।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.19 II
।। अध्याय 08.19 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.19॥
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥
“bhūta-grāmaḥ sa evāyaḿ,
bhūtvā bhūtvā pralīyate..।
rātry-āgame ‘vaśaḥ pārtha,
prabhavaty ahar-āgame”..।।
भावार्थ:
हे पृथापुत्र! वही यह समस्त जीवों का समूह बार-बार उत्पन्न और विलीन होता रहता है, ब्रह्मा की रात्रि के आने पर विलीन हो जाता है और दिन के आने पर स्वत: ही प्रकट हो जाता है। (१९)
Meaning:
That (same) collection of beings, which was created repeatedly, helplessly dissolves during the night, O Paartha, and is (again) created during the day.
Explanation:
From the 15th verse of this 8th chapter, up to 22nd verse Lord Krishna is comparing two forms of human goals. One attainable through karma; varieties of actions, loukika and vaidika. Scriptural and non-scriptural; secular and religious activities. They can give one set of results and the other type of goal attainable through Niṣkāma upāsana.
And Krishna wants to point out that karma phalam is finite and upāsana phalam is infinite. We are making a comparative study between karma and upāsana And Krishna wants to establish that if one has to choose between karma phalam and upāsana phalam, upāsana phalam is superior to karma phalam. Therefore, here we should remember, Niṣkāma upāsana phalam as krama mukthi or Īśvara prāpthi; Īśvara or Lord comes under infinite result.
While talking about the finite of karma phalam or material results, he is taking up the highest goal possible, within time and space. The highest goal possible within time and space he wants to study, and he wants to point out that even that highest goal happens to be finite in nature. And what is that Brahma lōkā prāpthiḥ; or getting the post of Brahmāji; and Krishna accepts that Brahmā has got a very very long life; I admit. But he wants to point out later, that even the longest life will end one day, therefore it comes under parichinna phalam only. For this purpose, He talks about the duration of Brahmāji’s life.
Previously, we learned about the process of cosmic creation, where all the living and non- living beings in the universe become manifest at the beginning of the day of Brahma. Now, Shri Krishna elaborates on the dissolution aspect. He says that all those beings go into an unmanifest or “frozen” state during the night of Lord Brahma. The very same beings become manifest or “un-frozen” again, when the day of Lord Brahma begins.
As we saw earlier, nothing is ever created or destroyed. The very same set of beings becomes manifest and unmanifest. The total number of “beings” in the universe remains the same. Those who die are “born” into a different form. Forms change but the total amount of universal “stuff” remains the same. It is said that there are 8.4 million species, which are nothing but forms. The movie ends, the reel is rewound, and it begins all over again, on and on, without any end in sight.
Now, here is one word in this shloka that deserves further attention. It is “avashaha” which means helplessly. Shri Krishna says that all beings, even if they are plants, animals, minerals or humans are helplessly stuck in this wheel of birth and rebirth, otherwise known as the wheel of samsaara. If they do not actively pursue a spiritual path, whatever that path may be, they will never come out of this cycle.
Most of us get frustrated if we get stuck in an elevator for more than a few minutes. Imagine how frustrated we should get if we find out that we are stuck somewhere for an infinite amount of time. So how exactly do we escape from this situation? We shall see in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अध्याय 8 में श्लोक 15 से 22 तक हम कर्म फल मुक्ति और जीव मुक्ति को समझ रहे है। इसलिए पूर्व में जो सांख्य, ज्ञान, कर्म, भक्ति योग की बाते कही गई थी, उस के परिणाम को समझना भी चाहिए।
प्रकृति का विस्तार 14 लोकों में ब्रह्म लोक तक है, इसलिए मृत्यु के पश्चात यदि जीव स्वर्ग से ब्रह्म लोक कही भी जाए, उसे काल और स्थान के अनुसार अपने कर्म फलों से मुक्ति हेतु पुनः इस मृत्यु लोक में आना होता है। किंतु कर्म फलों से मुक्ति होने से जन्म – मरण के लिए ब्रह्म लोक में इतना अधिक समय मिलता है कि जीव जीवमुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मा दिन में सृजन कार्य करते है और रात्रि में विश्राम। यह ही इस ब्रह्मलोक का रहस्य है। इस से उत्पन्न ऐश्वर्यगामी, भोग, भोगोपकरण और भोगस्थान से कभी न कभी नष्ट हो जाते है। ब्रह्मा, इंद्रलोक, आदि भोग स्थान है, शरीर भोगोपकरण है और उस के साथ सुख भोगना भोग है।
अनादिकाल से जन्म मरण के चक्कर में पड़ा हुआ यह प्राणि समुदाय वही है जो कि साक्षात् मेरा अंश मेरा स्वरूप है। मेरा सनातन अंश होने से यह नित्य है। सर्ग और प्रलय तथा महासर्ग और महाप्रलय में भी यही था और आगे भी यही रहेगा। इस का न कभी अभाव हुआ है और न आगे कभी इस का अभाव होगा। तात्पर्य है कि यह अविनाशी है इस का कभी विनाश नहीं होता। परन्तु भूल से यह प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्राकृत पदार्थ (शरीर आदि) तो बदलते रहते हैं उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं पर यह उनके सम्बन्ध को पकड़े रहता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि सम्बन्धी (सांसारिकपदार्थ) तो नहीं रहते पर उन का सम्बन्ध रहता है क्योंकि उस सम्बन्ध को स्वयं ने पकड़ा है। अतः यह स्वयं जब तक उस सम्बन्ध को नहीं छोड़ता तब तक उस को दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। उस सम्बन्ध को छोड़ने में यह स्वतन्त्र है सबल है। वास्तव में यह उस सम्बन्ध को रखने में सदा परतन्त्र है क्योंकि वे पदार्थ तो हरदम बदलते रहते हैं पर यह नया नया सम्बन्ध पकड़ता रहता है।
वेदों में चार प्रकार की प्रलय का उल्लेख किया गया है-
नित्य प्रलय: हमारी चेतना की प्रतिदिन की प्रलय है तब आती है जब हम गहन निद्रा में होते हैं।
नैमित्तिक प्रलयः यह प्रलय महालोक तक के सभी लोकों में ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर आती है। उस समय इन लोकों में रहने वाली आत्माएँ अव्यक्त हो जाती हैं। वे प्रसुप्त जीवंत अवस्था में महा विष्णु के उदर में समा जाती हैं। जब ब्रह्मा इन लोकों की सृष्टि करते हैं तब वे अपने पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म लेती हैं।
महाप्रलयः ब्रह्मा के जीवनकाल की समाप्ति पर सभी ब्रह्माण्डों में होने वाले संहार को महाप्रलय कहा जाता है। उस समय ब्रह्माण्ड की सभी जीवात्माएँ महाविष्णु के उदर में प्रसुप्त जीवंत अवस्था में चली जाती हैं। उनके स्थूल और सूक्ष्म शरीर का विनाश हो जाता है और उनका कारण शरीर शेष रहता है। जब सृष्टि के अगले चक्र का सृजन होता है तब उनके कारण शरीर में संचित उनके कर्मों और संस्कारों के अनुसार उन्हें पुनः जन्म मिलता है।
अत्यांतिक प्रलयः जब आत्मा अंततः भगवान को प्राप्त कर लेती है तब वह सदा के लिए जीवन और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है। अत्यांतिक प्रलय माया के बंधनों का विनाश है जो आत्मा को नित्य बाँधे रखती थी।
अव्यक्त से इस प्रकार व्यक्त होना ही दर्शनशास्त्र की भाषा में सृष्टि है।सृष्टि की प्रक्रिया को इस प्रकार ठीक से समझ लेने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सृष्टि और प्रलय को भी हम सरलता से समझ सकेंगे। समष्टि मन (ब्रह्माजी) अपने सहस्युगावधि के दिन की जाग्रत् अवस्था में सम्पूर्ण अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है और रात्रि के आगमन पर भूतमात्र अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर विशेष बल देते हुये कहते हैं कि वही भूतग्राम पुनः पुनः अवश हुआ उत्पन्न और लीन होता है। अर्थात् प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इस कथन से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि किस प्रकार मनुष्य अपने ही विचारों एवं भावनाओं के बन्धन में आ जाता है ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कोई पशु प्रवृत्ति का व्यक्ति जो सतत विषयोपभोग का जीवन जीता है और अपनी वासना पूर्ति के लिए निर्मम और क्रूर कर्म करता है रातों रात सर्व शुभ गुण सम्पन्न व्यक्ति बन जाय।
यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक के कि ब्रह्मा के दिन के सृष्टिकाल में हर जीव अपनी अपनी आयु के अनुसार अपने कर्मो के फलो कीभोगता है एवम उस के अनुसार विभिन्न लोको से अपने पुण्य कर्मों के फल समाप्त होने पर जन्म लेता है। इस प्रकार ब्रह्मा के दिन में उस के अनेक जन्म-मरण के चक्र हो जाते है और यह चक्र चलता ही रहता है जब तक वो ब्रह्म लोक को प्राप्त न कर ले या फिर पूर्ण रूप से मुक्त हो कर परमात्मा में विलय हो जाये।
किन्तु पुण्य कर्मों से नित्य ब्रह्मलोकवास प्राप्त भी हो जाय, तो भी प्रलय काल मे ब्रह्मलोक ही का नाश हो जाने से फिर नए कल्प के आरंभ में प्राणियों का जन्म लेना नही छूटता।
ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष है उस के बाद महाप्रलय से ब्रह्मा का भी नाश हो जाता है किंतु इस के बाद भी पुनः ब्रह्मा का जन्म होता है और सृष्टि की रचना का कार्य शुरू हो जाता है।
यह कुछ कुछ ऐसा ही है सिनेमा हॉल में एक पिक्चर होने के बाद उसी को बार बार दिखाया जाता है और उस के मिटने के बाद दूसरी पिक्चर दिखाई जाती है। बार बार एक ही पिक्चर देखना प्रताड़ित करना लगता है वैसे ही अवश हो बार बार जन्म मरण लेना है।
आधुनिक युग मे यह सब बातें बेमानी सी लगती है, मनुष्य का अज्ञान का ज्ञान ही इस का प्रमुख कारण है, जिस के कारण वह संसार अपने होने और न होने तक ही सीमित रखता है। अनन्त वर्षो के ऋषियों के ब्रह्मांड के चिंतन हो, जब वह प्रमाण के आधार पर भौतिक विज्ञान से खोजता है, तो उसे मृत्यु से पहले और बाद की बाते, समझ मे नही आती, किन्तु जब संकट, तकलीफ या अंत आने लगता है, तो वह अपने जन्म की उपयोगिता एवम नष्ट किये समय को पहचान पाता है। आधुनिक विज्ञान भी इसी रहस्य को खोज रहा है। अफ्रीका में पाई जाने वाली लंगफिश के बारे में कई लोगो ने पढ़ा होगा जो पानी सूखने पर अपने आप को एक विशेष आवरण में ढक लेती है, फिर चाहे उस मिट्टी की, जिस में वह दफ़न है, दीवार भी क्यों न बना दी जाए, वह उस अवस्था में चार साल तक रह सकती है और जब भी वर्षा होती है, वह पुनः जीवित हो जाती है। इसलिए प्रलय में जीव बीज स्वरूप में रह जाता है और वापसी में पुनः प्रकट हो जाता है।
अनित्य संसार में जन्म-मरण के पुनरावृति का अनन्त दुष्चक्र एवम इस लोक से उस लोक में भटकने का वर्णन करके अब आगे के श्लोक में जीवों के प्रापणीय परमात्मा की महिमा का विशेष वर्णन पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।।8.19।।
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