।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.22 II
।। अध्याय 08.22 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.22॥
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
“puruṣaḥ sa paraḥ pārtha,
bhaktyā labhyas tv ananyayā..।
yasyāntaḥ-sthāni bhūtāni,
yena sarvam idaḿ tatam”..।।
भावार्थ:
हे पृथापुत्र! वह ब्रह्म जो परम-श्रेष्ठ है जिसे अनन्य-भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसके अन्दर सभी जीव स्थित हैं और जिसके कारण सारा जगत दिखाई देता है। (२२)
Meaning:
That supreme person, in whom all beings are included, by whom all this is pervaded, O Paartha, is obtained through single-pointed devotion.
Explanation:
With this shloka, Shri Krishna summarizes the topic of complete liberation. The detail around the creation and dissolution of the universe was meant to highlight the notion that only through liberation can we rise above that endless cycle. Shri Krishna gives us the means for liberation as well as the attributes of the goal which is Ishvara.
Shri Krishna says that liberation is obtained through single- pointed devotion to Ishvara. Single- pointed devotion was covered in chapter six. However, here it is meant to include not just devotion but also karma yoga. If the karma yoga aspect is missing, our vaasanaas or latent desires will remain unfulfilled, pulling us back into the cycle of rebirth so that they will be fulfilled.
So, Shri Krishna says; God is present everywhere. The same Supreme Lord who resides in the spiritual sky in His divine abode, at the same time, is seated in the hearts of every living creature. He is all- pervading and present in every atom of the material world. It is not that He is a hundred percent God in His personal form and ten percent when He is in our hearts or anywhere else in the material world. God exists a hundred percent in all His forms. Due to our ignorance, we are unable to recognize His presence within us or all around us.
Now, what is Ishvara’s connection to creation and dissolution? Ultimately, Ishvara is the cause of all creation. But he is not someone who stands outside his creation. The classic example referenced in this context is that of the potter and the pot. The potter creates the pot out of clay, but remains outside the pot, distinct from the pot. Ishvara is not like that. He is like the ocean that creates waves. The waves are pervaded by the ocean and are also included in the ocean. So is the case with Ishvara. Therefore, Ishvara is everywhere (beyond space) and ever present (beyond time).
Thus, both saguṇa and nirguṇa aspects are told, here in Him alone all the beings rests and by this consciousness the whole creation is pervaded; because if you talk about the existence of anything; consciousness must be present there.
Krishna himself feels that many people feel that this is too high a subject matter, which goes many feet beyond the head. So, Krishna says ananyayā bhaktyā labhyaḥ. You can to nirguṇam brahma; by your Niṣkāma bhakthi; once you understand that alone is the ultimate goal, because anything else falls within what time and space and therefore mortality; once you have understood tyranny of time, and once you have sincerely voted for the timeless Brahman, you are called a Niṣkāma bhaktha; or a mumukṣu; And with this sincere desire, you continue your saguṇa bhakthi; sooner or later, you will get the qualifications required for that nirguṇa bhakthi; therefore he says ananyaya bhaktya; Niṣkāma bhakthya; saḥ puruṣaḥ labhyaḥ; that Brahman is attainable.
Chaitanya Mahaprabhu very nicely said: “Although karma, jnana, and ashtanga yoga are also pathways to God- realization, all these require the support of bhakti for their fulfillment.”
“One may practice ashtanga yoga, engage in austerities, accumulate knowledge, and develop detachment. Yet, without devotion, one will never attain God.”
Having conclude the topic of liberation, Shri Krishna begins the last topic of this chapter in the next shloka. He describes the two paths that seekers have to travel through after they pass away.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जीव के चार पुरुषार्थ बताए गए है: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन सभी पुरुषार्थ में जीव का अंतिम लक्ष्य मुक्ति है अर्थात जिस के बाद पुनः जन्म – मरण का चक्र नही रहे। अतः पाप और पुण्य के फलों को भोगने के चौदह लोक बताए गए जिस में स्वर्ग से ले कर ब्रह्म लोक सभी सीमित अर्थ में मुक्ति का मार्ग है। संपूर्ण मुक्ति उसी अव्यक्त ब्रह्म में विलीन होना है, जिस के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। इसलिए पूर्व के श्लोक में अव्यक्त अक्षर ब्रह्म को हम ने पढ़ा और अब मुक्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण क्या कहते है, पढ़ते है।
परमात्मा ने स्वयं के स्वरूप को समझाते हुए अभी तक बताया। जिसे अनन्या भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता है वो ही श्रेष्ठ पुरुष है, जिस के अंतर्गत सम्पूर्ण जड़ और चेतन भूत है और जिस के द्वारा यह संसार फैला हुआ है। क्षर एवम अक्षर से श्रेष्ठ होने के कारण भगवान पुरुषोत्तम कहे जाते है। क्षर बद्ध जीव को कहते है और अक्षर मुक्त आत्मा को कहते है। भगवान बद्धात्मा और मुक्तात्मा से श्रेष्ठ है।
मैं बद्ध आत्मा से अतीत हूँ एवम अक्षर मुक्त आत्मा से भी उत्तम हूँ इसलिये श्रुति एवम स्मृति में मैं ही पुरुषोत्तम कहलाता हूँ।
सात्त्विक राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं पर मैं उन में हूँ और वे मेरे में नहीं हैं। परमात्मा के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और परमात्मा सम्पूर्ण संसार में परिपूर्ण हैं। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे सिवाय किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सब मेरे से ही उत्पन्न होते हैं मेरे में ही स्थित रहते हैं और मेरे में ही लीन होते हैं अतः सब कुछ मैं ही हुआ। वे परमात्मा सर्वोपरि होने पर भी सब में व्याप्त हैं अर्थात् वे परमात्मा सब जगह हैं सब समय में हैं सम्पूर्ण वस्तुओं में हैं सम्पूर्ण क्रियाओं में हैं और सम्पूर्ण प्राणियों में हैं। ऐसे ही संसार के पहले भी परमात्मा थे संसार रूप से भी परमात्मा ही हैं और संसार का अन्त होने पर भी परमात्मा ही रहेंगे।
सागर में लहर उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है। प्रत्येक लहर में सागर है किंतु सागर लहर नहीं है। इसी भाव को अव्यक्त ब्रह्म में हम कहते है कि सृष्टि के प्रत्येक कण में परमात्मा है किंतु कोई भी कण परमात्मा नही है।
इस तथ्य को जानना जितना सरल लगता है, उसे प्राप्त करना उतना ही दुर्लभ है। क्योंकि अव्यक्त ब्रह्म की स्थिति में जीव के पास महंत, बुद्धि और मन कुछ भी नही रहता, वह एक विशुद्ध आत्मा मात्र है। इसलिए किसी भी ज्ञानी को इस स्थिति में अनन्य भक्ति के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। अनन्य भक्ति का अर्थ ही है, जहां भक्त और भगवान में कोई भी अन्य न हो। अनन्य भक्ति का मार्ग निष्काम कर्म योग से जुड़ा है, क्योंकि जब तक कामना और आसक्ति रहती है, तो अनन्य भक्ति हो ही नही सकती। जीव अपने प्रारब्ध के कर्मों को भोगता ही है और कर्म जीव की अनिवार्यता भी है, इसलिए कर्मयोगी ही अनन्य भक्ति के मार्ग में अक्षर ब्रह्म को प्राप्त हो सकता है।
ऐसा वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्ति से प्राप्त होता है।परमात्मा के सिवाय प्रकृति का यावन्मात्र कार्य अन्य कहा जाता है। जो उस अन्य की स्वतन्त्र सत्ता मानकर उस को आदर देता है महत्त्व देता है उस की अनन्य भक्ति नहीं है। इस से परमात्मा की प्राप्ति में देरी लगती है।
अनन्या भक्ति से जिसे प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञानी एवम भक्ति दोनों ही अनन्या है क्योंकि ज्ञानी भगवान की आत्मा है और भक्ति भी भगवान की आत्मा को प्रिय है। ज्ञानी भी बिना भक्ति के पूर्ण नही। अतः निर्गुणकार या गुणाकार अर्थात ज्ञानी एवम भक्ति दोनों ही परमात्मा के सनातन स्थान को अनन्या भक्ति द्वारा प्राप्त करने के अधिकारी है।
उपासनाओं की जितनी गतियाँ हैं वे सब मेरे स्वरूप के अन्तर्गत आ जाती हैं। ऐसा वह मेरा सर्वोपरि स्वरूप केवल मेरे परायण होने से अर्थात् अनन्यभक्ति से प्राप्त हो जाता है। मेरा स्वरूप प्राप्त होने पर फिर साधक की न तो अन्य स्वरूपों की तरफ वृत्ति जाती है और न उनकी आवश्यकता ही रहती है। उसकी वृत्ति केवल मेरे स्वरूप की तरफ ही रहती है। इस प्रकार ब्रह्माजीके लोक से मेरा लोक विलक्षण है ब्रह्माजी के स्वरूप से मेरा स्वरूप विलक्षण है और ब्रह्मलोक की गति से मेरे लोक(धाम) की गति विलक्षण है। तात्पर्य है कि सब प्राणियों का अन्तिम ध्येय मैं ही हूँ और सब मेरे ही अन्तर्गत हैं।
भगवान ने अनन्य भक्ति की बात उस को प्राप्त करने के लिये कही है, ज्ञान लक्षणा भक्ति का नाम ही अनन्य भक्ति है, इस ज्ञान के अपरोक्ष द्वारा ही वह पाने योग्य है। नित्य पारमार्थिक सत्य से प्रेम ही वह साधन है जिसके द्वारा मिथ्या वस्तु से वैराग्य होता है। प्रखर जिज्ञासा से अनुप्राणित हुई आत्मतत्त्व की खोज और फिर उसके साथ एकत्त्व की यह अनुभूति कि यह आत्मा मैं हूँ अनन्य भक्ति है जिसके विषय में यहाँ बताया गया है।ध्यानावस्थित मन के द्वारा जिस आत्मा की अनुभूति स्वस्वरूप के रूप में होती है उसे कोई परिच्छिन्न चेतन तत्त्व नहीं समझना चाहिए जो केवल एक व्यष्टि उपाधि में ही स्थित उसे चेतनता प्रदान कर रहा हो। जो पुरुष आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेता है वह यह समझ लेता है कि इस नानाविध सृष्टि का एक ही अधिष्ठान है जिसके अज्ञान से ही इस जगत् का प्रत्यक्ष हो रहा है। जीव अज्ञान के वश इसे ही सत्य समझ कर संसार के मिथ्या दुःखों से पीड़ित रहता है। इसलिये वो परमात्मा का नित्य स्मरण अनन्य भक्ति भाव से करते हुए उस से और केवल मात्र उस से जुड़ जाता है।
इहलोक से ब्रह्मलोक की वास्तिवकता का ज्ञान देने के बाद मुक्ति हम किसे कह सकते है, तो वह पुनरावृति से मुक्ति ही है, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि का जीवन चक्र है, वह उन को अपने अंदर समेटे हुए है किंतु फिर भी सम्पूर्ण सृष्टि नही है, जो सनातन है, नित्य है, अविनाशी और समस्त विकारों से परे है, जब तक जीव का उस मे विलय न हो तब तक मुक्ति नही है। निष्काम कर्मयोग से ज्ञान, ज्ञान से ओंकार की ब्रह्मरूप उपासना और अपने अहम का परब्रह्म में लीन होना ही अनन्य भक्ति का स्वरूप है। इस प्रकार की अनन्य भक्ति के अभाव में सिर्फ तत्वज्ञान से पुनरावृति का न होना संभव नही है।
“शुद्ध चित्तवाले मुमुक्षुओं का एकसत्स्वरूप ब्रह्म के साथ जो एकत्व अर्थात भेदरहित दर्शन है , वह ब्रह्मस्वरूप से स्थितिरूप मुक्ति का निष्कण्क मार्ग है।।”
सोलहवें श्लोक में भगवान् ने बताया कि ब्रह्मलोक तक को प्राप्त होने वाले लौटकर आते हैं और मेरे को प्राप्त होने वाले लौट कर नहीं आते। परंतु किस मार्ग से जाने वाले लौट कर नहीं आते और किस मार्ग से जानेवाले लौट कर आते हैं, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 8.22।।
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