।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.10 II
।। अध्याय 08.10 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.10॥
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
“prayāṇa-kāle manasācalena
bhaktyā yukto yoga-balena caiva
bhruvor madhye prāṇam āveśya samyak
sa taḿ paraḿ puruṣam upaiti divyam”
भावार्थ:
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है। (१०)
Meaning:
At the time of departure, endowed with devotion, an unwavering mind, as well as the power of yoga, fully establishing the praanaas in the centre of the eyebrows, he attains that supreme divine person.
Explanation:
The puraanaas contain several stories describing how people endowed with yogic powers could control their life force or their praana and force it out of the body. At the end of the Mahabharata, many people including Yudhishthira and Draupadi left their bodies using yogic powers. If we interpret this shloka literally, it describes how one can remember Ishvara’s form while voluntarily starting the process of departing the body.
We, of course, do not know anything about such techniques, nor do we wish to pursue it. So therefore, let us examine the symbolic meaning of this shloka. “Prayaana kale” literally means the time of departure or death. Symbolically, it signifies the death of the ego, or the end of our notion of finitude. Therefore, when we rid ourselves of selfish desires, likes and dislikes, and in doing so slay the ego, we automatically develop firm devotion or bhakti towards Ishvara.
The Vedic scriptures offer various spiritual paths so that based on the level of sadhana that we may have performed in our past lives, we may choose a suitable path. However, they simultaneously stress on bhakti or devotion to God that ties together all these paths in one common thread.
As our devotion increases, our mind’s tendency to jump from one thought to the other slows down, settling into the one thought of Ishvara. We can then meditate on the form of Ishvara as the supreme, divine person or parama purusha. All the energy that would normally have been wasted in selfish thinking and action is available to us now. We can channel this reservoir of energy towards meditation.
So therefore, if we use these instructions to develop the daily habit of meditating upon Ishvara, we will naturally and easily remember Ishvara when it is time for us to leave this world. The key thing, of course, is not to forcibly practice meditation, but to gradually ease into it as our level of devotion to Ishvara increases.
The Bhagavad Gita beautifully embraces varieties of sadhanas to cater to a large populace belonging to diverse backgrounds, upbringing, and natures. Bhakti involves focusing the mind upon God, in His various divine Forms, Qualities, Pastimes, etc. In its pure form, bhakti is called śhuddha bhakti. However, when undertaken along with ashtanga yoga, it is termed yog- miśhra bhakti or a fusion of devotion and ashtanga yoga sadhana.
Shree Krishna has described yog- miśhra bhakti from verse ten to thirteen. In the practice of ashtanga yoga, the life force or prān shakti is channelized through suṣhumṇā nādi of the spinal column and then raised toward the third eye region between the eyebrows. In this verse, He says that at the time of death, one who performs this with great devotion and complete focus on the Divine Lord will definitely achieve Him.
So at the end praṇa means this very life principle, the pañcha prāṇaḥ; he withdraws from every organ of the body, and he has to bring the praṇa to hṛdayam; and from the hṛdayam he has to direct the praṇa is directed through a special channel called suṣumnā nādi and the channel is supposed to open on the top of the head and that opening is called Brahma randram; Brahma randram means passage to brahma lōkā.
With this shloka, Shri Krishna concludes the topic of meditation on Ishvara’s form. The topic of meditation on Ishvara’s name is taken up next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व में हम ने योग के विषय में पढ़ा, अब 9-11 श्लोकों में उपनिषदों से लिये गये शब्द है जिस में अर्जुन के अंतिम प्रश्न का उत्तर निहित है कि अंतकाल में किस प्रकार देह त्याग कर के परमात्मा को कैसे प्राप्त करे। पूर्व श्लोक में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन उस को स्मरण करने के भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिया गया। अब मन- बुद्धि योग द्वारा देह त्याग को पढ़ते है।
जीव के प्रकृति स्वरूप अर्थात जीवात्मा और परब्रह्म में अंतर अहम द्वारा लिया गया, अज्ञान का है। जीव स्वयं को अज्ञान में अहम से कर्ता और भोक्ता मान लेता है। क्योंकि देह नश्वर है, इसलिये इस को नष्ट होना ही है, इसलिये प्रयाण काल मे यह अज्ञान दूर नही होता तो वह अपने संचित कर्मो एवम प्रारब्ध कर्मो के आधार पर प्राण छोड़ते समय जो भी कामना करता है, वही उस के अगले जन्म का सूत्र होता है। किंतु जिन का अज्ञान ध्यान एवम अभ्यास से मिट गया है जो निष्काम है, वह क्या करते हुए प्राण छोड़ता है, इस का वर्णन करते हुए भगवान कहते है।
अभ्यास योग से योगाभ्यास से उत्पन्न जो यथायोग्य प्राण संचालन और प्राण निरोध का सामर्थ्य है वो योगबल है। दोनों भृकुटि के मध्य आज्ञाचक्र है। यह आज्ञाचक्र द्विदल है, इस मे त्रिकोण योनि है जिस में अग्नि, सूर्य एवम चंद्र एकत्र होते है। इस आज्ञा चक्र में प्राणों का निरोध करना साधन सापेक्ष है। इस आज्ञाचक्र के समीप सप्त कोश है जिन्हें इंदु, बोधिनी, नाद, अर्धचंद्रिका, महानाद, (सोमसूर्यअग्निरूपणी) कला एवम उन्मनि कहते है। उन्मनि में जाने से जीव परम् पुरुष को प्राप्त होता है। जब मन अचल हो या स्थिर हो जाता है तो उसे नान्यगामी कहते है। पूर्व के अध्याय में ध्यान योग में हम ने इस सब का अभ्यास पढ़ा है, अतः इस स्थिति को प्राप्त करने के अभ्यास अत्यंत आवश्यक है।
पूर्वश्लोक में हम ने पढ़ा है ‘अंत मति सो गति’ अर्थात अंत समय जो मन मे रहेगा वो ही अगले जन्म का कारण होगा। ध्यान योगी का मूल अज्ञान कि वो प्रकृति के बंधन में ज्ञान द्वारा दग्ध नही होता इसलिये भगवान ने यहाँ ध्यान योगी के लिये प्रयाण काल ने अचल मन से ध्येयाकार वृति की विधि कथन की और भक्ति एवम योग उभय बल का प्रयोग बतलाया है। योग का फल प्राण निरोध है, प्राण निरोध से मन का निरोध होता है। भक्ति का फल प्रेम द्वारा ध्येय रूप में मन की संलग्नता है। इसलिये योगद्वारा अन्य ओर से मन का तोड़ना तथा भक्ति द्वारा ध्येय रूप में जोड़ना फल होने से दोनों में सफलता है।
इस प्रकार हृदय कमल में चित को स्थिर कर के, फिर ऊपर की ओर जाने वाली नाड़ी द्वारा भृकुटि के मध्य में प्राणों को स्थापन कर के,( प्राण-अपान को भली प्रकार सम कर के, न अंदर से उद्वेग पैदा हो न बाह्य संकल्प कोई लेने वाला हो, सत- रज- तम भली प्रकार से शांत हो, सूरत इष्ट में स्थित हो, उस काल मे) भली प्रकार सावधान हुआ वह योगी परमात्मा के कवि- पुराण इत्यादि स्वरूप का स्मरण करता हुआ दिव्य परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। जो इस प्रकार की शान्त अवस्था मे देह त्याग कर देता है, वही पूर्ण परब्रह्म की अवस्था होती है। जो मेरा स्वयंसिद्ध स्वरूप है वो वही तेजस्वरूप हो कर रहता है।
इसलिये भगवान का कथन है तू निरंतर मुझे स्मरण कर। उस तत्त्व में प्रियता (आकर्षण) होने से ही मन अचल होता है। यहाँ भक्ति शब्द से सामान्य संसारी जनों की व्यापारिक पद्धति की भक्ति नहीं समझनी चाहिए। ईश्वर के लिए वह परम प्रेम जिसमें न किसी प्रकार की कामना है और न अपेक्षा जो प्रेम केवल प्रेम के लिए ही है भक्ति कहलाता है। प्रेम का अर्थ है अपने प्रियतम से वह तादात्म्य जिसमें प्रियतम के सुख और दुःख अपने स्वयं के ही सुखदुःख अनुभव होते हैं। संक्षेप में प्रेमी और प्रेमिका भक्त और ईश्वर परस्पर एकरूप हो जाते हैं। वृंदावन में गोपियों के कृष्ण के प्रति एवम राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम भक्ति की इस श्रेणी में आता है। इसलिए श्री शंकराचार्य भक्ति का लक्षण बताते हैं स्वस्वरूपानुसन्धान भक्ति कहलाती है अर्थात् जीव का अपने सत्यस्वरूप के साथ एकत्व भक्ति है।
गीता का यह श्लोक भक्ति के महत्व को अष्टांग योग से जोड़ कर बता रहा है, ज्ञानी सन्यास योग में स्वयं को निर्गुणाकार परब्रह्म के स्तर तक ले जाने का अभ्यास करता है और भक्ति में भक्त स्वयं को सगुणाकार परमात्मा से जोड़ कर अपने अस्तित्व को विलीन करता है। इसलिए यह श्लोक योग मिश्रित भक्ति की ओर परमात्मा द्वारा मुक्ति के मार्ग को प्रदर्शित करता है।
प्रयाणकाल से अभिप्राय अहंकार की मृत्यु के क्षण से भी समझ सकते है ।आन्तरिक शान्ति के समय जब अहंकार की मृत्यु होती है तब साधक आत्मस्वरूप में स्थित होकर परम पुरुष से एकत्व भाव मे स्थित हो जाता है । ध्यान साधना के द्वारा जब सजग रह कर शरीर मन और बुद्धि से हुए तादात्म्य को पूर्णतया निवृत्त किया जाता है तब साधक आन्तरिक शान्ति के स्थिर क्षण का अनुभव करता है। उस समय निश्चल मन से इस श्लोक में उपदिष्ट साधना का उसे पालन करना चाहिए। जिस क्षण जीव का अहम और भोक्तभाव का त्याग हो जाता है और उसे अपने और प्रकृति के संबंध का ज्ञान हो जाता है वही उस का प्रयाण काल भी होता है क्योंकि फिर जो शरीर प्रकृति की क्रियाओं में लिप्त है भी निष्काम और निर्लिप्त है। जो प्राण प्रकृति के अनुसार शरीर का संचालन करता है वह बुद्धि से नियंत्रित हो कर कार्य करता है। इसलिए योगी को प्रकृति नियंत्रित नहीं करती।
गीता में विभिन्न मीमांसा में एक अर्थ इस श्लोक में ईश्वर में परानुरक्ति को भक्ति कहते हुए, कार्य कुशलता और समता को योग कहा है। जिस में ऐश्वर्य कामी भक्त अचल मन से ह्रदय से दोनो भ्रुवों के मध्य ध्यान को केंद्रित करते हुए भक्ति भाव से परमात्मा की उपासना करता है और परमात्मा के समान ईश्वर्य को प्राप्त करता है। यह अर्थ क्योंकि कामना रखने वाले भक्त के संदर्भ में कही गई है, जिन्हें स्वर्ग आदि लोक की प्राप्ति होती है।
अगले के श्लोक में निर्गुण निराकार परब्रह्म की प्राप्ति के उपाय का उपक्रम पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 8.10।।
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