Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.12 II

।। अध्याय     09.12 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥

“moghāśā mogha- karmāṇo,

mogha- jñānā vicetasaḥ..।

rākṣasīm āsurīḿ caiva,

prakṛtiḿ mohinīḿ śritāḥ”..।।

भावार्थ: 

ऎसे मनुष्य कभी न पूर्ण होने वाली आशा में, कभी न पूर्ण होने वाले कर्मो में और कभी न प्राप्त होने वाले ज्ञान में विशेष रूप से मोहग्रस्त हुए मेरी मोहने वाली भौतिक प्रकृति की ओर आकृष्ट होकर निश्चित रूप से राक्षसी वृत्ति और आसुरी स्वभाव धारण किए रहते हैं। (१२)

Meaning:

With useless desires, useless actions and useless knowledge, the unintelligent take refuge in delusory, devilish and evil nature.

Explanation:

After following this chapter so far, we may wonder why has Shri Krishna spent so much time in addressing our erroneous notion of Ishvara? He has done so because erroneous knowledge is the start of a chain of consequences that can either uplift or ruin our life, not just from a spiritual but also material perspective. He illustrates that chain in this shloka.

Krishna said that there are some people who are very clear who have diagnosed the problem, and they are taking to the right course, but there are many other people who are still groping in darkness. They do not know what exactly they want. They think that this is the goal for some time; and acquire it; and they find that they do not get what they wanted. And then the replaced the goal with another one; again, acquired and no satisfaction; so these people are confused people, Krishna talked about the confused people; unlucky and unfortunate ones.

These confused people Krishna says they have wrong knowledge, wrong desire, wrong effort and therefore wrong result. Those people who do not have viveka ṣakti; whose satva guṇa is overpowered; they are called vicētasaḥ; avivekinaḥ. And the problem is we are all avivekis, indiscriminate people; knowing this alone, the scriptures have come to assist us; but because of our intellectual arrogance; neither we will know by ourselves; nor we will expose ourselves to the teaching of the scriptures.

They all have wrong understanding and expectations; and what are the wrong expectations; everything impermanent is mistaken as permanent; they think power is permanent; position is permanent; people around will be permanent; above all, money think permanent.

Therefore, Krishna says their actions will be kāma pradhāna actions; or krōdhaḥ pradhāna actions; either their actions are born out of attachment; or their actions are born out of hatred; so rākṣasīm and āsurīṁ; the difference is: one is rāgaḥ, pradhāna; another is dveṣaḥ pradhāna.

Consider a child born into a family that gives utmost important to the acquisition of money but does not emphasize the ethical means of doing so. Such an erroneous knowledge starts a chain of consequences. The child always desires money, and all his actions are directed towards the pursuit of money.

Shri Krishna calls these useless desires and useless actions. All of these eventually lead to increasingly worse character traits in the child. He can undertake delusory actions (gambling), evil actions (stealing) or worse yet, devilish actions (murder), all because of the wrong notion that acquisition of money is paramount.

Broadly, if we start with the erroneous notion that our body and mind is everything and that Ishvara is a distant finite entity, all our desires and actions will be directed towards ensuring that our body can live comfortably. We will continue to make external adjustments such as moving to a new city or changing jobs in search of comfort and security, to continually appease our body and mind, and to gain freedom from sorrow. Since we have not acquired the knowledge of our true nature and Ishvara’s true natures, we will never understand that Ishvara is our ultimate source of security and the ultimate freedom from sorrow.

So we have seen that erroneous knowledge about Ishvara can lead to ultimate ruin. Who then, are those people that, having had the correct knowledge, develop the right type of relationhip with Ishvara? This is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रस्तुत श्लोक में भगवान कृष्ण का संकेत उन लोगो की तरफ है जिन की आशाएं, कर्म एवम ज्ञान इहलोक में ही सुखों की प्राप्ति पर है। उन के सत्य वही है जो इन्द्रिय गोचर है। ध्यान दे, तो हम अपने आप से लेकर चारो ओर ऐसे लोग बहुत पाएंगे जो सुबह उठते ही भगवान को याद करते है, दिन की शुरुवात चाय से, फिर घूमने, योग और शारीरिक व्यायाम करने के बाद, स्नान कर के भगवान के मंदिर या घर मे दिया। फिर दिन भर व्यापार- व्यवसाय जिस में सुबह का ज्ञान स्वरूप बदल कर पूर्णतयः लोभ एवम स्वार्थ में धन के लिए कार्य करना है। शाम को पार्टी। कबूतर को कितना भी उड़ाओ, घूम कर अपने चौबारे में आ बैठ जाता है। वह जानते हुए नही समझना चाहता है कि यह इन्द्रिय गोचर संसार माया है, उस का लक्ष्य मोक्ष है। वह इस असत को ही सत मान कर प्रवचन भी करता है, अपने ही मकड़ जाल में फसा “घट्ट कुट्टी प्रभात न्याय” अर्थात रोज सुबह वही का वही रहता है। यदि कुछ बदल रहा है, तो आयु, शरीर, संसार और निरन्तर जुड़ते-घटते कर्म। यही आसुरी प्रवृति की ओर ले जाने का मार्ग है, जहां विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के अतिरिक्त कुछ भी नही। ऐसे मूढ़ जीव की सब आशाएं, कर्म और ज्ञान व्यर्थ होता है। योग का अर्थ चिंतन है, परमात्मा का चिंतन करना और उस से जुड़ना, किन्तु हम लोग सीखते है योग का अर्थ शारीरिक व्यायाम करना, अर्थ संचय करना, आश्रम चलाना और माया जनित मिथ्या ज्ञान का प्रचार एवम प्रसार करना। हम सोचते है कि योग का अर्थ है सब कुछ भूल कर शून्य हो  जाना अर्थात खो जाना। किन्तु जब तक परमात्मा का चिंतन न हो तो किस में खो सकते है। परब्रह्म में विलीन होने के परब्रह्म का एकाग्र चिंतन ही योग है, बिना चिंतन के योग करने से अहम, कामना और आसक्ति योग के समय सुप्त और  योग से उठते ही जाग्रत हो जाती है। हम वही के वही।

परमात्मा को सदाहरण मनुष्य समझ कर व्यवहार करने वाले लोगो मूढ कहा गया है क्योंकि वे मोघाशा – जिन की आशाएँ, कामनाएँ व्यर्थ हों ऐसे व्यर्थ कामना करनेवाले और मोघकर्मा – व्यर्थ कर्म करने वाले होते हैं क्योंकि उनके द्वारा जो कुछ अग्निहोत्रादि कर्म किये जाते हैं वे सब अपने अन्तरात्मारूप भगवान् का अनादर करने के कारण निष्फल हो जाते हैं। इसलिये वे मोघकर्मा होते हैं। इसके अतिरिक्त वे मोघज्ञानी – निष्फल ज्ञानवाले होते हैं, अर्थात् उनका ज्ञान भी निष्फल ही होता है। इन का ज्ञान तात्विक अर्थ से शून्य एवम युक्ति युक्त नही होता। वे विचेता अर्थात् विवेकहीन भी होते हैं। तथा वे मोह उत्पन्न करनेवाली देहात्मवादिनी राक्षसी और आसुरी प्रकृति का यानी राक्षसों के और असुरों के स्वभाव का आश्रय करनेवाले हो जाते हैं। अभिप्राय यह कि तोड़ो, फोड़ो, पिओ, खाओ, दूसरों का धन लूट लो इत्यादि वचन बोलनेवाले और बड़े क्रूरकर्मा हो जाते हैं। श्रुति भी कहती है कि वे असुरों के रहने योग्य लोक प्रकाशहीन हैं इत्यादि। इन का चित्त भी विक्षिप्त माना जाता है। यह लोग दूसरों का अनिष्ट करने, उन्हें कष्ट देने, क्लेश करने आदि में सुख का अनुभव करते है।

इन सांसारिक प्रवृति के लोगो का सुख मात्र इंद्रियाओ जनित सुख पर टीका रहता है। इन का व्यवहार भी पशुवत एवम ज्ञान एवम तर्क भी सांसारिक सुखों तक सीमित रहते है जिस के कारण धोखा, हत्या, लड़ाई झगड़ा, खून खराबा, मार काट आदि ही इन का धर्म होता है। यह परमात्मा की सत्ता को नही मानते, पुराने युग मे रावण, कंस एवम आज के युग मे हिटलर या जेहादी इसी श्रेणी में आते है, इन को मनुष्य की श्रेणी में न रख कर राक्षस, असुर, डाकू, लुटेरा आदि ही बोला गया है।

गीता में भर्त्सना के रूप भगवान का यह कथन का अभिप्राय समझना भी आवश्यक है। मनुष्य का जन्म मोक्ष के लिये है यदि वो सांसारिक प्रवृति एवम कामना में जीता है तो यह उस जीव के संस्कार होंगे और यही संस्कार वो इस संसार मे आने वाली पीढ़ी को देगा। यदि तामसी प्रवृति का वर्चस्व बढ़ने लगता है तो ईश्वर इस सृष्टि के संतुलन के लिये संत, महात्मा महापुरुषों के रूप में जन्म ले कर इस को संतुलित करता है। एक ज्ञानी एवम निष्काम कर्मयोगी के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी पीढ़ी को सही दिशा दे और स्वयं भी सही को समझे। दुर्योधन दृष्टराष्ट्र एवम शकुनि की महत्वाकांक्षा की उपज था और रावण उस के नाना की। इसलिये अगले श्लोक में सही को तो हम पढेंगे किन्तु गलत क्या है इस को भी जाने, इसलिये भगवान श्री कृष्ण इन दो श्लोकों से हमे सचेत कर रहे है

जो शास्त्र विहित कर्म अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करने की इच्छा से सकामभाव पूर्वक किये जाते हैं, वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्फल देनेवाले नहीं होते। भगवान् से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें, पर अन्त में वे सभी व्यर्थ हो जायँगे। कारण कि मनुष्य अगर सकामभाव से शास्त्रविहित यज्ञ, दान आदि कर्म भी करेंगे, तो भी उन कर्मों का आदि और अन्त होगा और उन के फल का भी आदि और अन्त होगा। वे उन कर्मों के फल स्वरूप ऊँचे ऊँचे लोकों में भी चले जायँगे, तो भी वहाँ से उन को फिर जन्ममरणमें आना ही पड़ेगा। 

स्वर्ग चाहते हैं तो उन की ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान् और परिवर्तनशील वस्तुकी कामना पूरी होगी ही – यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाय, तो वह टिकेगी नहीं अर्थात् फल देकर नष्ट हो जायगी। भगवान् ने भी कहा है कि जिन की मेरे में श्रद्धा नहीं है अर्थात् जो मेरे से विमुख हैं, उन के द्वारा किये गये यज्ञ, दान, तप आदि सभी कर्म असत् होते हैं अर्थात् मेरी प्राप्ति कराने वाले नहीं होते। उन कर्मों का इस जन्म में और मरने के बाद भी (परलोकमें) स्थायी फल नहीं मिलता अर्थात् जो कुछ फल मिलता है विनाशी ही मिलता है। इसलिये उनके वे सब कर्म व्यर्थ ही हैं।

आस्था, श्रद्धा, विश्वास और प्रेंम के साथ बुद्धि और विवेक से ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन ग्राह्य एवम सत्य होता है किंतु इन चारो गुण से बाहर यही ज्ञान अहम, कामना, आसक्ति, लोभ एवम प्राकृतिक सात्विक- राजसी एवम तामसी प्रवृति का मार्ग खोल देता है। जिस में तामसी एवम आसुरी प्रवृतियां ही प्रमुख होती है। क्या कारण है, अगिनत धर्म गुरु, जगह जगह पाठ-कीर्तन, प्रवचन एवम दान धर्म के रहते भी आसुरी एवम तामसी प्रवृतियां खत्म नही होती ?

जानने योग्य यही है कि शाब्दिक ज्ञान, वेद और शास्त्रो के मंत्र और उस की विवेचना आदि में इन में कोई कम नही होता । रावण प्रकांड ज्ञानी था, उस ने स्वयं स्तुतियों, भाष्य की रचना करी, किन्तु राम को वह मनुष्य ही मानने की भूल अपने अहम के कारण करता था। आज भी कई पढ़े-लिखे लोग दुष्ट एवम स्वार्थी प्रवृति के लोगो के साथ अपनी सांसारिक महत्वाकांक्षा के कारण खड़े है। महाभारत में कौरव सेना भी इसी का उदाहरण है।

व्यवहार में भौतिक जीवन जीने के लिए ज्ञान, इच्छा और कर्म से व्यक्ति जीवन जीता है। ज्ञान सांसारिक पुस्तकों से जो स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया जाता है, वह जीविका उपार्जन का ज्ञान है। किंतु अपने आप को जानना, मोक्ष के प्रयत्न करना और बुरे कर्मो से बचने के शास्त्रों का ज्ञान श्रवण, मनन और निदिध्यासन से प्राप्त होता है। सांसारिक ज्ञान से उत्पन्न इच्छा से जो प्राप्त होता है वह स्थायी नही है और इसी कारण राग और द्वेष, काम और क्रोध मनुष्य को घेर लेते है और हम अपनी विवेक शक्ति भी खोने लगते है। यही कारण है कि यदि हम आध्यात्मिक पुस्तको को पढ़ते रहे और अच्छे लोगो का सत्संग करे तो ही हमारी विवेकशक्ति सही रहेगी।

विवेक शक्ति के अभाव में प्राकृतिक और भौतिक जीवन अनिवार्य लगता है और इसी से  अहंकार जन्म लेता है और जीव अपने को उच्च और ज्ञानी समझता है और किसी भी आध्यात्मिक ज्ञान को व्यर्थ समझ कर या तो करता नही है या फिर अपने सुखों की आपूर्ति के लिए करता है। यही मूढ अवस्था है। इसी के कारण संसार में हिंसा, बलात्कार, लूट कसोट, धार्मिक अंधविश्वास आदि जन्म लेते है। अतः सही ज्ञान और संस्कार बचपन से ही नही दिए जाए तो समाज की दिशा भोगी और रोगी की होगी। क्योंकि बड़े होने के बाद ऐसे लोगो को समझाना भी कठिन है। इन का जीवन का अर्थ यही है कि जन्म ले कर पढ़ाई करो, शादी करो, बच्चे पैदा करो और उन्हें पालो और काम करते करते बूढ़े हो कर गुजर जाओ। इन का ज्ञान चाहे कितना भी आध्यात्मिक हो, वह सांसारिक ही होता है, इसलिए पूरा जीवन प्रकृति के सुख और दुख में व्यतीत हो जाता है। मनुष्य योनि में जन्म लेने का इस के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं होता।

आगे हम भगवान को मानने वालों के बारे में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।9.12।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

Leave a Reply