।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.27 II
।। अध्याय 08.27 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.27॥
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
“naite sṛtī pārtha jānan,
yogī muhyati kaścana..।
tasmāt sarveṣu kāleṣu,
yoga-yukto bhavārjuna”..।।
भावार्थ:
हे पृथापुत्र! भक्ति में स्थित मेरा कोई भी भक्त इन सभी मार्गों को जानते हुए भी कभी मोहग्रस्त नहीं होता है, इसलिये हे अर्जुन! तू हर समय मेरी भक्ति में स्थिर हो। (२७)
Meaning:
Knowing both these paths, any yogi is not deluded, O Paartha. Therefore, remain engaged in yoga at all times, O Arjuna.
Explanation:
Shri Krishna starts to conclude the topic of the jeeva’s journey after death. He says that those who have knowledge of the fate of the jeeva after death is not deluded or misinformed. With this knowledge, we can change his behavior on earth in order to qualify for the right path after our death.
Of the two paths mentioned in this chapter, there was one that led to liberation. Shri Krishna advises us to follow the path of selfless action combined with single pointed devotion, in other words, karma yoga and bhakti yoga. This is indicated by the phrase “remain engaged in yoga” in this shloka.
Those relentless souls who strive for Yog or union with God are true yogis. Yogi means a viveki, an intelligent seeker will not get confused with regard to karma marga and upasana marga; whether I should become a mere ritualist whether I should add upāsana also; So, whether I should become a karmi or whether I should become a upāsakaḥ, such a doubt should not come to an intelligent seeker. They recognize themselves to be tiny fragments of God and His eternal beatitude. They also realize the temporary nature of the material world and the futility of a materialistic life. Therefore, instead of running behind sensual pleasures, they endeavour to enhance their love for God. Such souls are on the path of light.
On the other hand, are the ignorant souls, who are under the influence of maya, the material energy. They recognize themselves as only the body and the material world around them as the source of their pleasure. They continue to live through the miseries of material existence, being disdainful toward God or His eternal opulence. Thus, such souls are on the path of darkness.
A devotee of the Supreme Lord should not worry whether he will depart by arrangement or by accident. The devotee should be firmly established in Krishna consciousness and chant Hare Krishna. He should know that concern over either of these two paths is troublesome. The best way to be absorbed in Krishna consciousness is to be always dovetailed in His service, and this will make one’s path to the spiritual kingdom safe, certain and direct. The word yoga- yukta is especially significant in this verse. One who is firm in yoga is constantly engaged in Krishna consciousness in all his activities. Sri Rupa Gosvami advises, anasaktasya vishayan yatharham upayunjatah: one should be unattached in material affairs and do everything in Krishna consciousness. By this system, which is called yukta- vairagya, one attains perfection.
Shree Krishna adds the phrase, “at all times.” It is for us to recognize the importance of being a yogi at all times. And avoid the danger of sliding back into the path of darkness.
Therefore, the devotee is not disturbed by these descriptions, because he knows that his passage to the supreme abode is guaranteed by devotional service.
All of this knowledge has already been explained to us. Karma yoga was the theme of the first six chapters, and bhakti yoga is the theme of chapters six through twelve. We have a choice. We can either read those chapters with an intellectual bent, or we can actually put the teachings to practice in our lives by remaining engaged in yoga “at all times”. The choice is up to us.
Shri Krishna summarizes and concludes this chapter in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
शुक्लगति और कृष्णगति इन दोनों के ज्ञान का फल यह है कि इन का ज्ञाता योगी पुरुष कभी मोहित नहीं होता है मन में उठने वाली निम्न स्तर की प्रवृत्तियों के कारण धैर्य खोकर वह कभी निराश नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण ने इसीलिये पुनरावृत्ति और अपुनरावृत्ति के मार्गों का वर्णन किया। शुक्लमार्ग प्रकाशमय है और कृष्णमार्ग अन्धकारमय है।
इस तरह शुक्ल और कृष्ण दोनों मार्गों के परिणाम को जाननेवाला मनुष्य योगी अर्थात् निष्काम हो जाता है भोगी नहीं। कारण कि वह यहाँ के और परलोक के भोगों से ऊँचा उठ जाता है। इसलिये वह मोहित नहीं होता।सांसारिक भोगों के प्राप्त होने में और प्राप्त न होने में जिस का उद्देश्य निर्विकार रहने का ही होता है वह योगी कहलाता है। निष्काम भाव से कर्मोपासना करने वाले कर्मयोगी एवम कर्तृत्वाभिमान का त्याग करने वाले सांख्य योगी दोनों ही शुक्ल मार्ग से भगवान के परमधाम को प्राप्त करते है। योगी वही है जो निष्काम और निर्लिप्त भाव से परमात्मा से जुड़ा है, उस का विवेक जाग्रत है, इसलिए तामसी और राजसी प्रवृतियां उस के कर्म को प्रभावित नही करती।
इसलिये भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तू सब समय में अर्थात् अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों के प्राप्त होने पर उन से प्रभावित न होकर उन का सदुपयोग करते हुए (अनुकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर मात्र संसार की सेवा करते हुए और प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर हृदय से अनुकूलता की इच्छा का त्याग करते हुए) योगयुक्त हो जा अर्थात् नित्यनिरन्तर समता में स्थित रह और निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन कर।
व्यवहारिकता में यदि हम समझ जाएं कि किस प्रकार के आचरण, प्रवृति- निवृति, कर्म, कामना और अहम से जीवन व्यतीत करने पर हमें क्या प्राप्त होगा या हमारी दिशा क्या है तो कोई भी जन्म-मरण के दुख भोगने के चन्द्र लोक से ब्रह्म लोक की यात्रा की बजाए मोक्ष का मार्ग ही स्वीकार करना चाहेगा। मोक्ष का मार्ग निष्काम कर्म योग सन्यास का वर्णन हम पहले पढ़ चुके है। किंतु उस मार्ग में सरल एवम समर्पण भाव से आगे बढ़ने के लिये भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को योगायुक्त अर्थात योग से युक्त हो कर भगवान श्री कृष्ण को ह्रदय से स्मरण करते हुए, निष्काम भाव से कर्म को प्रेरित कर रहे है। कुछ लोग इसे भक्ति मार्ग को बता रहे है, जो सरल एवम ह्र्दयग्राही है, किन्तु युद्ध भूमि में भक्ति मार्ग भी सांसारिक कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए, ह्रदय से भगवान का स्मरण करना और अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना ही है। अर्जुन तो युद्ध छोड़ कर वैराग्य में जाने को उद्वत थे, परन्तु यदि प्रकृति के नियत स्वाभाविक कर्म को हम यदि त्याग कर, लंगोटी धारण करते है तो अहम, अहंकार और क्षोभ बना रहेगा। इसलिये कर्तव्य धर्म के पालन में हमारी नियति एवम हमारा मोक्ष का मार्ग किस प्रकार प्राप्त होगा, इसलिये हमे योगी बन कर योगायुक्त भाव से कर्म करते रहना चाहिए।
शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, अर्चि मार्ग यह सब प्रतीक है अंधकार से प्रकाश की ओर। ज्ञान, अनन्या भक्ति, स्मरण , निष्काम भी इन अंधकार मय जीवन के प्रतीक मद, लोभ, स्वार्थ, अहंकार, काम, वासना, क्रोध, घृणा आदि नीच कर्म आदि के लिये प्रकाश की किरण है। अतः मृत्यु समय, स्थान एवम अवस्था से देवयान अर्थात परमात्मा से मिलने का समय तय नहीं करती, यह व्यक्ति का योग युक्त निष्काम कर्म ही तय करता है।
जिस का ऐसा दृढ़ निश्चय हो गया है कि मुझे तो केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति ही करनी है, तो फिर कैसे ही देश, काल, परिस्थिति आदि के प्राप्त हो जाने पर भी वह विचलित नहीं होता अर्थात् उस की जो साधना है वह किसी देश काल घटना परिस्थिति आदि के अधीन नहीं होती। उस का लक्ष्य परमात्मा की तरफ अटल रहने के कारण देशकाल आदि का उसपर कोई असर नहीं पड़ता।
अनुकूल-प्रतिकूल देश काल परिस्थिति आदि में उस की स्वाभाविक समता हो जाती है। इसलिये भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तू सब समय में अर्थात् अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों के प्राप्त होने पर उन से प्रभावित न होकर उन का सदुपयोग करते हुए (अनुकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर मात्र संसार की सेवा करते हुए, और प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदय से अनुकूलता की इच्छा का त्याग करते हुए) योगयुक्त हो जा अर्थात् नित्य- निरन्तर समतामें स्थित रह।
व्यवहारिक दृष्टिकोण से यदि आप को पहले से रास्ते का ज्ञान करा दिया जाए कि जिस रास्ते से आप जा रहे है वो गंतव्य स्थान पर न पहुच कर वापस वही आता है तो रास्ता कितना भी अच्छा क्यों न हो, कोई उस पर कोई क्यों चलना चाहेगा। यदि आप को मंजिल चाहिये तो आप को किस रास्ते से जाना चाहिये यही भगवान श्री कृष्ण ने इस लोक एवम परलोक के सभी स्थानों को बताते हुए पूरा मार्ग बता दिया। बताने के पश्चात अर्जुन को पुनः निष्काम भाव से योग युक्त हो कर कर्तव्य पालन करने को कहते है।
भगवान श्री कृष्ण भक्ति में स्थित होने की बात कहते है तो भक्ति का अर्थ है संशय रहित श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण और समर्पण। भक्ति आत्मशुद्धि या चितशुद्धि का उपाय है जिस के कारण जो हम नही जानते या नहीं समझते उस मार्ग या कार्य को हम अपने आदर्श पुरुष, गुरु, श्रेष्ठ जनों के द्वारा बताए गए ज्ञान के आधार पर कर सके। योगयुक्त होने का अर्थ स्थिर मन और निर्णायक और विवेकशील बुद्धि का होना है और यह कार्य एक या दो बार नही हमेशा करना चाहिए। अंग्रेजी में भी किसी ने कहा है “Do the right, first time and every time.”
“मैं कौन हूं?”, “जन्म से पहले और मृत्यु के बाद मेरा क्या होगा?”, “इस धरती में मेरा उद्देश्य क्या है?” आदि अनेक प्रश्नों के सही और सटीक उत्तर गीता में इस अध्याय तक मिल जाते है कि जीव ब्रह्म का अंश है, उस लक्ष्य मोक्ष है। धरती में वह प्रकृति के निमित्त हो कर कर्म करता है और उस के फलों को भोगता है। उसे मुक्ति चाहिए तो भक्ति भाव से परमात्मा को समर्पित हो कर, योग में स्थित हो कर अपने कर्म इस प्रकार करे कि मृत्यु के बाद उस का मार्ग प्रकाश का हो, अर्थात कर्म और जीव मुक्ति के मार्ग पर चले। भक्ति और योग अर्थात ज्ञान के साथ श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। अंध श्रद्धा या अतिरेक ज्ञान से अहंकार को जन्म देता है। जिस से अंधकार का मार्ग ही खुलता है। इसे अब हमे ही तय करना है कि हम अंधेरे से प्रकाश की ओर बढ़े या अंधेरे में खो कर 84 लाख योनियों में घूमते रहे।
अगले इस अध्याय के अंतिम श्लोक में योगयुक्त पुरुष की महिमा एवम बताए मार्ग पर चलने के परिणाम के बारे में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 8.27।।
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