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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.11 II

।। अध्याय     09.11 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌॥

“avajānanti māḿ mūḍhā,

mānuṣīḿ tanum āśritam..।

paraḿ bhāvam ajānanto,

mama bhūta- maheśvaram”..।।

भावार्थ: 

मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान निकृष्ट शरीर आधार (भौतिक पदार्थ से निर्मित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) वाला समझते हैं इसलिये वह सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। (११)

Meaning:

Resorting to a human form, foolish people insult me, not knowing my supreme nature as the overlord of all beings.

Explanation:

He highlights the fact, that Īśvara is akartā and abhoktā. And therefore we cannot blame the Lord for our problems; we cannot Lord is unjust; because nothing is happening according to the plan or will or wish of the God; God is an interfering presence.

Removal of all misconceptions of Ishvara is one of the recurring themes of this chapter. Even though Shri Krishna has repeatedly defined Ishvara as infinite, many people still get stuck with one form of Ishvara or the other. In this shloka, Shri Krishna terms such people foolish, and their behaviour insulting.

Those who say that God is only formless and cannot manifest in a personal form, contradict the definition of God as being all-mighty and all-powerful.  The Supreme Lord has created this entire world full of forms, shapes, and colors.  If He can do such an amazing feat of creating myriad forms in the world, can He not create a form for Himself?  Or is it that God says, “I do not have the power to manifest in a personal form, and hence I am only formless light.”  To say that He cannot possess a personal form makes Him incomplete.

However, in regard to the personal form of God, we must keep in mind that it is a divine form, which means it is devoid of all the defects found in material forms.  The form of God is sat-chit-ānand—it is eternal, full of knowledge, and constituted of divine bliss.

In this verse, Lord Brahma prays to Shree Krishna, “O Lord, your body is not made of pañch mahābhūta (the five great elements); it is divine.  And You have descended in this form by Your own free will, to bestow Your grace upon souls like me.”

In chapter four of the Bhagavad Gita, Shree Krishna stated: “Although I am unborn, the Lord of all living entities, and have an imperishable nature, yet I appear in this world by virtue of Yogmaya, my divine power.” (4.6) This means that not only does God possess a form, but He also descends in the world as an Avatar.

Now, many of us were conditioned by our cultures to believe that Ishvara is something that is far away and will take years and years of devotion to achieve. But Shri Krishna, through the Gita, has revealed to us the true nature of Ishvara as infinite, all- pervading and available right here and now. To ensure that we do not revert back to our old ways of thinking, Shri Krishna uses a strong term to refer to such people: foolish.

Even before we go to the level of Ishvara, we commit the error of thinking that our eternal essence, our self, is our human body only. Removing this erroneous notion was the message of the second chapter. In the same way, we are likely to think of Ishvara as a finite form, and in doing so, treat everything else in the world with disregard.

Shri Krishna says that such an attitude is personally insulting to Ishvara, who is the supreme controller of the universe. It is like introducing a Nobel peace prize winner as an ordinary citizen, or to think that a junior police officer is the be- all and end- all of a country’s government. People with such erroneous notions can cause a great deal of harm to themselves, as is pointed out in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जिस की सत्तास्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना करती है, चरअचर, स्थावरजङ्गम प्राणियों को पैदा करती है जो प्रकृति और उस के कार्यमात्र का संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक है जिस की इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मों के अनुसार जिन जिन लोकों में जाते हैं। उन उन लोकों में प्राणियों पर शासन करने वाले जितने देवता हैं, उन का भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सब को जाननेवाला है, ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है।

परमात्मा का कहते है कि मैं नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियों का आत्मा हूँ। मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभाव को अर्थात् करने में, न करने में और उलटफेर करने में जो सर्वथा स्वतन्त्र है जो कर्म, क्लेश, विपाक आदि किसी भी विकार से कभी आबद्ध नहीं है जो क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रों में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने यह घोषित किया था कि मूढ़ लोग, मेरे अव्यय और परम भाव को नहीं जानते हैं और परमार्थत अव्यक्त स्वरूप मुझ को व्यक्त मानते हैं। इस अध्याय में स्वयं को सब की आत्मा बताते हुए श्रीकृष्ण पुन उसी कठोर शब्द मूढ़ का प्रयोग उन लोगों की निन्दा के लिए करते हैं।

भीष्म ने भी दुर्योधन को ब्रह्मा के देवताओ को संवाद के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण के बारे मे बताया था

” सब लोको के महान ईश्वर भगवान वासुदेव सब के पूजनीय है। उन महान वीर्यवान शंख चक्र गदाधारी वासुदेव को मनुष्य समझ कर कभी अवज्ञा न करना। वे ही परम गुह्य, परम पद, परम ब्रह्म और परम यशःस्वरूप है। वे ही अक्षर है, अव्यक्त है, सनातन है, परम तेज है, परम सुख है और परम सत्य है। देवता, इंद्र और मनुष्य किसी को भी उन अमित पराक्रमी प्रभु वासुदेव को मनुष्य मान कर उन का अनादर नही करना चाहिए। जो मूढ मति लोग उन हृषिकेश को मनुष्य बतलाते है, वे नराधम है। जो मनुष्य इन महात्मा योगेश्वर को मनुष्य देहधारी मान कर इन का अनादर करते है और जो इन चराचर के आत्मा श्री वत्स के चिन्ह वाले महान तेजस्वी पद्मनाभ भगवान को नही पहचानते, वे तामसी प्रकृति से युक्त है। जो इन कौस्तुभ किरिटधारी और मित्रो को अभय करने वाले भगवान का अपमान करता है, वह अत्यंत भयानक नरक में पड़ता है।”

परमात्मा अविनाशी, अकर्ता, साक्षी, अनन्त, अजन्मा ही है, जब भी परमात्मा ब्रह्मा द्वारा रचित इस सृष्टि यज्ञ की बाधाओं को दूर करने एवम प्रकृति की क्रियाओं को सुचारू रूप से संचालित करने प्रकट होते है तो मुढ़ लोग उन्हें भी सदाहरण जीव मान लेते है।

भगवान् का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छा से ही प्रकट होते है और स्वतन्त्रतापूर्वक मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिये उन को न तो कर्मबन्धन होता है और न वे शरीर के आश्रित होते हैं। प्रत्युत शरीर उन के आश्रित होता है, वे प्रकृति को अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृति के परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृतिके आश्रित होकर ही कर्म करते हैं, पर भगवान् स्वेच्छा से, स्वतन्त्रता से अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उन की अध्यक्षता में काम करती है।

परमात्मा निर्गुण ही है उन के सगुण स्वरूप में निर्गुण परमात्मा को प्राप्त करना ही समपर्ण है। जो उन के सगुण स्वरूप को नही समझते वो ही मूढ माने जाते है। प्रकृति परिवर्तनशील है, जो आज है कल नही होगा, ब्रह्म शाश्वत है फिर भी अज्ञानी पुरुष परिवर्तनशील प्रकृति में स्थायी सुखों को खोजता है। उसे ब्रह्म से मुक्ति या मोक्ष नहीं चाहिए, वरन उसे अपनी सांसारिक समस्याओं का निदान चाहिए। वह अपने कर्मो पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता, वह परमात्मा से चाहता है कि वह उस के पापों का भार वहन करे और उसे सुख प्रदान करे। ऐसे लोगो के भगवान ने मूढ़ शब्द का प्रयोग किया है।

गीता संवाद के माध्यम से दिया हुआ ज्ञान है। परब्रह्म अपने ऐश्वर्य योग अर्थात अपने स्वरूप का वर्णन करने के बाद, अर्जुन के यही कह रहे है कि इस के पश्चात भी अनेक मुढ पुरुष मुझे प्रकृति के स्वरूप में देखते है। मुझ से अपनी कामनाओं की पूर्ति की आशा रखते है, प्रकृति में अहम एवम कामना जन्य दुखो से छुटकारा पाना चाहते है। मूढ़ का अर्थ हम उन लोगो से लेते है जो तथ्यों से अपरिचित नही है किंतु उन का विवेक उन के लोभ, मोह, काम मे नष्ट हो जाता है और वह लोग अपनी इच्छाओं के परवश होते है। उन के लिये अवतरित भगवान और सामान्य जीव में कोई अंतर नही रहता। राम को रावण और कृष्ण को कंस ने लाख समझाने पर भी सदाचरण मनुष्य ही समझ कर अपने स्वार्थ के लिये वैरी माना। यह कटाक्ष भी   है उन अज्ञानी लोगो के लिये परमात्मा का मजाक बनाते है, उन की निंदा करते है और उन के शाश्वत स्वरूप को नही समझ पाने से, उन की लीलाओं को सदाहरण मनुष्य की लीला मानते है।

व्यवहार में जब हम ने यह समझ लिया कि परमात्मा अव्यक्त, अकर्ता और अभोक्ता है और समस्त क्रियांए प्रकृति करती है, इसलिए कार्य – कारण के सिद्धांत से जो कुछ हमारे साथ हो रहा है वह पूर्व में हमारे ही कर्ता और भोक्ता भाव से लिए कर्मों का फल है। इस में परमात्मा का कोई हस्तक्षेप नहीं होता किंतु हम अज्ञान में जप, तप, यज्ञ, दान या पूजा करते हुए, उसे भोग लगा कर लालच देते है कि वह हमारा कार्य कर दे, हमारे कष्ट मिटा दे, हमारे बच्चों की शादी या काम लगवा दे। कामना और आसक्ति में जीने वाले ऐसे  लोग जो परमात्मा को मुक्ति या मोक्ष के लिए नहीं भजते हुए, प्रकृति के क्षणिक सुखों के लिए भजते है, वे मूढ या मूर्ख कहलाए गए है। जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा, चाहे इस जन्म में या फिर आने वाले जन्म में, इस को ले कर परमात्मा को दोष देना, या उस  का अनादर करते हुए उस से विमुख होना मूर्ख लोगों का काम है। इसलिए स्वार्थ और आसक्ति में यह लोग परमात्मा के अवतार को भी नहीं समझ पाते और उस को भी साधारण मनुष्य या जीव समझते है। वह परमात्मा जो इतनी बड़ी सृष्टि का संचालन अपनी योगमाया और प्रकृति से करता है, वह अनंत और असीम है, उसे अवतार लेने से कोई नहीं रोक सकता। उसे वो ही पहचान सकते है जो उसे स्वार्थ, कामना, आसक्ति और लोभ को त्याग कर श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण करते है और उस के प्रति समर्पित है।

इसलिए अज्ञानी होना कोई समस्या नहीं है, समस्या यह है कि अज्ञान को अपने सर पर भार के साथ ढोना और सत चित्त आनंद की बजाए, प्रकृति के क्षणिक सुखों की ओर भागना। फिर क्या जो दिन भर माला फेरते है, भजनकीर्तन करते है, भागवत सुनते है या जप करते है, व्यर्थ है। तो हम इसे व्यर्थ नहीं कहेंगे जब तक यह उपासना अर्थात श्रवण, मनन और निदिध्यासन के साथ न हो। हमारे कर्म पुण्य कर्म न हो। यदि पाप को बटोरेंगे और भगवान को याद करते हुए उन के दुखों से मुक्ति चाहेंगे तो यह मूर्खता ही होगी।

जो परमात्मा को उन के सगुण स्वरूप में नही पहचान पाते उन के भगवान आगे क्या बताते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।9.11।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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