।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.23 II
।। अध्याय 09.23 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.23॥
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥
“ye ‘py anya- devatā- bhaktā,
yajante śraddhayānvitāḥ..।
te ‘pi mām eva kaunteya,
yajanty avidhi- pūrvakam”..।।
भावार्थ:
हे कुन्तीपुत्र! जो भी मनुष्य श्रद्धा-पूर्वक भक्ति-भाव से अन्य देवी-देवताओं को पूजा करते है, वह भी निश्वित रूप से मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु उनका वह पूजा करना अज्ञानता-पूर्ण मेरी प्राप्ति की विधि से अलग त्रुटिपूर्ण होता है। (२३)
Meaning:
Even those devotees who worship other deities, filled with faith, they also worship me only, O Kaunteya, (but) incorrectly.
Explanation:
The recurring theme of this chapter is the removing misconceptions about the worship of Ishvara. Shri Krishna again invokes that theme in this shloka. He says that those devotees who worship deities other than the infinite Ishvara ultimately worship him but do so in a wrong manner.
Many of us have been brought up in a tradition in which we worship a specific deity. As children, we are taught to invoke that deity during auspicious occasions, during periods of prosperity as well as periods of difficulty. We should be grateful to our parents for inculcating these good samskaaraas or habits in us at an early age. However, Shri Krishna says that as we grow older, it is important to have the correct knowledge of what we are worshipping, because in most cases, our knowledge is limited and incorrect.
What is this incorrect knowledge? Thinking that what we are worshipping is a finite deity in a certain form is incorrect knowledge. When we see a small government office, we do not make the mistake of thinking that a small office contains the government of an entire nation. Or when we look at a wave, we never imagine that the entire ocean is just that small wave.
Similarly, even though we worship a finite deity in our home or in a temple, we should never think that we are worshipping just that finite deity. If we think in that way, our worship will be incorrect, it will have a flaw.
So then, what is the right knowledge? It is knowing that we are worshipping Ishvara in his infinite nature. Just like we contact the entire Internet when we surf the web on our phone, we contact the infinite Ishvara when we worship a finite deity. Ishvara is the foundation of everything, therefore ultimately all prayers reach Ishvara.
For example, if a government officer redresses a complaint by a citizen, he is not credited with being benevolent. He is merely utilizing the powers in his jurisdiction that have been bestowed upon him by the government. Similarly, all the powers of the celestial gods come from the Supreme Lord. Thus, those with superior understanding do not go by the indirect route; they worship the source of all powers, which is God Himself.
Why do most devotees commit this error? This is explained next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व में अपनी अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए भिन्न देवी – देवताओं की बात हम ने पढ़ी जिस को परमात्मा ने अपने द्वारा उन के माध्यम से इच्छा पूर्ति की बात कही थी। अब निष्काम भक्ति में जो ज्ञान के मार्ग में परब्रह्म को नही पूजते हुए, उस के विभिन्न सगुण और निर्गुण स्वरूप की पूजा करते है, उन की स्थिति को बतलाया गया है।
विश्व के सभी लोग एक ही पूजास्थल पर पूजा नहीं करते। न केवल शारीरिक दृष्टि से यह असम्भव है,वरन् मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि सब लोगों की अभिरुचियाँ भिन्नभिन्न होती हैं।भक्तगण जब भिन्नभिन्न देव स्थानों पर पूजा करते हैं, तब ये एक ही चेतन सत्य की आराधना करते हैं, जो इस परिवर्तनशील सृष्ट जगत् का अधिष्ठान है। जब वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं, तब भी वे उस एक सनातन सत्य का ही आह्वान करते हैं।
मन से जिस का मनन नही किया जा सकता, किन्तु मन ही जिस की मनन शक्ति में आ जाता है उसे तू ब्रह्म समझ, जिस की उपासना प्रतीक के तौर पर की जाती है, वह सत्य या ब्रह्म नही है। ” नेति नेति” सूत्र का भी यही अर्थ है। मन और आकाश को लीजिये; अथवा व्यक्त उपासना मार्ग के अनुसार शालिग्राम, शिवलिंग ईत्यादि को लीजिये; या श्री राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों की अथवा साधु पुरुषों की व्यक्त मूर्ति का चिंतन कीजिये, मंदिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव की मूर्ति को देखिए; अथवा बिना मूर्ति का मंदिर, या मस्जिद लीजिये- यह सब छोटे बच्चों की लँगड़ी गाड़ी के समान मन को स्थिर करने के लिए अर्थात चित्त की वृत्ति को परमेश्वर की ओर झुकाने के साधन है। प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार उपासना के लिये किसी प्रतीक को स्वीकार् कर लेता है; यह प्रतीक चाहे कितना ही प्यारा हो, परंतु इस बात को न भूलना चाहिये कि सत्य परमेश्वर इस प्रतीक में नही है- उस से परे है। जो ईश्वर की माया को नही जानते वो मूढ लोग इन्ही प्रतीक को परमात्मा समझ कर पूजने लग जाते है। फिर बखेड़ा भी खड़ा किया जाता है कि किस का प्रतीक ज्यादा श्रेष्ठ है। यदि भावना शुद्ध न हो तो तो प्रतीक की उपासना या उस की उत्तमता को सिद्ध करने से क्या लाभ? दिन भर लोगो को धोखा देने एवम फसाने का धंधा कर के सुबह शाम या किसी त्योहार के दिन देवालय में देव दर्शन के लिये अथवा किसी निराकार देव के मंदिर में उपासना के लिये जाने से परमेश्वर की प्राप्ति असंभव है।
गीता में परमात्मा का कहना है त्रिविद्य लोग बिना यह ध्यान किये की परमात्मा प्रत्येक वस्तु में अंशतः है जिस में रूप में उपासना करें वो ही इस को प्राप्त करता है एवम फल देता है। तो यदि वो इस अव्यक्त स्वरूप को पहचानने के लिये इन अनेक वस्तुओं में से किसी भी रूप में से किसी एक को साधन या प्रतीक समझ कर उस की उपासना करें तो कोई हानि नहीं। कोई मन की उपासना करेंगे, तो कोई द्रव्य यज्ञ या जप यज्ञ करेंगे। कोई गरुड़ भक्ति तो कोई मंत्रोच्चार कर के ॐ का जप करेंगे। कोई विष्णु, कोई शिव, कोई गणपति तो कोई भवानी का भजन करते है। कोई माता पिता की सेवा तो कोई दीन दुखियों की सेवा करता है। किंतु अज्ञान से या मोह से जब यह दृष्टि छूट जाती है कि सब विभूतियों के मूल स्थान परब्रह्म है तब धर्म मे व्यापक दृष्टि नही होती। तब अनेक प्रकार के उपास्यों के विषय मे वृथा अभिमान एवम दुराग्रह उत्पन्न हो जाता है और धर्म के नाम पर लड़ाईयां या युद्ध की नोबत आ पहुचती है। कभी कभी एक ही धर्म के लोग अपने अपने उपास्यों के लिये एक दूसरे की जान तक ले लेते है।
साधुसन्तों, पैगम्बरों और अवतारों की उपाधियों में व्यक्त होने वाला आत्मचैतन्य एक ही है। सहिष्णुता हिन्दू धर्म का प्राण है। हम पहले भी विचार कर चुके हैं कि परमार्थ सत्य को अनन्तस्वरूप में स्वीकार करने वाले अद्वैती किस प्रकार सहिष्णु होने के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकते हैं।
असहिष्णुता उस धर्म में पायी जाती है, जिसमें किसी देवदूत विशेष को ही ईश्वर के रूप में स्वीकारा जाता है। हिन्दुओं में भी प्राय भिन्नभिन्न पंथों एवं सम्प्रदायों के मतावलम्बी निर्दयता की सीमा तक कट्टर पाये जाते हैं। असभ्यता के कुछ ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें एक भक्त की यह धारणा होती है कि अन्य लोगों के देवताओं की निन्दा करना, अपने इष्ट देवता की स्तुति और भक्ति करना है परन्तु इस प्रकार के मत विकृत, घृणित और अशिष्ट हैं, जिन्हें हिन्दू धर्मशास्त्र में कोई स्वीकृति नहीं है और न ही ऋषियों द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक परम्परा में उन्हें कोई स्थान प्राप्त है। उदार हृदय, करुणासागर, प्रेमस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं। ये भक्त भी वास्तव में मुझे ही पूजते हैं, यद्यपि वह पूजन अविधिपूर्वक है।
परमात्मा का कहना है बिना उस को जाने जब यह त्रिवेद्य अर्थात धर्म ग्रंथों को पढ़ने वाले वाले ज्ञानी लोग अपने अपने देवता की पूजा करते है और यह भूल जाते है कि उन के द्वारा की गई पूजा मेरे को ही प्राप्त होती है और उस का फल भी मैं ही देता हूँ, वो उस देवता को सर्वोपरि मान लेते है। उन की यह अर्चना एवम भक्ति अविधिपूर्वक है।
देवताओंका पूजन करनेवाले भी वास्तव में मेरा ही पूजन करते हैं क्योंकि तत्त्व से मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। मेरे से अलग उन देवताओं की सत्ता ही नहीं है। वे मेरे ही स्वरूप हैं। अतः उनके द्वारा किया गया देवताओं का पूजन भी वास्तव में मेरा ही पूजन है, पर है अविधिपूर्वक। अविधिपूर्वक कहने का मतलब यह नहीं है कि पूजन सामग्री कैसी होनी चाहिये उन के मन्त्र कैसे होने चाहिये उनका पूजन कैसे होना चाहिये आदि आदि विधियों का उन को ज्ञान नहीं है। इसका मतलब है – मेरे को उन देवताओं से अलग मानना। जैसे कामना के कारण ज्ञान हरा जाने से वे देवताओं के शरण होते हैं, ऐसे ही यहाँ मेरे से देवताओं की अलग (स्वतन्त्र) सत्ता मानकर जो देवताओं का पूजन करना है, यही अविधिपूर्वक पूजन करना है।
किसी कारखाने के मालिक से संवाद करना, मैनेजर या कर्मचारी या विभागीय व्यक्ति से बात करना, या किसी डीलर के माध्यम से किसी कारखाने के कर्मचारी से बात करना, वास्तव में उस कारखाने के मालिक से ही संवाद है। उस कर्मचारी के दायित्व-अधिकार मालिक द्वारा ही दिए हुए है और वह जो कुछ भी प्राप्त करता है, मालिक को ही प्राप्त होता है। ब्रह्म का संकल्प यह सृष्टि है। जीव ने अपने ज्ञान, अनुभव, कामना, आसक्ति एवम अहम से विभिन्न विचारधाराओं और उस की पूर्ति के लिये विभिन्न देवताओं की रचना की है। यह सब उस परब्रह्म के ही स्वरूप है, उन्हें जो भी प्रदान होता है और वह जो भी देते है, वह परब्रह्म द्वारा ही होता है।
वस्तुतः यह श्लोक वेदान्त के सिंद्धान्त में द्वैत एवम अद्वैत वाद को ध्यान में रखकर पढ़ने के लिये है। परब्रह्म समस्त लोको से परे, परा एवम अपरा प्रकृति का रचयिता हो कर भी अकर्ता, नित्य, साक्षी एवम मोक्ष का अंतिम लक्ष्य है। भगवान श्री कृष्ण मानव स्वरूप में ब्रह्म का अवरित स्वरूप है। जो जीव ब्रह्म में लीन एवम मोक्ष प्राप्ति का मार्ग अपनाता है, उस को यदि छोड़ दे तो भी वह किसी भी देवताओं, धर्म या विचारधारा का पालन करता है, वह भी ब्रह्म की ही पूजा है किन्तु उस मे कामना, आसक्ति या अहम होने से कुछ न कुछ त्रुटि अवश्य रहती है। जैसे हम ने पहले भी पढा की ब्रह्म लोक को भी प्राप्त मनुष्य अपने पुण्य क्षीण होने के बाद मृत्युलोक में जन्म लेता ही है। यह श्लोक अनेकत्व वाद को सही मानते हुए भी एकत्व वाद को ही स्थापित करता है।
सनातन संस्कृति में परब्रह्म के इस ज्ञान को प्रायः सामान्य जन को नही दिया गया, इसलिए संस्कार में सनातन संस्कृति को मानने वाला अपनी अपनी कामना और ज्ञान में मोक्ष की आशा से विभिन्न देवी देवताओं अर्थात राम, कृष्ण, शिव, विष्णु या दुर्गा या लक्ष्मी या गणेश का भक्त बन जाता है। ये सगुण उपासक जिस मोक्ष की आशा से इन को अपनी आस्था और विश्वास के साथ पूजते है, उन्हे वह मोक्ष प्राप्त भी नहीं होता और अज्ञान का अंधेरा भी नही छटने से मतभेदता बनी रहती है और अहंकार से वह अपने को ज्ञानी मानते हुए, अज्ञान में ही जीवन गुजार देता है। भगवद गीता का यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हमे मोक्ष के लिए किस प्रकार से सगुण उपासना से निर्गुण, अव्यक्त और निराकार परमब्रह्म ही उपासना क्यो और कैसे करनी चाहिए।
आगे जो इस तत्व को नही जानते, उन के विषय मे भगवान क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।9.23।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)