।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.20 II
।। अध्याय 09.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.20॥
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥
“trai-vidyā māḿ soma-pāḥ pūta-pāpā,
yajñair iṣṭvā svar-gatiḿ prārthayante..।
te puṇyam āsādya surendra-lokam,
aśnanti divyān divi deva-bhogān”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य तीनों वेदों के अनुसार यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करके सभी पापों से पवित्र होकर सोम रस को पीने वालों के स्वर्ग-लोकों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, वह मनुष्य अपने पुण्यों के फल स्वरूप इन्द्र-लोक में जन्म को प्राप्त होकर स्वर्ग में दैवी-देवताओं वाले सुखों को भोगते हैं। (२०)
Meaning:
Those well-versed in the three Vedas, after worshipping me through sacrifices, and drinking nectar and purified of sin, they pray for attainment of heaven. Having obtained merits, they enjoy the divine pleasures of the gods in heaven.
Explanation:
Having described the infinite nature of Ishvara, Shri Krishna now elaborates upon the topic of devotees or bhaktas. Previously, in verse 9.12, Shree Krishna described the mentality of the non-believers and the demoniac, who embrace atheistic and ungodly views, and the repercussions that such people face. Then, He described the nature of great souls, who are engaged in loving devotion to Him. Now, in this verse and the next, He mentions those who are not devotees, but are not atheistic either. There are predominantly two types of devotees: desire-oriented (sakaama) and desireless (nishkaam). Desire- oriented devotees are described in these two shlokas. They perform the ritualistic ceremonies of the Vedas. This science of karm kāṇḍ (Vedic rituals) is referred to as trai- vidyā. Note the change to a longer meter to emphasize a change in the topic.
Who is the desire- oriented bhakta? He is a devotee who worships Ishvara for a material gain. He either wants merits (punya), wealth (artha), earthly joy (sukha), heavenly joy (svaraga) or a combination of these four. In simple words he is looking for money, name and fame.
Ritualistic ceremonies are considered good deeds, but they are not counted as devotion. The performers of ritualistic ceremonies do not get released from the cycle of life and death. They go to the higher planes of existence within the material universe, such as abode of Indra, the king of heaven.
So, for example, if someone wants to buy a car, they pray that it is the right price and that it is in stock. If someone has an exam, they pray that they pass in the exam. Vedas and rituals mentioned in this shloka refer to the efforts that we put into appeasing Ishvara. We may not perform elaborate rituals, but there always is a thought that “please God let this happen so that I can be happy”, which amounts to the same thing as the rituals mentioned here.
Now, when a child asks his parents for something insignificant, a parent feels frustrated because the parent has the capability to give much greater value but cannot do so because the child insists on that insignificant thing. Similarly, Ishvara also may feel sometimes that the things we ask of him – wealth, heavenly pleasures and so on – are insignificant. Such people do not have a strong resolve towards liberation, they do not have the “vyavasaatmikaa buddhi” mentioned in chapter 2. Their focus is diverted away from Ishvara towards material pursuits.
Assuming they somehow accumulate merits and attain heaven, what happens next?
।। हिंदी समीक्षा ।।
ऋक, यजुः एवम साम यह तीन वेद जिस में उपासना की एक ही प्रकार ही विधि है। इस को जानने वाले को त्रेविद्य कहा जाता है। वेद के कर्मकांड को जानना एवम वेदांत के सिंद्धान्तों को जानना, दोनों में अंतर है। सकामी पुरुष वेद के शिरो भाग वेदान्त को न जान कर वेद के कर्म भाग स्वर्गकामो यजेत को अधिक महत्व देते है। अतः इन वेदों के जानने वाले यह त्रेविद्य पुरुष परमात्मा की पूजा तो करता है किंतु बदले में स्वर्ग के सुख की कामना करता है, भगवान श्री कृष्ण ने पहले ही कहा था कि जो मुझे जिस भाव एवम रूप से पूजते है मैं उन्हें वही फल प्रदान करता हूँ। अतः यह ज्ञानी लोग मोक्ष को प्राप्त न करते हुए स्वर्ग को प्राप्त करते है एवम अपने पुण्य कर्मों का सुख भोगते है।
अतः परमात्मा को पूजने वाले तीन तरह ही भक्त कहे गए है, जिस में प्रथम वे भक्त है जो सांसारिक सुखों के लिए और अपने सांसारिक दुखो के निवारण के लिए परमात्मा को पूजते है। द्वितीय वे भक्त है जो मृत्यु के बाद के सुख अर्थात पुण्य लोकों स्वर्ग आदि जाने के भक्ति करते है। यह दोनो ही भक्त सकाम भक्त कहलाते है। फिर अन्य भक्त जो मोक्ष के लिए मुमुक्षु की भांति चित्तशुद्धि और ज्ञान के लिए भक्ति करते है।
सोमलता अथवा सोमवल्ली नामकी एक लता होती है। उसके विषय में शास्त्र में आता है कि जैसे शुक्लपक्ष में प्रतिदिन चन्द्रमा की एकएक कला बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा को कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन एक एक कला क्षीण होते होते अमावस्या को कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं, ऐसे ही उस सोमलता का भी शुक्लपक्ष में प्रतिदिन एक एक पत्ता निकलते निकलते पूर्णिमा तक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन एक एक पत्ता गिरते गिरते अमावस्या तक पूरे पत्ते गिर जाते हैं। उस सोमलता के रस को सोमरस कहते हैं। यज्ञ करने वाले उस सोमरस को वैदिक मन्त्रों के द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं, इसलिये उनको सोमपाः कहा गया है। वेदों में वर्णित यज्ञोंका अनुष्ठान करने वाले और वेदमन्त्रों से अभिमन्त्रित सोमरस को पीने वाले मनुष्यों के स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये उनको पूतपापाः कहा गया है। आज जो लोग सोमरस से अर्थ शराब का लेते है उनको यह जानकारी होनी चाहिये कि ऋषि मुनि जिस सोमरस का पान करते थे वो वैदिक प्रक्रिया से बनाया हुआ विशिष्ट पौधे का रस होता था।
वैदिक और पौराणिक विधि विधान से किये गये सकाम यज्ञों के द्वारा इन्द्र का पूजन करने और प्रार्थना करने के फलस्वरूप वे लोग स्वर्ग में जाकर देवताओं के दिव्य भोगोंको भोगते हैं। वे दिव्य भोग मनुष्यलोक के भोगों की अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं। वहाँ वे दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध – इन पाँचों विषयों का भोग (अनुभव) करते हैं। इन के सिवाय दिव्य नन्दनवन आदि में घूमना, सुखआराम लेना, आदरसत्कार पाना, महिमा पाना आदि भोगोंको भी भोगते हैं।
धार्मिक कर्मकाण्डों को शुभ कार्य माना जा सकता है लेकिन इनकी गणना भक्ति के रूप में नहीं की जाती। धार्मिक कर्मकाण्डों का अनुपालन करते हुए वे जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हो पाते। वे भौतिक ब्रह्माण्ड के उच्च लोकों जैसे कि स्वर्ग के राजा इन्द्र के इन्द्र लोक में जाते हैं।
आज के युग मे यह एक कटाक्ष माने तो उच्च शिक्षा प्राप्त लोग जो ऐसो आराम की जिंदगी जीने के देश विदेश में नौकरी करने वालो जैसे है। यह लोग अपना उद्यम न खड़ा कर के अपनी विद्या को दूसरों के उपयोग के लिये करते है, इस से उन्हें धन एवम ऐसो आराम की ज़िंदगी मिलती है किंतु उस का समय उन की कार्य क्षमता तक ही है। यह ज्ञान का सीमित उपयोग ही है। किंतु कुछ ज्ञानी पुरुष अपने कार्य के साथ निष्काम भाव अन्वेषण, खोज एवम सामाजिक कार्य जनहित की भावना से करते हुए अपने अर्थ का सही उपयोग करते है वो ही वेदांत को जानने वाले है, शेष सिर्फ कर्म कांड वाले लोग होते है। जिन्हें त्रेविद्य अर्थात बुद्धि जीवी तो कह सकते है किंतु अर्थ कामना एवम स्वर्ग के सुख की आशा के कारण इन के सभी कर्म बिके हुए ही है। इन मे हम उन कथा वाचक को भी शामिल कर सकते है जिन का ज्ञान अत्यंत उच्च कोटि का है किंतु उद्देश्य धन कमाना है, इन का सम्मान होना चाहिये किन्तु इन्हें संतो या भगवान जैसे पूजन करना अज्ञानता ही है।
भगवान का यह कथन कुछ नया तो नही है किंतु इस समय परमात्मा हमे सचेत कर रहे कि ज्ञानी होने से ही मोक्ष नहीं मिलता, अपितु ज्ञान का उपयोग जिस कामना के साथ करते है वो ही प्राप्त होता है। मोक्ष के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त करो वो अनित्य ही है, क्योंकि मोक्ष ही अविनाशी एवम नित्य है।
ज्ञान का वास्तविक अर्थ आत्मोन्नति है। परंतु भौतिक जगत में उन्नति का अर्थ ऐश्वर्य एवम विलास के सुखों से लिया जाता है। सत्ता, सुरा और सुंदरी यह विलासिता की पहचान है। अतः ज्ञान का उद्देश्य कर्म कर के अर्थ उपार्जन करना और उस अर्थ से ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जीना, अनन्तः अपने आप को कर्म बन्धन में बांधना ही है। वह मोक्ष या मुक्ति का मार्ग नही है। ज्ञान के उच्चतम ग्रन्थ के जानकारों के माध्यम से भगवान सचेत कर रहे है कि परमज्ञानी पुरुष भी यदि सकामी हो तो ज्ञान द्वारा सारी आराधना स्वर्ग के सुख की अभिलाषा में लगा कर, जीवन को व्यर्थ कर देता है, जब कि उसको मोक्ष की प्राप्ति के ज्ञान का प्रयोग करना चाहिये।
व्यवहार में ज्ञान प्राप्त होने के बाद सारा जीवन व्यापार और अर्थ उपार्जन में लगा दे और अपने लिये सुख सुविधाएं इकठ्ठी कर ले तो इतने ज्ञानी होने का कोई अर्थ नही, जब तक आप निष्काम भाव से लोकसंग्रह हेतु कर्म नही करते। भागवद करना, बड़े बड़े यज्ञ करना, मंदिर बनवाना आदि नाम, अर्थ और सत्ता के लिये है तो यह सकाम कृत्य मोक्ष का मार्ग नही है। वेद के रचयिता कभी नही जाने गए। गीता की रचना व्यास जी ने की, किन्तु उसी का अनुवाद करने वाले गीता के अनुवाद का कॉपी राइट करवाते है। मंदिरों में चंदा, व्यापार करते है। रोग निदान या कार्य के संपादन हेतु यज्ञ करते है, घर मे रोज दो घण्टे ध्यान और पूजा कर के, दुकान में सारी तिकड़म लगाते है, इन की आराधना, ज्ञान, कर्म सांसारिक ही है, इसे गीता में वर्णित मोक्ष का ज्ञान नही कहा जा सकता।
प्रायः समाजिक ग्रुप में भी लोग पढ़ते कम और ज्ञान अधिक बाटते है। क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त कर के आत्मसंतुष्ट होना चाहते है, उन का सकाम ज्ञान आत्म उत्थान से अधिक समाजिक उत्थान का होता है। कुछ लोग ध्यान, भजन, योग एवम धार्मिक अनुष्ठान को व्यापार का साधन बना कर प्रयोग करते है। उन की आराधना के अनुरूप उन्हें फल तो मिलता है किन्तु वह मोक्ष का मार्ग नही है।
परमात्मा द्वारा यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि सकाम हो कर भी जो जिस भी देवी देवता की पूजा करता है, वह उन्ही की पूजा करता है। वह ही उस देवी देवता से उस के सामर्थ्य के अनुसार उस को फल भी प्रदान करते है। अतः सात्विक विचार रखने, सकाम हो कर यज्ञ याग कर्म करने से कामना की पूर्ति हो जाती है किंतु इसके पुण्य समाप्त हो जाने के बाद, पुनः मृत्यु लोक में जन्म लेना पड़ता है। मोक्ष का मार्ग सकाम हो कर पूजा करने से नही मिलता।
अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य की कामना, आसक्ति के अनुसार किए हुए कर्म ही संचित हो कर प्रारब्ध बन कर मनुष्य को फल देते है। ईश्वर किसी को कुछ न तो देता है और न ही उस से कुछ लेता है। वह सभी से समान व्यवहार करता है और दुख सुख जीव अपने कर्म और उस के साथ जुड़ी उस की कामना और आसक्ति के अनुसार भोगता है।
जिन को पुण्य कर्मों के कारण स्वर्ग प्राप्त होता है उन का आगे क्या होता है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 9.20।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)