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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.10 II

।। अध्याय     09.10 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

“mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ,

sūyate sa-carācaram..।

hetunānena kaunteya,

jagad viparivartate”..।।

भावार्थ: 

हे कुन्तीपुत्र! मेरी अध्यक्षता (पूर्ण-अधीनता) में मेरी भौतिक-प्रकृति (अपरा-शक्ति) सभी चर (चलायमान) तथा अचर (स्थिर) जीव उत्पन्न और विनिष्ट करती रहती है, इसी कारण से यह संसार परिवर्तनशील है। (१०)

Meaning:

Under my supervision, Prakriti generates this universe of moving and motionless (beings). With that purpose, O Kaunteya, the universe revolves.

Explanation:

Shri Krishna concludes the topic of Prakriti and its mechanisms by re-asserting that Prakriti is subservient to Ishvara. He describes Ishvara as the supervisor, the “adhyaksha”. He says that Ishvara does not physically have to “do” anything in order to create, sustain and dissolve the universe. Ishvara’s mere presence enables Prakriti to function, just like electricity enables a television to function. Without his presence, Prakriti remains inert and is incapable of doing anything whatsoever.

For example, the President of a country does not personally do every task of the government.  He has various departments under Him, and officials appointed for performing the different functions.  And yet, the accomplishments and failures of the government are attributed to Him.  This is because He sanctions the government officials for performing tasks under His jurisdiction.  Similarly, the first- born Brahma and the material energy accomplish the tasks of creation and manifestation of life forms.  Since they work under God’s sanction, He is also referred to as the Creator.

From Ishvara’s standpoint, there is no notion of “doing work” or “obtaining the result”; he knows that ultimately it is Prakriti that runs the show, and therefore he remains detached. He is like the owner of a theatre that has employed a magician to perform a show. The owner is unconcerned whether the magician cuts a woman in half with a saw, or pulls a rabbit out of a hat.

Let us now look at the practical implication this shloka. If we substitute the word Ishvara in the previous statement with the word “jeeva” or individual, we come to the same conclusion from the previous chapters on karma yoga. Only through disassociation with the notion that “I am the doer” and “I obtain the result” can we truly be liberated from the cycle of creation and dissolution.

The key question is : who controls whom? If we let Prakriti control us, if we let our lower nature drag us towards sense pleasure, we can never be liberated. We should re-assert our control of our lower self through our higher self.

Furthermore, Shri Krishna also gives us a technique to deal with life’s ups and downs with this shloka. Whenever we encounter a sorrowful or hurtful situation, all we need to do is to know that (a) we have obtained this situation through our own actions and (b) it is yet another name and form that Prakriti has created.

Once we know that something is a name and form, we will immediately know that it is Prakriti’s handiwork, just like we know that something is an April fool’s joke or a magician’s trick. This will enable us to pierce through Prakriti’s pranks and to know that Ishvara the supervisor is behind everything.

So then, Shri Krishna has explained to us “how the universe revolves”, in other words, how the magic trick works. This is how we should develop our vision of the world. However, instead of trying to see Ishvara behind everything, many people still try to box Ishvara into a finite concept. More on this is taken up in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा यहां स्पष्ट करते है उन की उपस्थिति में सर्वत्र व्याप्त मेरे अध्यास से यह माया ( त्रिगुणमयी प्रकृति, अष्टधा मूल प्रकृति और चेतन दोनों) चराचर सहित जगत को रचती है, जो क्षुद्र कल्प है और इस कारण से यह संसार आवागमन के चक्र में घूमता रहता है। प्रकृति का यह क्षुद्र कल्प जिस काल का परिवर्तन है वो इन के अध्यास से प्रकृति ही करती है, मैं अर्थात परमात्मा नही करता।

उदाहरण से हम समझे तो कार से यात्रा करते वक्त गाड़ी ड्राइवर के नियंत्रण से चलती है। पेट्रोल के जलने से उस ऊर्जा मिलती है और इंजन से वह ऊर्जा परिवर्तित हो कर पहियों की गति देती है। शेष कल पुर्जे उसे संतुलित और आराम देह बनाते है। किन्तु कहाँ पहुंचना है और कहां यात्रा समाप्त  होगी, यह कार का स्वामी तय करता है। इस ब्रह्मांड का ड्राइव प्रकृति है, माया उस की ऊर्जा, पंच भूत कल पुर्जे। इसी प्रकार कार के संचालन में स्वामी के दिशा निर्देश होते है, बाकी प्रक्रिया ड्राइवर करता है। यह संसार के संचालन में प्रकृति करती है।

वेदान्त में, अकर्म आत्मा और क्रियाशील अनात्मा के सम्बन्ध को अनेक उपमाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक उपमा इस संबंध रहित संबध के किसी एक पक्ष पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है। सूर्य की किरणें जिन वस्तुओं पर पड़ती हैं, उन्हें उष्ण कर देती हैं, परन्तु बीच के उस माध्यम को नहीं, जिसमें से निकल कर वह उस वस्तु तक पहुँचती हैं। आत्मा भी अपने अनन्त वैभव में स्थित रहता है और उस के सान्निध्य से अनात्मा चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम हो जाता है। अनात्मा और प्रकृति पर्यायवाची शब्द हैं। किसी राजा के मन में संकल्प उठा कि आगामी माह की पूर्णिमा के दिन उस को एक विशेष तीर्थ क्षेत्र को दर्शन करने के लिए जाना चाहिये। अपने मन्त्री को अपना संकल्प बताकर राजा उस विषय को भूल जाता है। किन्तु पूर्णिमा के एक दिन पूर्व वह मन्त्री राजा के पास पहुँचकर उसे तीर्थ दर्शन का स्मरण कराता है। दूसरे दिन जब राजा राजप्रासाद के बाहर आकर यात्रा प्रारम्भ करता है, तब देखता है कि सम्पूर्ण मार्ग में उस की प्रजा एकत्र हुई है और स्थानस्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये हैं। राजा के इस तीर्थ दर्शन और वापसी के लिए विस्तृत व्यवस्था योजना बनाकर उसे सफलतापूर्वक और उत्साह सहित कार्यान्वित किया गया है। समस्त राजकीय अधिकारयों तथा प्रजाजनों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्रयत्न को उड़ेल दिया है, जिससे राजा की तीर्थयात्रा सफल हो सके। इन समस्त उत्तेजनापूर्ण कर्मों में प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का अधिकार और शक्ति राजा के कारण ही थी, परन्तु स्वयं राजा इन सब कार्यों में कहीं भी विद्यमान नहीं था। राजा की अनुमति प्राप्त होने से मन्त्री की आज्ञाओं का सब ने निष्ठा से पालन किया। यदि केवल सामान्य नागरिक के रूप में वही मन्त्री यह प्रदर्शन आयोजित करना चाहता, तो वह कभी सफल नहीं हो सकता था। इसी प्रकार, आत्मा की सत्ता मात्र से प्रकृति कार्य क्षमता प्राप्त कर सृष्टि रचना की योजना एवं उसका कार्यान्वयन करने में समर्थ होती है। व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्धांत और अधिक स्पष्ट हो जाता है। आत्मा केवल अपनी विद्यमानता से ही मन और बुद्धि को प्रकाशित कर उनमें स्थित वासनाओं की अभिव्यक्ति एवं पूर्ति के लिए बाह्य भौतिक जगत् और उसके अनुभव के लिए आवश्यक ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को रचता है। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है अव्यक्त।नानाविध जगत् का यह नृत्य परिवर्तन एवं विनाश की लय के साथ आत्मा की सत्तामात्र से ही चलता रहता है। इसी कारण संसार चक्र घूमता रहता है। उपर्युक्त विचार का अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। आत्मा के सान्निध्य से प्रकृति चेतनता प्राप्त कर सृष्टि का प्रक्षेपण करती है। उसकी सत्ता और चेतनता आत्मा के निमित्त से है, स्वयं की नहीं। आत्मा और अनात्मा, पुरुष और प्रकृति के मध्य यही सम्बन्ध है। स्तम्भ के ऊपर अध्यस्त प्रेत के दृष्टान्त में स्तम्भ और प्रेत के सम्बन्ध पर विचार करने से जिज्ञासु को पुरुष और प्रकृति का संबंध अधिक स्पष्टतया ज्ञात होगा।

यहाँ यह शङ्का होती है कि इस भूतसमुदाय को मैं रचता हूँ तथा मैं उदासीन की भाँति स्थित रहता हूँ यह कहना परस्पर विरुद्ध है। इस शङ्का को दूर करने के लिये कहते हैं, सब ओर से द्रष्टामात्र ही जिस का स्वरूप है ऐसे निर्विकार स्वरूप मुझ अधिष्ठाता से ( प्रेरित होकर ) अविद्यारूप मेरी त्रिगुणमयी माया प्रकृति समस्त चराचर जगत् को उत्पन्न किया करती है। वेदमन्त्र भी यही बात कहते हैं कि समस्त भूतों में अदृश्य भाव से रहनेवाला एक ही देव है जो कि सर्वव्यापी और सम्पूर्ण भूतों का अन्तरात्मा तथा कर्मों का स्वामी, समस्त भूतों का आधार, साक्षी, चेतन, शुद्ध और निर्गुण है। हे कुन्तीपुत्र इसी कारण से अर्थात् मैं इस का अध्यक्ष हूँ इसीलिये चराचर सहित साकार निराकार रूप समस्त जगत् सब अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है क्योंकि जगत् की समस्त प्रवृत्तियाँ साक्षी चेतन के ज्ञान का विषय बनने के लिये ही हैं। मैं यह खाऊँगा, यह देखता हूँ, यह सुनता हूँ, अमुक सुखका अनुभव करता हूँ, दुःख अनुभव करता हूँ, उस के लिये अमुक कार्य करूँगा, इसके लिये अमुक कार्य करूँगा, अमुक वस्तु को जानूँगा इत्यादि जगत् की समस्त प्रवृत्तियाँ ज्ञानाधीन और ज्ञान में ही लय हो जानेवाली हैं। जो इस जगत् का अध्यक्ष साक्षी चेतन है वह परम हृदयाकाश में स्थित है इत्यादि मन्त्र भी यही अर्थ दिखला रहे हैं। जब कि सब का अध्यक्षरूप चैतन्यमात्र एक देव वास्तव में समस्त भोगों के सम्बन्ध से रहित है और उसके सिवा अन्य चेतन न होने के कारण दूसरे भोक्ता का अभाव है तो यह सृष्टि किस के लिये है इस प्रकार का प्रश्न और उस का उत्तर  यह दोनों ही नहीं बन सकते ( अर्थात् यह विषय अनिर्वचनीय है )। ( इसको ) साक्षात् कौन जानता है, इस विषय में कौन कह सकता है यह जगत् कहाँ से आया किस कारण यह रचना हुई इत्यादि मन्त्रों से ( यही बात कही गयी है )। इसके सिवा भगवान् ने भी कहा है कि अज्ञान से ज्ञान आवृत हो रहा है इसलिये समस्त जीव मोहित हो रहे हैं।

व्यवहार में पूर्व उदाहरण के अनुसार किसी बहुत बढ़े उद्योग का प्रबंध उस की मैनेजमेंट कमिटी करती है, उद्योगपति अपने सभी अधिकार उस समिति को अपने संकल्प के अनुसार दे देता है। वह स्वयं कुछ नही करता। कमिटी में विभिन्न विभाग एवम व्यक्ति अपने अपने अधिकार क्षेत्र एवम कार्यप्रणाली रखते है, कमिटी को हम प्रकृति माने और उस के कार्यप्रणाली को हम माया कह सकते है। इन के विभिन्न विभाग विभिन्न लोक होंगे। निचले स्तर पर कर्मचारी, उत्पादन, क्रय, विक्रय आदि विभाग है। इस प्रकार सम्पूर्ण कारखाना कार्य करते हुए भी उस का मालिक का कोई कर्म नही होता। जब समस्त कार्य मालिक के नाम पर हो किंतु मालिक को उस के करने का अहंकार न हो, तो यह साक्षी भाव में किया कृत्य कहा जाएगा।

प्रकृति योग माया से समस्त संसार का संचालन करती है जिस में सत, रज और तम गुण  के अपने अपने गुणों के सामजस्य के अनुसार जीव कार्य करता है। जैसे ऊर्जा मिलने पर यंत्र उस के मैकेनिकल फिटनेस के हिसाब से क्रियाशील हो जाता है। Crane और हवाई जहाज दोनो एक ही प्रकार ही ऊर्जा में अलग अलग कार्य, उन की फिटनेस में करते है। इसलिए जब भी यह प्रश्न हो, कि मेरे साथ ऐसा क्यों ? तो अपनी फिटनेस को सुधारों।

हमें ध्यान रखना होगा कि भगवद गीता में यह सब परब्रह्म का ज्ञान भगवान श्री कृष्ण अर्थात मानवीय अवतार में ब्रह्म दे रहा है, इसलिए मैं शब्द का प्रयोग किया गया है किंतु कृष्ण भी प्रकृति के निमित्त ब्रह्म का ईश्वरीय अवतार है इसलिए प्रकृति के नियम के अनुसार शरीर से नश्वर है। जो भ्रांति से कृष्ण के स्वरूप को ही परब्रह्म कहते है, उन्हे यह ज्ञान होना चाहिए कि ईश्वर जब भी अवतार लेता है तो प्रकृति के नियम से कार्य करता है किंतु वह प्रकृति की योगमाया और तीनों गुणों को नियंत्रित भी करता है। जीव जब योगमाया और प्रकृति के तीनों गुणों के अंदर है तो जीवात्मा है और जब वह प्रकृति के तीनों गुणों और योगमाया के नियंत्रण से बाहर है तो ईश्वर है।

संसार परब्रह्म के संकल्प की देन है, जिस को उस ने प्रकृति एवम योगमाया को संचालन का अधिकार दे कर अपने को अकर्ता एवम निर्लिप्त कर लिया है। प्रकृति के नियम भी कार्य-कारण के सिंद्धान्त पर आधारित है, जीव  अर्थात ब्रह्म का अंश जब तक अज्ञान में रहता है, वह प्रकृति के अधीन कार्यरत है। जो इस कार्य प्रणाली को नही समझते, उन के परमात्मा क्या कहते है, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 9.10।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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