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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.23 II

।। अध्याय     08.23 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.23

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥

“yatra kāle tv anāvṛttim,

āvṛttiḿ caiva yoginaḥ..।

prayātā yānti taḿ kālaḿ,

vakṣyāmi bharatarṣabha”..।।

भावार्थ: 

हे भरतश्रेष्ठ! जिस समय में शरीर को त्यागकर जाने वाले योगीयों का पुनर्जन्म नही होता हैं और जिस समय में शरीर त्यागने पर पुनर्जन्म होता हैं, उस समय के बारे में बतलाता हूँ। (२३)

Meaning:

But (there exists) the path of no return for a yogi who is leaving his body, and also the path of return, I shall speak about those, O scion of the Bharatas.

Explanation:

In these verses, Shree Krishna continues to answer the question Arjun had asked in verse 8.2, “How can one be united with God at the time of death?” 

With this shloka, Shri Krishna commences a new topic. He provides details around the journey of the jeeva after death.

As we have seen earlier that journey differs from person to person. It is determined solely by two things: how we have acted and how we have thought. In other words, our actions and our thoughts in this life decide what happens in our next life. In this chapter, Shri Krishna has spoken about two kinds of people.

Shree Krishna explains that there are two paths—the path of light or the path of darkness. Although these statements may seem cryptic, they present an effective allegory to explain spiritual concepts using the contrasting themes: light and darkness. Where light; is symbolic to knowledge and darkness; is for ignorance.

The first category of people are those who perform good actions in their lives. The second category of people are those who are solely devoted to Ishvara, in addition to performing good actions. This is Shri Krishna speaks about two paths in this shloka. Each category travels on a different path after death.

In the next two shlokas, each of these paths is explained in further detail. One path leads to liberation, which means that those who attain this path do not come back, they are not born again. The other path leads to rebirth or return.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन का सांतवा प्रश्न था कि जो संसार से सर्वथा हटकर अनन्य भाव से केवल आप में ही लगे हुए हैं उन के द्वारा अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं अर्थात् वे आप के किस रूप को जानते हैं और किस प्रकार से उन के द्वारा  जाना जानते हैं।

पूर्व श्लोक में भगवान अपने स्वरूप, ब्रह्म लोक, पुनरवर्तन एवम व्यक्त-अव्यक्त स्वरूप का वर्णन एवम निर्गुणकार एवम सगुणाकार स्वरूप की आराधना करने वाले जीव के बारे में बताने के बाद उन तक पहुचने का मार्ग जिसे काल कह कर संबोधित किया है बताते है।

पूर्व के श्लोक में दो प्रकार की मुक्ति कही गई, जिस में प्रथम कर्म मुक्ति जिस से जीव ब्रह्म लोक जैसे लोक में चले जाते है और फिर वहां से अहम को त्याग करते हुए जीवन मुक्ति को प्राप्त करते है। किंतु उस समय ब्रह्मा के सर्ग और प्रलय के साथ साथ जीव का भी जन्म – मरण का कर्म शुरू रहता है। इसलिए इस मार्ग को कृष्ण पक्ष अर्थात अंधकार की ओर चलने वाला मार्ग कहा गया है।

जो साधक किसी सूक्ष्म वासना के कारण ब्रह्मलोक में जाकर क्रमशः ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं उन की मुक्ति को क्रममुक्ति कहते हैं। जो केवल सुख भोगने के लिये ब्रह्मलोक आदि लोकों में जाते हैं वे फिर लौट कर आते हैं। इस को पुनरावृत्ति कहते हैं।

जीवित अवस्था में ही बन्धन से छूटने को सद्योमुक्ति कहते हैं अर्थात् जिन को यहाँ ही भगवत् प्राप्ति हो गयी भगवान् में अनन्यभक्ति हो गयी अनन्य प्रेम हो गया वे यहाँ ही परम संसिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। यह लोग सीधे परमात्मा में विलय या लीन हो जाते है।

सद्योमुक्ति का वर्णन तो पंद्रहवें श्लोक में हो गया पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्ति का वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनों का वर्णन करने के लिये भगवान् आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।

अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। यह लोग कामना के साथ पुण्य कार्य करते है और अपने अपने पुण्य के अनुसार चन्द्रलोक, वरुण लोक, इंद्रलोक एवम ब्रह्मादि लोक को प्राप्त होते है और अपने पुण्य को भोग कर पुनः संसार मे आवर्त होते है।

निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। इस में मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इन्हें योगिनः कहा गया है अर्थात जो परमात्मा का स्मरण अनन्या भक्ति से करते है। इन मे योगी भी है जो तप आदि करते है। ऐसे योगी अनावृति को प्राप्त होते है एवम अर्चिरादि मार्ग से परमात्मा को प्राप्त हो कर पुनः जन्म नही लेते। जो सांसारिक पदार्थों और भोगों से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो गये हैं वे अनावृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उन का ज्ञान (विवेक) ढका हुआ नहीं है प्रत्युत जाग्रत् है। इसलिये वे अनावृत्ति के मार्ग में जाते हैं जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता।

ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे। यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है। काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।

गीता में मुक्ति के लिए दो मार्ग बताए गए है, जो शाब्दिक अर्थ में यदि परिभाषित किए जाए तो अंधविश्वास या शास्त्र ज्ञान में संदेह को उत्पन्न करेगा क्योंकि मृत्यु अवश्यभावी सत्य होने के साथ अनिश्चित काल के साथ है। जो मनुष्य या जीव के हाथ में नही तो उस का परिणाम भी समय पर निश्चित नही होता, इसलिए काल का अर्थ मार्ग और कर्म के फलों को ही समझते है। विभिन्न लोकों से तात्पर्य विभिन्न ग्रह सौर मंडल, आकाश गंगा है, गीता यदि कृष्ण या शुक्ल पक्ष के बात करती है तो हमे गर्व होना चाहिए कि गीता जिसे 5500 साल पुराना ग्रंथ समझे तो हमारी संस्कृति काल गणना और ब्रह्मांड की विभिन्न आकाश गंगाओं का कितना सटीक गणना दूरी की साथ रखती थी। आज भी यह नासा द्वारा रिसर्च में अनेक स्वरूप स्वीकार किया जाता है।

अब उन दोनों में से पहले शुक्लमार्ग का अर्थात् लौट कर न आनेवालों के मार्ग का वर्णन पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 8.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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