।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.05 II
।। अध्याय 08.05 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.5॥
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥
“anta-kāle ca mām eva,
smaran muktvā kalevaram..।
yaḥ prayāti sa mad-bhāvaḿ,
yāti nāsty atra saḿśayaḥ”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य जीवन के अंत समय में मेरा ही स्मरण करता हुआ शारीरिक बन्धन से मुक्त होता है, वह मेरे ही भाव को अर्थात मुझको ही प्राप्त होता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। (५)
Meaning:
One who, even during the time of departure, abandons his body while remembering me, he achieves my true nature, in this matter there is no doubt.
Explanation:
In the previous two verses, 3 and 4, Krishna answered all the six questions very briefly. And now Krishna wants to answer the seventh question very elaborately. In fact, the rest of the chapter beginning from verse No.5 up to the last verse No.28, Krishna is answering the seventh question; for six questions two verses; and for one question five to 28; 24 verses; both inclusive; do not ask how 24; because by way of answering this question, Krishna wants to introduce an important topic I said.
The remainder of this chapter is the answer to the fundamental questions raised by Arjuna: “How does one attain Ishvara at the time of death?” Having addressed all the other questions, Shri Krishna begins to answer that most important question in this shloka. He says that only the one who remembers Ishvara at the time of death will attain Ishvara.
We now have a definite “action item” from Shri Krishna. He asserts that our final goal in life should be this: to remember Ishvara at the time of death. Shri Krishna assures it is so, because he says, “in this matter there is no doubt”. It is clearly spelled out for us.
He uses the words mad bhāvaṁ, which means “godlike nature.” Therefore, one can achieve the cherished goal of God-realization by consciously absorbing one’s mind in the transcendental Names, Forms, Virtues, Pastimes, and Abodes of God, even at the time of death.
At first glance, it may seem straightforward. All we have to do is to remember Ishvara at the time of death. But it is not so. In most cases, we may not know when we die. We could die in an accident. We could have lost our mental faculties. Our attachment towards our family will occupy our minds. There are so many factors that will prevent us from remembering Ishvara only at the time of death.
It is one’s state of consciousness and the object of their absorption at the time of death; that determines their next birth. Shree Krishna will explain this principle in the next verse.
So then, how do we get around this problem? Shri Krishna addresses it shortly. First, he explains why our thought at the time of death is so important.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन के सातवें प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते कि जो पुरुष अन्तकाल में – मरण काल में मुझ परमेश्वर – विष्णु का ही स्मरण करता हुआ शरीर, छोड़कर जाता है वह मेरे भाव को अर्थात् विष्णु के परम तत्त्व को प्राप्त होता है। इस विषय में प्राप्त होता है या नहीं ऐसा कोई संशय नहीं है। वस्तुतः इस का अर्थ मात्र प्रयाण काल मे ही स्मरण करने तक सीमित नही है, वरन अंतकाल तक स्मरण करना है। दो घण्टे भजन करने के बाद दुकान खोल के व्यापार करते हुए छल कपट करना या छद्मवेश में भगवान का स्मरण करना, कोई भक्ति का भाव नही है।
ज्ञानी भक्त के अतिरिक्त तीन प्रकार् के भक्त जो कामना के साथ, आर्त हो कर या जिज्ञासा वश परमात्मा की आराधना करते है, उन के लिए परमात्मा का कहना है जो जिस भाव से और जिस रूप में मुझे पूजते है, मैं उन की उसी देवता से कामना की पूर्ति करता हूँ। इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चेतन मिला कर जीव का स्वभाव ही अध्यात्म है, अधियज्ञ स्वरूप में परमात्मा ही जीव में निवास करता है, अतः अंत समय मे जिस भाव, कामना, आसक्ति से जीव शरीर त्यागता है, परमात्मा उसी के अनुरूप उस को नया शरीर प्रदान कर देता है।
यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि स्मरण को मदभाव अर्थात परमात्मा के भाव में करने की कहा है। जब प्रयाण काल में स्मरण करते हुए भी कोई कामना या आसक्ति हो और ब्रह्म के भाव में स्मरण न हो तो पुनः जन्म भी कामना या आसक्ति से अनुसार मिलेगा। कुछ लोक अज्ञान में मुक्ति को स्वर्ग, वैकुंठ या ब्रह्म लोक को मान लेते है। किंतु जब परमब्रह्म के अतिरिक्त सभी नश्वर और परिवर्तनशील है तो स्वर्ग, वैकुंठ या ब्रह्म में भी निवास कर्म मुक्ति हो सकता है किंतु जीवमुक्ति नही। जीव मुक्ति के लिए प्रयाण काल में स्मरण परब्रह्म के मदभाव में होना आवश्यक है।
देह से विलग होने के समय जीव के मन में उस विषय के सम्बन्ध में विचार होंगे जिसके लिए वह प्रबल इच्छा या महत्वाकांक्षा रखता था चाहे वह इच्छा किसी भी जन्म में उत्पन्न हुई हो। इस प्रकार की मान्यता युक्तियुक्त है।शरीर का निधन शुद्ध अंत काल नहीं। मरने के बाद भी शरीर का क्रम पीछे लगा रहता है। संचित संस्कारों की सतह के मिट जाने के साथ ही मन का निरोध हो जाता है और वह मन भी जब विलीन हो जाता है तो वो ही अंतकाल है। क्योंकि अंत काल अनिश्चित है एवम अंतकाल में मन का निरुद्ध होना भी अनिश्चित है। फिर भी अंत काल मे भगवान का स्मरण हो जाये तो वो ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
मरण के पूर्व की जीव की यह अन्तिम प्रबल इच्छा उसकी भावी गति को निश्चित करती है। जो जीव अपने जीवन काल में केवल अहंकार और स्वार्थ का जीवन जीता रहा हो और देह के साथ तादात्म्य करके निम्न स्तर की कामनाओं को ही पूर्ण करने में व्यस्त रहा हो ऐसा जीव वैषयिक वासनाओं से युक्त होने के कारण ऐसे ही शरीर को धारण करेगा जिसमें उस की पाशविक प्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक सन्तुष्ट हो सकें। इस के विपरीत जब कोई साधक स्वविवेक से कामुक जीवन की व्यर्थता को पहचानता है और इस कारण स्वयं को उन बन्धनों से मुक्त करने के लिए आतुर हो उठता है तब देह त्याग के पश्चात् वह साधक निश्चित ही विकास की उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है। इसी युक्तियक्त एवं बुद्धिगम्य सिद्धांत के अनुसार वेदान्त यह घोषणा करता है कि मरणासन्न पुरुष की अन्तिम इच्छा उसके भावी शरीर तथा वातावरण को निश्चित करती है।
यहां यह कहना भी सही होगा कि अंतकाल में भी यदि परमात्मा का ध्यान हो जाये तो भी जीवन भर के कर्मो से मुक्ति संभव है अर्थात परमात्मा की कृपा कभी भी जीव के लिये कम नही है, यह तो जीव है कि उसे कब परमात्मा को प्राप्त करना है। परमात्मा का तो एक ही भाव है, शरणागत एवम प्रेम। जो भी जब भी उस की शरण गया उसे मुक्ति मिलना ही है। उसे परमात्मा की शरण अंतकाल तक निभानी है।
यही कारण हिन्दू धर्म मे मरने वाले व्यक्ति को गीता पाठ या भगवान का भजन सुनाया जाता है, उस के सम्मुख भगवान का चित्र रखा जाता है। मुख में गंगा जल एवम तुलसी दी जाती है। कैसे भी अंत समय मे भगवान का स्मरण हो, मन का निरुद्ध हो और जीव को जन्म मरण से मुक्ति मिले इस का ध्यान रखना पड़ता है।
व्यवहारिक और वैज्ञानिक तथ्य भी यही है कि आसक्ति और कामना, मोह और ममता की तरंग यदि मृत्यु के समय अर्थात पंच महाभूत शरीर के त्याग के समय रहती है तो तरंग सूक्ष्म शरीर के साथ जुड़ जाती है और सूक्ष्म शरीर को उस कामना या आसक्ति, मोह या ममता के अनुरूप जो भी शरीर दिखता है, उस में प्रविष्ट करवा देती है। इसलिए परब्रह्म का स्मरण होने से उसे कोई भी शरीर उस के अनुरूप नही मिलने से, वह मुक्त हो कर परब्रह्म में विलीन हो जाती है।
ईश्वर का चिंतन अंत समय पर हो जाये इस के लिए ही मन का निरुद्ध यदि किया जाए तो स्मरण हर वक्त ही करना चाहिए। इस का कारण हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 8.05।।
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