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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.07 II

।। अध्याय     08.07 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥

“tasmāt sarveṣu kāleṣu,

mām anusmara yudhya ca..।

mayy arpita- mano- buddhir,

mām evaiṣyasy asaḿśayaḥ”..।।

भावार्थ: 

इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा। (७)

Meaning:

Therefore, remember me at all times and fight. One who offers his mind and intellect to me attains me only, without a doubt.

Explanation:

The essence of the teachings of the Bhagavad Gita is in the first line of this verse. Shri Krishna gives the ultimate teaching to all of mankind in this shloka. Since the thought at the time of death determines our fate after death, and the thought of death is an outcome of our lifelong thinking, Shri Krishna instructs us to remember Ishvara at all times and perform our duties.

It has the power to make your life divine. It reiterates the definition of karma yoga and applies to people from all walks of life. Shree Krishna says to Arjun, “Do your duty with your body, and keep your mind attached to Me.” As a warrior, Arjun must fight; that is his duty. However, the Lord says to Arjun that even in the middle of a battle, one should remember God. The same message is for everyone— be it farmers, engineers, doctors, students, homemakers, or any other professional.

Let us examine this instruction further. We are not asked to give up our duties, retire to a forest and constantly think of Ishvara there. Shri Krishna wants us to first remember Ishvara, and then perform duty consistent with our svadharma. The result of leading such a life is that we will attain Ishvara certainly. There is no doubt in this matter.

With this instruction, meditation takes on a whole new dimension. Typically, we confine meditation to something that we do for fifteen to thirty minutes, sitting in a solitary place as instructed in the sixth chapter. We now realize that those instructions were meant to prepare us for the kind of meditation that Shri Krishna wants us to pursue: 24/7 meditation of Ishvara.

He says that in karma yoga, there are only two conditions:

1) While doing any work, the mind should always be thinking of God.

2) The remembrance of God should be constant throughout the day and not intermittent.

How can this be possible? Our mind can only think of one thought at a time. So the way to meditate continuously is to somehow understand that everything we see, do and know is Ishvara.

The conscious mind cannot do two jobs simultaneously; the conscious mind cannot do two jobs simultaneously. It has to be committed to one thing only; but even when the conscious mind is dedicated to some work, in the sub- conscious mind, in the background, we should be clear about the ultimate priorities of life.

So what Krishna wants to say here is: Let in the background, your goal be very much remembered. Therefore, the sub- conscious can have īśvara chintha and the conscious can perform the worldly duties and when you have time away from worldly duties, at that time, your conscious mind also.

Now we understand why Shri Krishna defined the terms brahma, karma, adhibhuta, adhideva, adhyaatma, adhiyagnya at the beginning of the chapter, because all those are nothing but Ishvara. If, while performing any action, we know that the actor, the action, the instrument, the process and the result – everything is Ishvara – we will never forget Ishvara.

Even if this kind of thinking is not possible for us in the beginning, we can emulate the mind of a mother who, regardless of what she is doing, always thinks about her child in the background. By practising meditation on our favourite deity, we develop an attachment to it, so that we can recall it every time we feel distant from Ishvara.

So therefore, by practicing meditation constantly on Ishvara, we should strive to change our thinking such that our final thought will be nothing but Ishvara. This constant meditation upon Ishvara is called upaasanaa.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक ईश्वर के प्रति कर्मयोगी या किसी भी योगी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के  साथ स्मरण और समर्पण को सही मायने में परिभाषित करता है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते कि तू मुझे स्मरण करते हुए युद्ध कर। मन- बुद्धि से भगवान से अर्पित हो कर युद्ध करने से उन को ही प्राप्त होगा। यहाँ स्मरण करते हुए युद्ध का अर्थ ‘ हरे कृष्णा या जय कन्हैया लाल की बोलते हुए तीर चलाना नही है।

परमात्मा स्मरण करते रहने का आदेश देते है तो हमे स्मरण को भी जानना आवश्यक है। स्मरण तीन प्रकार से हो सकता है 1) बोधगम्य- जैसे मिट्टी के घड़े में पानी भरने की बजाय यदि उसे पानी मे ही उतार दे तो सर्वत्र पानी रह जायेगा। ऐसे में मटका फूट भी गया तो भी पानी ही रह जायेगा। बोधगम्य स्वयं को परमात्मा के चिंतन में पूर्ण उतारने जैसा है। 2) संबंध जन्य – जब तक हम किसी के साथ जुड़े है तब तक ही स्मरण रहे तो संबंध जन्य। 3) क्रियाजन्य संबंध – अभ्यास या कार्य करते समय कार्य की कुशलता इतनी अधिक होती है कि एक कार्य के साथ दूसरा कार्य भी संभव हो जाता है – जैसे रस्सी पर चलते हुए कोई नट बिना दवाब के बातचीत भी करता है और चलता भी। अर्थात काम के साथ स्मरण भी करते रहना।

इसी प्रकार स्मरण करते हुए क्रिया भी तीन प्रकार से कर सकते है। 1) क्रिया को महत्व देते हुए स्मरण को मुख्य न समझना । जिस से कभी कभी स्मरण क्रिया करते वक्त छूट भी जाये। 2) स्मरण को महत्व देते हुए क्रिया को करना जिस से हो सकता है क्रिया बिगड़ जाए। 3) क्रिया एवम स्मरण को परमात्मा का ही काम समझते हुए करना।

यहां प्रश्न यह भी है कि एक साथ स्मरण और कार्य वो भी युद्ध जैसा जिस में चूक का अर्थ मृत्यु हो, तो कैसे होगा? किसी कार्य के निपुर्णता से करने के सारा ध्यान और दक्षता कार्य पर केंद्रित रहती है।

हमे समझना होगा कि स्मरण के लिए जो हम हृदय में धारण कर लेते है और जो हमारा आचरण और स्वभाव बन जाता है, प्रर्याप्त होता है। इस से हम अपने मूल स्वरूप को हमेशा याद रखते है। क्रिया इन्द्रिय द्वारा होती है, इंद्रियां मन से संचालित है, मन बुद्धि से नियंत्रित है। अतः अभ्यास, पठन, चिंतन और परिश्रम से व्यक्ति जो भी कार्य करना चाहता है, वह लक्ष्य साधकर, कर सकता है। इस के लिये सकाम कर्म करने से राग- द्वेष होगा जिस से अन्य दुर्गुण उत्पन्न होंगे, किन्तु निष्काम अपना कर्तव्य धर्म करने से राग- द्वेष से बचा जा सकता है। अतः जिस के ह्रदय में राग-द्वेष की बजाय परमात्मा विराजमान हो जाये, वह युद्ध जैसी एकाग्रता, कठिन अभ्यास- परिश्रम और निपुणता जैसा कार्य भी परमात्मा को स्मरण करते हुए कर सकता है। व्यवहार में उच्च पढ़ाई, उच्च पद, उच्च कोटि का व्यापार आदि व्यक्ति को खूब लगन, मेहनत, कुशलता और अभ्यास से करते रहना चाहिए, किन्तु राग-द्वेष से परे, निष्काम होने से यह कार्य सफल होगा, इस मे कोई संदेह नही, सफलता का माप-दंड भी परमात्मा ही तय करे, इस के लिए उन को ह्रदय में बसा कर काम करना चाहिये।  फिर आप को न तो व्यापार या नौकरी छोड़ कर, परिवार छोड़कर बाबा जी बनना है और न ही किसी भजन मंडली में जा कर भजन करते रहना है, आप जो करते है उसे और अधिक निपुणता और परिश्रम से करते रहे। भक्त हनुमान के ह्रदय में राम बसते थे, इसलिये वह बड़े से बड़ा काम सरलता से बिना अभिमान के करते थे। अतः स्मरण करते हुए युद्ध जैसे निपुण कार्य को छोड़ने की सलाह भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को नही दे रहे। यह सनातन ज्ञान प्रत्येक जीव के लिए है, चाहे वह कोई भी कार्य  करता हो। जिन संचित और प्रारब्ध कर्मो को भोगने हेतु मनुष्य का जन्म हुआ है, उसे करे बिना भी मुक्ति नही मिलती। जीव साक्षी है, क्रियाए प्रकृति करती है, वह निमित्त है, परमात्मा ही सब करता है, यह भाव रख कर स्मरण करते हुए, अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने की भगवान की ही है। जिन के  हृदय में राम बसते हो, वह आसुरी वृति का कार्य भी नही कर सकता।

अतः किसी कार्य को करने के दक्षता, एकाग्रता, निपुर्णता, अभ्यास, श्रम, साधन, स्थान और समय सभी प्रकृति अर्थात मन, बुद्धि, इंद्रियों और शरीर के साथ उपलब्ध स्थान, साधन और समय का विषय है। और परमात्मा का संबंध अंतर्मन अर्थात हृदय में परमात्मा के चिंतन का है जो हमे हमारे स्वरूप को भूलने नही देता। इसी से हम लक्ष्य भी निर्धारित करते है और अपने स्वरूप ज्ञान रखते है। अतः भगवान का स्मरण हमे हमारे ब्रह्म स्वरूप के अंश होने का याद दिलाता रहना चाहिए, कि हमारा लक्ष्य मोक्ष है।

मोक्ष तो परमेश्वर की ज्ञान युक्त भक्ति से मिलता है । यह निर्विवाद है कि मरण के समय मे भी उसी भक्ति में स्थिर रहने के जन्म भर उस का अभ्यास करना चाहिए। किन्तु गीता कर्मयोग है इसलिये गीता कभी भी और कही भी कर्मो को त्याग करने को नही कहती। वेद और उपनिषदों में भी मुक्ति के कर्म त्याग की बात नही लिखी है। राजा जनक की दीक्षा के उपरांत उन्हें कर्म में बने रहने की सलाह दी गई थी। गीता का सिंद्धान्त है कि भगवत भक्त को स्वधर्म के अनुसार जो भी कर्म करने के लिये समय प्रदान करता है, उन सब को निष्काम बुद्धि से कर्तव्य समझ कर करते रहना चाहिये।

भगवान ने पहले भी कहा है कि तू सर्व काल मे मुझ सर्व साक्षी सर्वात्मा का चिन्तन कर जिस से कर्तृत्व एवम भोक्तव भाव से मुक्त हो। यह कदापि न सोचें कि मै यह कार्य कर रहा हूँ। हमेशा यह ही विचार रखे कि ईश्वर ने आप को इस कार्य के लिये निमित किया है।अपने कर्तव्य का पालन के लिये यह अनिच्छित प्राप्त स्वधर्म में स्वाभाविक प्रवृति अखंड रूप से बन जाये कि मै कुछ भी करने वाला नहीं हूँ। यह सब मेरे ही आत्मस्वरूप के चमत्कार है और आभास की तरंग मात्र है। यह आभास मे मैं कार्य करता हुआ चमक या दमक अवश्य रहा हूँ किन्तु मेरे स्वरूप में इन आभासों की न कोई उत्पत्ति है न नाश, न कुछ हुआ है और न ही होगा।

अर्जुन की दृष्टिकोण से युद्ध में अर्जुन को सोचना है कि न मैं इन सब बंधु बांधव और शत्रु को मारने वाला हूँ एवम न ही मेरे द्वारा यह दुर्योधन, भीष्म आदि मरने वाले है। जो भी क्रिया हो रही है वह प्रकृति द्वारा मुझे निमित्त बना कर हो रही है। मुझे अपने वर्ण के अनुसार कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए, समर्पित भाव से युद्ध करना है और इस के परिणाम के विषय में भी अर्थात युद्ध से मुझे क्या लाभ या हानि होगी, नही विचार करना है। अपने अहम एवम मोह को त्याग कर मन एवम बुद्धि से भगवान का स्मरण करते हुए सिर्फ युद्ध करना है।

कर्ता बुद्धि बनाये रखकर मन-बुद्धि से भगवान को अर्पण यथार्थ में अर्पण नही है क्योंकि यह भाव मय है, अन्तःकरण की शुद्धि मात्र है, भगवद प्राप्ति नही, अवास्तविक भी है। भगवान का यह कथन कि हे अर्जुन तू सर्वकाल में मुझे स्मरण करते हुआ अपने कर्तव्य पालन को करते हुए युद्ध कर, जिस से तू मुझे प्राप्त होगा। हमे उस ज्ञान स्वरूप स्मरणपन को जानना होगा।

आज व्यवहारिक जगत में हमे अपने कार्य करने की पद्धिति में मार्गदर्शन देता है कि हम जो कर रहे है उस को करते हुए भी सदा भगवान का स्मरण करें। इस के कबीर की कुछ पंक्तियां भी हम पढ़ते है। जिन का अपने आप में कितना महत्व है, पहले हम सब ने कभी नहीं सोचा होगा।

सुमिरन की सुधि यों  करो ,ज्यों गागर पनिहारी

बोलत  डोलत सुरति में ,कहे कबीर विचारि।

राजा राना राव रंक, बङो जु सुमिरै नाम।

कहैं कबीर सबसों बङा, जो सुमिरै निहकाम॥

सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।

निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम॥

जप तप संजम साधना, सब कछु सुमिरन मांहि।

कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नांहि॥

ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।

सतगुरू ने तो यों कहा, सुमिरन करो बनाय॥

कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।

आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल॥

कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्रान जाहिंगे छूट।

घर के प्यारे आदमी, चलते लेंगे लूट॥

कबीर चित चंचल भया, चहुँदिस लागी लाय।

गुरू सुमिरन हाथे घङा, लीजै बेगि बुझाय॥

कबीर मेरी सुमिरनी, रसना ऊपर राम।

आदि जुगादि भक्ति है, सबका निज बिसराम॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं सुरभी सुत मांहि।

कहै कबीरा चारा चरत, बिसरत कबहूं नांहि॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे दाम कंगाल।

कहैं कबीर बिसरै नहीं, पल पल लेत संभाल॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे नाद कुरंग।

कहैं कबीर बिसरै नहीं, प्रान तजै तिहि संग॥

सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यौं सुई में डोर।

कहैं कबीर छूटै नही, चलै ओर की ओर॥

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।

कबीर बिसारे आपको, होय जाय तिहि रंग॥

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग॥

प्रान तजै छिन एक में, जरत न मोरै अंग॥

हम ने स्थिरचित्त योगी का वर्णन पढ़ा है। जिन स्थिरचित्त योगियों की बुद्धि का ज्ञान द्वारा उस सूक्ष्म तत्व में प्रवेश नही हुआ है उन के निर्गुण ध्यान द्वारा क्रम मुक्ति का वर्णन हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 8.07।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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