात्पर्य यह हुआ कि वे सब रूपों में मेरे को न मानकर अन्य को ही मानते हैं। इसी से उन का पतन होता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह किसी अन्य को भोक्ता और मालिक न मानकर केवल मेरे को ही भोक्ता और मालिक माने अर्थात् जो कुछ चीज दी जाय, उस को मेरी ही समझ कर मेरे को ही अर्पण करे।
परमात्मा ने त्रिविद्य द्वारा पूजा को अविधिपूर्वक कहा। इस का कारण है कि परमात्मा की तरफ चलने में दो बाधाएँ मुख्य हैं – अपने को भोगोंका भोक्ता मानना और अपने को संग्रह का मालिक मानना। क्योंकि जब मनुष्य पूजा करते वक्त यह भूल जाता है कि समस्त संसार उस नित्य परमात्मा का अंश है और वो विशिष्ट प्रतीक स्वरूप देवता या देवी की सकाम उपासना में लग जाता है तो उस के द्वारा पूजा तो परमात्मा को ही मिलती है एवम मनुष्य उस का फल उस विशिष्ट देवी देवता से ही चाहता है और उस को उस की कामना के अनुसार फल मिलता तो परमात्मा से ही है, किन्तु वो नित्य नही होता और जिसे भोग कर वो पुनः मृत्यु लोक में आता है।
मनुष्य श्रद्धा मय है, प्रतीक कुछ भी हो, परंतु जिस की जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह हो जाता है। देवताओ की भक्ति करने वाले देवलोक में, पितरों की भक्ति करने वाले पितृ लोक में , भूतों की भक्ति वाले भूतों में एवम मेरी भक्ति करने वाले मेरे पास आते है। जो मुझे जिस प्रकार से भजता है उसी प्रकार से मैं भी उसे भजता हूँ।
शालिग्राम एक पत्थर है, उसे विष्णु मान के पूजा करे तो विष्णु लोक और यक्ष, राक्षस और अन्य किसी भूत या देवता माने तो उस लोक की प्राप्ति होगी। फल हमारी भावना एवम आस्था में है, प्रतीक में नही। किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ भी यही है उस मूर्ति या प्रतीक में किसी विशिष्ट देवता की भावना की प्रतिष्ठा कर दी जाए और मनुष्य उसे उस भावना के साथ पूजे। संत तुकाराम कहते है “देव भाव का भूखा है”।
कामना के प्रभाव से , परमात्मा के परमतत्व को न जानने के कारण, मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप उत्तम फल वंचित रह कर स्वर्ग प्राप्ति रूप अस्थायी एवम अल्प फल को प्राप्त करते है एवम जन्म मृत्यु के चक्कर मे पड़े रहते है।
परमात्मा की आराधना में विभेद उस के स्वरूप या आराधना करने की विधि में नही है, विभेद जीव की स्वयं की कामना, आसक्ति एवम अहम में है। वह अपनी कामना या आसक्ति के अनुसार देवता को चुन कर पूजा या आराधना करता है, इसलिये उसे अज्ञानी कहा है। यदि स्वयं परमात्मा हमे कुछ मांगने को कहे तो हम मोक्ष की अपेक्षा धन, सत्ता या सांसारिक सुख ही मांगते है। मंदिर में नौकरी, व्यापार, शादी, धन, बीमारी से मुक्ति की प्रार्थनाएं अधिक होती है। हम अपनी कामनाओं के आधार पर देवता को चुन लेते है। जब कि परमात्मा ही उस पूजा के स्वीकार करता है और उस की कामना के आधार पर देवता के सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण भी करता है, वह जो कुछ भी अर्पण करता है, वह उसी को उस देवता के माध्यम से स्वीकार भी करता है।
विभेद का दृष्टिकोण होने से कुछ अज्ञानी संसार मे सुख-दुख, अमीरी-गरीबी, स्वस्थ-अस्वस्थ, जन्म- मृत्यु की अनेक घटनाओं पर अपनी सीमित बुद्धि से परमात्मा के निर्णय पर प्रश्न उठाते है या निर्णय की आलोचना करते है। किंतु वह भूल जाते है कि कर्ता-भोक्ता तो स्वयं परमात्मा ही है, वह ही सब जगह मौजूद है, वह ही समस्त स्वरूपों में है, यह विभेद उस के दृष्टिकोण का है, परमात्मा में कोई विभेद नही है। परम् आश्चर्य यही है कि विभेद करने वाला यह जीवात्मा प्रकृति से भ्रमित परमात्मा ही है, किन्तु वह अपने को भूल गया है।
भक्ति मार्ग में ज्ञान का काम श्रद्धा एवम विस्वास से हो जाता है, इस लिए परमात्मा सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और उस से भी परे अर्थात अचिन्त्य है, यह भाव रखो, आप की पूजा, भक्ति, तत्वदर्शन, ज्ञान एवम मोक्ष समस्त कार्य को जाएगा।
विभिन्न कामनाओं से विभिन्न देवताओं का यजन का प्रभाव आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।9.24।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)