।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.18 II
।। अध्याय 09.18 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.18॥
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
“gatir bhartā prabhuḥ sākṣī,
nivāsaḥ śaraṇaḿ suhṛt..।
prabhavaḥ pralayaḥ sthānaḿ,
nidhānaḿ bījam avyayam”..।।
भावार्थ:
मै ही सभी प्राप्त होने वाला परम-लक्ष्य हूँ, मैं ही सभी का भरण-पोषण करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्वामी हूँ, मैं ही सभी के अच्छे-बुरे कर्मो को देखने वाला हूँ, मैं ही सभी का परम-धाम हूँ, मैं ही सभी की शरण-स्थली हूँ, मैं ही सभी से प्रेम करने वाला घनिष्ट-मित्र हूँ, मैं ही सृष्टि को उत्पन्न करने वाला हूँ, मैं ही सृष्टि का संहार करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्थिर आधार हूँ, मै ही सभी को आश्रय देने वाला हूँ, और मैं ही सभी का अविनाशी कारण हूँ। (१८)
Meaning:
I am the outcome, nourisher, master, witness, abode, refuge and well-wisher. I am the origin, dissolution, sustenance, repository and the imperishable seed.
Explanation:
Shri Krishna gives 12 single-word pointers or indicators of Ishvara. These are considered the foundation of many bhakti traditions. A more exhaustive list is provided in the Vishnu Sahasranaama, the thousand names of Ishvara as Lord Vishnu.
Since the soul is a tiny part of God, its every relationship is with Him. However, in bodily consciousness, we look upon the relatives of the body as our father, mother, beloved, child, and friend. We become attached to them and repeatedly bring them to our mind, thereby getting further bound in the material illusion. But none of these worldly relatives can give us the perfect love that our soul yearns for. This is for two reasons. Firstly, these relationships are temporary, and separation is unavoidable when either they or we depart from the world. Secondly, even as long as they are alive, the attachment is based on selfishness and so it fluctuates in direct proportion to the extent by which self-interest is satisfied. Thus, the range and intensity of worldly love varies from moment to moment, throughout the day. “My wife is very nice….she is not so nice…she is ok….she is terrible,” this is the extent of fluctuation of love in the drama of the world. He loves us selflessly, for He only desires our eternal welfare. Thus, God alone is our perfect relative, who is both eternal and selfless.
“Gatihi” means goal, destination or outcome. The karmaphaa, the fruit of our action, leads us to our destination or goal. The actions are the means, and the fruit of the actions is the goal. Shri Krishna says that Ishvara is the highest goal that we can aspire to. “Bhartaa” is the controller and supporter of the entire universe. It literally means someone who provides for his family. Ishvara nourishes and takes care of all beings in this universe; hence he is the provider of the universe. Since he is also the ultimate controller and master, he is known as “Prabhuhu”.
When we are kids, we aspire to become like our parents. They provide for us and also control our activities. They are our gatihi, bhartaa and prabhuhu. But if they get too attached to us, they will continue planning our life even when we become adults. That is why Ishvara remains an unattached witness, or “saakshi”.
Furthermore, Ishvara is the “nivaasaha” or container of the universe. He is “sharanam”, the ultimate refuge when there is no one else left for us to turn to. He is a well-wisher or “suhrita”, someone who does not expect anything in return. Ishvara creates, dissolves and maintains the universe therefore he is “prabhavaha”, “pralaya” and “sthaanam”. He is also “nidhaanam”, the repository where all beings become unmanifest at the end of creation.
Finally, Ishvara is the seed that has created the universe. Unlike most seeds that can only generate one plant, Ishvara continues to create the universe infinitely, without modification. Hence, he is called the imperishable seed “avyayam beejam”. It means everything from creation to operation and operation to destruction.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परमात्मा के अव्यक्त और अरूप होने पर उसे कोई कैसे जान सकता है, उसी श्रेणी में हम ने पूर्व में परमात्मा को कर्मकांड में विभिन्न यज्ञ में देखा, वेदों और पालक स्वरूप में देखा। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य संबंध ही खोजता है, इसलिए शरीर से वह किसी को पिता, माता, भाई, बहन, मित्र आदि मान कर संबंध निभाता है। इस में परमात्मा के अंश होने से उस का परमात्मा से संबंध वास्तविक है जबकि सांसारिक संबंध अस्थायी और अवास्तविक भी है और अपने अपने स्वार्थ पर निर्भर है। हम यह भी कह सकते है कि जीव का जब अपने ही भौतिक शरीर से कोई संबंध नहीं है तो उस से बने संबंध भी वास्तविक नही होते किंतु प्रकृति की कोमल भावनाएं संबंधों के आधार पर जुड़ती है, इस लिए परमात्मा से भी जीव को कैसे भाव से जुड़ना चाहिए, परमात्मा अपने संबंध कह रहे है।
समुंद्र में उठती लहरों का आपस में कोई संबंध स्थायी नही होगा। लहर का अस्तित्व भी अस्थायी है क्योंकि उस का समुंद्र में विलय हो जाना तय है। इसी प्रकार जीव के सांसारिक संबंध से उस का परमात्मा से संबंध स्थायी है ।
पूर्व श्लोक में परमात्मा ने चार सम्बंध बताए थे, अब आगे के संबंध बताते हुए कहते है।
मैं ही गति, अर्थात प्राप्त होने योग्य परमगति यानि कर्मफल देने वाला एवम सब भूतों की सब शारीरिक, मानसिक, इहलौकिक एवम पारलौकिक चेष्टाएँ जिस के आश्रय हो रही है, वो गति मैं ही हूँ। गति जीवन का प्रतीक माना गया है। समस्त ब्रह्मांड गतिशील अपनी धुरी एवम अपने तारा मंडल में धूम रहा है। जीवन चक्र भी गतिशील है। काल कभी किसी का इंतजार नही करता, न ही उसे कोई रोक सकता है, किन्तु काल का स्वामी या काल स्वयं परब्रह्म ही है, क्योंकि यही समय से परे, स्थिर एवम नित्य है। प्रकृति काल से बंधी निरंतर गतिशील है और यही प्रकृति की गति को विश्राम मुझ में लीन हो कर मिलता है।
भर्ता अर्थात इस विश्वलक्ष्मी का स्वामी, सबका पोषण करनेवाला, प्रभु यानि सबका स्वामी हूँ अर्थात देवताओ के परम् देवत, पतियों के परम पति, समस्त भुवनों के स्वामी और परम पूज्य परमदेव हूँ , मेरे कारण ही सूर्य, अग्नि, इंद्र, वायु एवम मृत्यु आदि भय स्वरूप अपनी अपनी मर्यादा में स्थित है। इन सब का आधार मैं ही हूँ।
जो अनन्य भाव से मेरी शरण मे आता है, उस के जन्म-मरण के दुखमय चक्र का अंत मैं ही करता हूँ। इसलिये शरणागतों का शरण्य भी मै ही हूँ। मैं ही अनेकत्व धारण कर के प्रकृति के भिन्न भिन्न गुणों के द्वारा जगत के प्राण रूप से कर्म मै ही करता हूँ। द्रष्टा स्वरूप में प्राणियों के कर्म और अकर्म का साक्षी, जिस में प्राणी निवास करते हैं वह वासस्थान यानि शरण अर्थात् शरण में आये हुए दुःखियोंका दुःख दूर करनेवाला, सुहृत् – प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला मित्र या अकारण प्रेमी मित्र, प्रभव अर्थात इस जगत् की उत्पत्ति का कारण और जिस में सब लीन हो जाते हैं वह प्रलय भी मैं ही हूँ। तथा जिसमें सब स्थित होते हैं वह स्थान, प्राणियों के कालान्तर में उपभोग करने योग्य कर्मों का भण्डार रूप निधान और अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ अर्थात् उत्पत्तिशील वस्तुओं की उत्पत्ति का अविनाशी कारण मैं ही हूँ। जबतक संसार है तब तक उस का बीज भी अवश्य रहता है, इसलिये बीज को अविनाशी कहा है क्योंकि बिना बीज के कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और उत्पत्ति नित्य देखी जाती है, इस से यह जाना जाता है कि बीज की परम्परा का नाश नहीं होता।
सामान्य तौर पर यदि किसी से कुछ उत्पन्न होगा तो वो चीज घट जाएगी। बीज से यदि पौधा उत्पन्न होगा तो बीज नष्ट हो जाएगा। किन्तु परमात्मा अविनाशी बीज है जिस में कुछ भी घटता या बढ़ता नहीं। सर्ग में अपरा- परा प्रकृति का उद्गम एवम विस्तार परमात्मा के संकल्प से इस बीज से उत्पन्न होता है एवम प्रलय काल मे इसी बीज में विलीन हो जाता है। यह बीज जस का तस रहता है।
परमात्मा द्वारा यहाँ यह भी स्पष्ट किया जा रहा है कि जो कुछ भी होता है, वो तात्विक दृष्टि से परमात्मा है एवम सात्विक, राजस एवम तामस समस्त पदार्थ भी परमात्मा से ही उत्पन्न होते है। किंतु वो यह सब करते हुए भी इन से भी परे है।
जीव के सामर्थ्य, कर्म, सम्बन्ध, ज्ञान, वेद से आगे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के रचयिता, स्वामी, काल को नियंत्रण के अपने स्वरूप को सशक्त रूप में परमात्मा द्वारा प्रकट करना, अर्जुन या हमे यही बता रहा है कि जीव का प्रकृति के साथ जो कर्तृत्व – भोक्तत्व भाव से उत्पन्न अहम है, वह अत्यंत तुच्छ एवम नगण्य है। जीव प्रकृति, काल, गति, जन्म-मृत्यु एवम कार्य-कारण के कर्म फलों से बंधा प्राणी है।
जीवात्मा परमात्मा का स्वरूप तो है किंतु परमात्मा नही है। परमात्मा अनन्त है, अतः जीव का अहम परमात्मा के पासंग भी नही। अज्ञानी लोग अवरित स्वरूप परमात्मा को सदाहरण जीव समझ कर उस से अपनी तुलना या अपने विचार उस के प्रति अहम भाव से रखते है कि मैं भगवान को ऐसा मानता हूँ या भगवान को यह करना चाहिये या नही करना चाहिए।
पूर्व श्लोक में चार सम्बन्धो के बाद आगे के सम्बन्ध पांचवा गति, छठा भर्ता अर्थात पति के स्वरूप में परब्रह्म और जीवात्मा पत्नी अर्थात पति की अनुगामिनी, सातवां स्वामी-सेवक, आठवां साक्षी -साक्ष्य (ब्रह्म साक्षी और जीव साक्ष्य), नवां आधार और आधेय अर्थात परमात्मा इस संसार का आधार है और संसार आधेय अर्थात परमात्मा की अनुकंपा से है, दसवां परमात्मा शरण रक्षक और जीव शरण्य, जीव की गति बिना प्रभु की शरण गए पूर्ण नही होती, ग्यारहवां मित्र और सखा है। इस के अतिरिक्त ग्याहरवें अध्याय में दो सम्बन्ध गुरु-शिष्य और अंश-अंशी के बताए गए है। इस प्रकार कुल तेरह सम्बन्ध जीव के परमात्मा से होते है।
अध्याय नौ में विभिन्न स्वरूप से हम सांसारिक प्रेम को परासांसारिक भाव में भक्ति को पढ़ रहे है। भक्ति में निर्वृति अर्थात सांसारिक बंधन को त्याग कर परमात्मा से संबंध कैसे बनाए जाए, यही हम जान रहे है। भक्ति को कर्म प्रधान करते हुए, सब कुछ परमात्मा को समर्पित करे या उपासना विधि से भजन, कीर्तन, व्रत उपवास आदि करते हुए करे अथवा ज्ञान प्रधान अर्थात परमात्मा को जानने के लिए वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करते हुए करे। इस में ज्ञान युक्त भक्ति मोक्ष का मार्ग है अन्य निवृति का।
परमात्मा के स्वरूप के वर्णन के बाद परमात्मा आगे अपने बारे में क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।9.18।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)