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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.03 II  

।। अध्याय     09.03 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥

‘aśraddadhānāḥ puruṣā,

dharmasyāsya parantapa..।

aprāpya māḿ nivartante,

mṛtyu-saḿsāra-vartmani”..।।

भावार्थ: 

हे परन्तप! इस धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे न प्राप्त होकर, जन्म-मृत्यु रूपी मार्ग से इस संसार में आते-जाते रहते हैं। (३)

Meaning:

People who do not have faith in this prescription, O scorcher of foes, do not attain me. They return to the path of the mortal world.

Explanation:

Like any good teacher, Shri Krishna first glorifies the knowledge that he is about to teach, then points out the qualifications of the worthy student. Addressing Arjuna as the “scorcher of foes”, he says that they key qualification required to receive this teaching is that of faith. If we do not have faith, we continue following our old ways, only to be trapped in this endless cycle of creation and dissolution.

Krishna says that in spite of all the glorification that I have done, and also all the glorification of this wisdom obtaining in the scriptures themselves; unfortunately, many people do not resort to this Īśvara jñānam. Even though it is greatest; and even though it is freely available, in most of the places, in many ashramas; many institutions it is given free. Krishna says this is the greatest wisdom and easily available; and gives highest joy and security; but still many people do not vote for this; because, they are not able to trust this as something is so cheaply given to them. Many people do not have śraddhaḥ in the efficacy of this teaching.

Why is there so much importance placed in faith? Without faith, we will not have the inclination to fully understand any teaching. Even in school or college, we will not take the extra effort to inquire, ask questions, read books and resolve our doubts unless we have faith in the subject and the teacher. It is even more important in this kind of knowledge.

So then, what happens to those that do not have faith? Shri Krishna says that such people do not attain Ishvara. They have faith in their sense organs and their corresponding sense pleasures. These people still think that feeding their senses with more food, entertainment as well as bodily and intellectual comforts will result in long-lasting happiness. This misplaced faith further ensnares them in the path of the mortal world, which that of birth, old age, disease and death, over and over again.

Belief in God is not a natural process that we as human beings just follow.  We have to exercise our free will and actively make a decision to have faith in God.  In the assembly of the Kauravas, when Dushasan endeavored to disrobe Draupadi, Lord Krishna saved her from shame and embarrassment by lengthening her sari.  All the Kauravas present saw this miracle, but refused to have faith in the omnipotence of Shree Krishna and come to their senses.  The Supreme Lord says in this verse that those who choose not to have faith in the spiritual path remain bereft of divine wisdom and continue rotating in the cycle of life and death.

Having sufficiently introduced the chapter, Shri Krishna delivers the main message of this chapter in the following two shlokas.

।। हिंदी समीक्षा ।।

धर्म दो तरह का होता है — स्वधर्म और परधर्म। मनुष्य का जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है, वह उस के लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृति का कार्यमात्र उस के लिये परधर्म है । यही जीव और प्रकृति का संबंधों का अज्ञान है कि जीव अपने ब्रह्म के अंश स्वरूप को भूल कर प्रकृति से प्रदत्त भौतिक और सूक्ष्म शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने शरीर को, कुटुम्ब को, धन सम्पत्ति वैभव को निःसन्देह रूप से उत्पत्ति विनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उन पर विश्वास करते हैं। श्रद्धा करते हैं। उन का आश्रय लेते हैं। श्रद्धा तो स्वधर्म पर होनी चाहिये थी, पर वह हो गयी परधर्म पर। परधर्म पर श्रद्धा रखने वालों के लिये भगवान् कहते हैं कि सब देश में, सब काल में, सम्पूर्ण वस्तुओं में, सम्पूर्ण व्यक्तियों में सदासर्वदा विद्यमान, सबको नित्यप्राप्त मुझे प्राप्त न करके मनुष्य मृत्यु रूप संसार के रास्ते में लौटते रहते हैं। वास्तव में ज्ञानेंद्रियां ज्ञाता है और कर्मेंद्रियां कर्म, इन दोनों को मनोभाव के अनुसार अनुभव करनेवाला मन ही भोक्ता हुआ। इस मन के स्वामी के नाते जीवात्मा अपने को भोक्ता मान कर सुख-दुख को महसूस करती है और जिस के साथ जुड़ना चाहिए, उसे भूल गई है।

भगवान के स्वरूप, प्रभाव, गुण और महत्व को , उन की प्राप्ति के उपाय को और उस के फल को सत्य न मान कर उस मे असंभावना और विपरीत भावना करना और उसे केवल रोचक उक्ति समझना आदि जो विश्वास विरोधिनी भावनाएं है, वे ही अश्रद्धा के भाव है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो मार्ग अत्यंत सरल, मोक्ष देने वाला, ज्ञान में सब से उच्चतम स्तर का है, विश्वनीय और प्रत्यक्ष हो, उस पर श्रद्धा, विश्वास और समर्पण नही रखते हुए, जीव प्राकृतिक सुख के पीछे भागता रहता है। जब कि यह अमूल्य ज्ञान उसे बिना किसी दाम के उपलब्ध है तो भी वह उन संस्थाओं, आश्रमों और कर्म कांडो पर ज्यादा विश्वास रखता है, जहां उसे कर्म काण्ड अर्थात पूजा, व्रत, उपवास, यज्ञ और प्रवचन से विश्वास दिलाया जाता है कि वह कुछ ऐसा करे जिस से उस के सांसारिक और परासांसारिक सुख की प्राप्ति होगी अर्थात वह जन्म – मरण के दुखालय में ही रहना चाहता है।

जो वस्तु मन- इन्द्रिय अगोचर है उस मे प्रथम श्रद्धा बिना प्रवृति ही नही हो सकती, प्रवृति बिना पुरुषार्थ नही हो सकता और फिर पुरुषार्थ बिना प्राप्ति तो हो ही नही सकती।

इस आत्मज्ञानरूप धर्म की श्रद्धा से रहित हैं अर्थात् इस के स्वरूप में और फल में आस्तिक भाव से रहित हैं, नास्तिक हैं वे असुरों के सिद्धान्तों का अनुवर्तन करने वाले देहमात्र को ही आत्मा समझने वाले एवं पापकर्म करने वाले इन्द्रियलोलुप मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त न होकर,  मृत्युयुक्त संसार के मार्ग में ही घूमते रहते है अर्थात् जो संसार मृत्युयुक्त है उस मृत्यु संसार के नरक और पशुपक्षी आदि योनियों की प्राप्ति रूप मार्ग में वे बारंबार घूमते रहते हैं।

व्यवहारिक दृष्टिकोण से किसी से ज्ञान की प्राप्ति तभी ली जा सकती है जब उसे प्राप्त करने वाले को ज्ञान देने वाले व्यक्ति पर श्रद्धा एवम विश्वास संशय रहित हो। अश्रद्धा से मन मे नकारात्मक भाव एवम अहम रहता है जिस  से किसी भी बात को सुनने एवम समझने से पूर्व ही उस का विश्लेषण मन द्वारा होने लगता है एवम ज्ञान यदि आप के अनुकूल नही है तो समझने से पूर्व ही नकार दिया जाता है। यहाँ व्यक्ति वही सुनता है जो वो है, न कि ज्ञान सुन कर जो उसे बनना चाहिये।  रावण के मृत्यु के क्षण में जब राम ने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान लेने भेजा तो लक्ष्मण के स्वाभिमान एवम गर्व ने उसे रावण के सर के पास खड़ा किया। अतः रावण ने उसे ज्ञान देने से मना किया किन्तु स्वयं राम जब उस से ज्ञान लेने पहुचे तो प्रथम प्रणाम कर के चरणों के पास खड़े हुए जिस से उन्हें रावण ने ज्ञान की बाते कही। गीता या अन्य ग्रंथ पढ़ कर भी यदि हम में कोई परिवर्तन नहीं होता तो दोष गीता या उस ग्रन्थ का नही, हमारे अंदर की अश्रद्धा का है।

श्रद्धा एवम विश्वास एक पत्थर को भी पानी मे तैरा सकता है किंतु यह ह्रदय से अंदर से होनी चाहिए, एक दम अटूट। शंका या दुविधा या अतिशय अभिमान जनित ज्ञान के साथ श्रद्धा नही हो सकती।

मिथ्या गर्व, असत्य भाव एवम अश्रद्धा से हम अपने किसी भी कार्य को जब पूर्ण नहीं कर सकते तो अपनी स्थिति में परिवतर्न भी नही ला सकते। यही बात भगवान श्री कृष्ण भी कहते है कि अपरा प्रकृति से प्रेम एवम मोह रख कर, अधूरे मन से भक्ति या तप करने वाले यदि श्रद्धा भाव से परिपूर्ण नही है तो यह संसार उन से छूट नही सकता क्योंकि मोह ही हमे कर्म बंधन में जकड़ कर रखेगा और उस के कर्म फल हेतु हम बार बार इस दुख स्वरूपी संसार मे विभिन्न योनियों में जन्म लेते रहेंगे।

जिस भाव से यह जीवात्मा क्रियाशील है, वह भाव मन और बुद्धि की देन है। स्थिर मन और चिंतनशील बुद्धि ज्ञान को ग्रहण करती है, किन्तु यह ज्ञान किताबी या कंप्यूटर की हार्डडिस्क का ज्ञान है जिस में जानकारी तो बहुत है, परंतु वह स्वयं में कोई सिद्ध नही। अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है, जब तक श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का अभाव है, तब तक राजविद्या का ज्ञान किताबी ज्ञान ही है, इस से आत्मोद्धार नही हो सकता। जीव को यदि मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो श्रद्धा, विश्वास और प्रेम भाव से शरणागत को कर इस ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए। हमे यह ज्ञात होना चाहिये कि जो वस्तु मन-इन्द्रिय- बुद्धि से अगोचर है, उस में श्रद्धा- विश्वास के बिना प्रवृति हो ही नही सकती, बिना प्रवृति के पुरुषार्थ नही हो सकता और बिना पुरुषार्थ के उस परब्रह्म की प्राप्ति अर्थात मोक्ष नही हो सकती।

भगवान श्री कृष्ण जिस राजविद्या को आगे कहने जा रहे है उस का सही लाभ उन्ही को मिलेगा जो अनसूयु अर्थात दोष रहित हो एवम पूर्ण श्रद्धा एवम विश्वास के साथ पढ़े।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.03।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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