।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.04 II
।। अध्याय 08.04 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.4॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥
“adhibhūtaḿ kṣaro bhāvaḥ,
puruṣaś cādhidaivatam..।
adhiyajño ‘ham evātra,
dehe deha-bhṛtāḿ vara”..।।
भावार्थ:
हे शरीर धारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरी अपरा प्रकृति जो कि निरन्तर परिवर्तनशील है अधिभूत कहलाती हैं, तथा मेरा वह विराट रूप जिसमें सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी देवता स्थित है वह अधिदैव कहलाता है और मैं ही प्रत्येक शरीरधारी के हृदय में अन्तर्यामी रूप स्थित अधियज्ञ (यज्ञ का भोक्ता) हूँ। (४)
Meaning:
Adhibhootam is perishable existence. Adhidaiva is the person. And I only am adhiyagnya in this body, O eminent among the embodied.
Explanation:
Three out of Arjuna’s seven questions were answered by Shri Krishna in the previous shloka. Here, three more questions are answered: what is adhibhootam, what is adhidaiva and what is adhiyagnya.
Let us start with the definition of adhibhootam, which the shloka terms as perishable existence. The universe is a kaleidoscope of all the physical manifestations of the five elements of nature: earth, water, fire, air, and space. This ever-changing universe is called adhibhuta. All the five elements come under the adhibhūtam; the Sun, moon stars, etc. come under adhibhūtam; Everything like rivers, mountains, they all come under adhibhūtam. Even our physical bodies come under adhibhūtam; because the bodies also are perishable; kṣaraḥ bhāvaḥ; any doubt? It is perishable. That is why we look for security; If it is imperishable, we do not require security; Therefore, the entire perishable material world is called adhibhūtam; So the fourth question is answered It refers to everything in the universe that is visible.
With regards to our example, it refers to everything in the movie that is visible except Tom. So, for example, if a scene in the movie comprises Tom sitting in a classroom, then everything in the classroom is adhibhoota: his classmates, his teacher, the benches, the windows, the walls and so on.
The one common quality that they share is that they are perishable, they have a beginning and an end. When the movie starts, we come to know that the classroom exists. When the movie ends, the classroom is no more.
Next, let us look at the definition of adhidaiva. Literally, it is defined as “purusha” or person in the shloka. But what it really means is the creative or intelligent principle that resides within every living and non- living object in universe. It determines the fate of the universe and holds the universe together. Here the word puruṣaḥ means the hiraṇyagarbha; means in śāstric language total consciousness associated with the total mind. And therefore, associated with total knowledge. If you remember Tatva Bodha, samaṣti sukṣma śarīra sahita caitanyam is hiraṇyagarbha; Consciousness associated with total subtle body. If you do not know or remember what subtle body is, you take it as mind; therefore, consciousness associated with the total mind is called hiraṇyagarbha. And that hiraṇyagarbha alone is called a presiding deity from the standpoint of every organ.
Although the devatas or the celestial gods administer the different departments of the universe, God has sovereignty, even over the devatas. He is Virāṭ Purusha, the complete cosmic personality who encompasses the entire material creation. Hence, God is called Adhidaiva.
So, the presiding deity of the eye is sūrya dēvathā and the presiding deity of the ears is srothasya dig dēvathā. So thus, we have got presiding deities for every organ; all the presiding deities put together is called hiraṇyagarbha; that hiraṇyagarbha is called adhi daivam.
From the perspective of our example, adhidaiva is the movie script. The character Tom may not know why he gets into an accident, or wins an unexpected lottery, but the script knows exactly why it happens, and how it fits into the entire movie. The script determines the fate of the movie. It also ensures that what we see is harmonious and logical, not a random disjointed series of images.
Now, let’s examine what is meant by adhiyagnya. Shree Krishna says that as the Supreme Soul or Paramatma, He dwells in the hearts of all living beings of the universe. He is the one who bestows rewards for all our actions and the presiding divinity for all the yajna (sacrifices). Thus, He is also called Adhiyajna, or the Lord of all sacrifices. Therefore, all yajna should be performed, for the satisfaction of this Supreme Divine Personality. Krishna says aham eva; aham means Krishna the Lord himself Ishvara is adhiyajñaḥ; adhiyajñaḥ is Ishvara.
And what is the definition of Ishvara in tatva bodha; if you remember Tatva Bodha. Ishvara is defined as consciousness associated with the total karaṇa prapañcha. So far, we have defined the light that illuminates Tom (adhyaatma), the light that illuminates everything else (adhibhoota), the creative intelligence of the movie (adhidaiva), the mechanism of projection (karma), and the light itself (brahman). But there is one more aspect that is missing in this scheme.
From the minute Tom wakes up in the morning to when he goes to bed at night, he is not idle. He is active in this world. He transacts with his family, his friends, his teachers, even strangers. There is a give-and-take happening throughout the day that compels him to act. Shri Krishna says that this world of activity and relationships is termed as adhiyagnya.
Now we come to the key point. Addressing Arjuna fondly as “eminent among the embodied”, Shri Krishna asserts that adhyaatma, adhidaiva, adhibhoota, karma and adhidaiva are nothing but Ishvara. Ishvara and brahman are the same, it is just that one is with form, and one is formless. Similarly, everything that we see on the screen is nothing but a modification of the light of the projector. Whatever Tom does or experiences in the movie is just an illusion. When the film strip stops moving, we see the formless white light on the screen.
Next, Shri Krishna starts answering the seventh question, which makes up the bulk of this chapter.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन द्वारा पूछे गए सात प्रश्न में तीन का उत्तर पिछले श्लोक में दिया गया। अब आगे तीन प्रश्न का उत्तर देते हुये भगवान श्री कृष्ण कहते है।
अपरा प्रकृति और उस के परिणाम से उत्पन्न जो विनाशशील तत्व है, जिस का प्रतिक्षण क्षय होता है, इसे क्षरभाव भी कह सकते है। यह क्षरभाव शरीर, इंद्रियाओ, मन, बुद्धि, अहंकार, भूत एवम विषयो रूप में प्रत्यक्ष हो रहा है। यही अधिभूत है अर्थात जितना कुछ दृश्य प्रपंच है, जो कुछ भी नाशवान पदार्थ है वह सब विनाश धर्मी होने से अधिभूत है। यह भी माना गया है इस संसार मे समस्त पदार्थ पंच तत्व अर्थात पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवम आकाश से बने है। जिन्हें पंच महाभूत भी कहते है। नाशवान या क्षर का कोई समय मूल्यांकन नही है। इसलिये महाप्रलय में समस्त प्रकृति का विसर्जन होजाता है, इसलिये ब्रह्म के अतिरिक्त जो कुछ भी वह क्षर है। ब्रह्म को अक्षर कहा गया, तो उस के विपरीत जो भी क्षर है, वह समस्त अधिभूत है।
आठवें श्लोक की प्रस्तावना से ले कर अभी तक आदिदेव के बारे के काफी कुछ लिखा गया। यदि इस सभी को हम सब इकठ्ठा करे तो यह माना जाता है जड़ पदार्थ स्वयं में कुछ भी क्रिया या कर्म नही कर सकता। उत्पत्ति विनाश धर्मी प्रत्येक पदार्थ रूपी पुर में स्थित चेतन रुप देवशक्ति जिस के अनुग्रह से ये सब विकार सिद्ध होते है अर्थात समष्टि इंद्रियाओ तथा अन्तःकरण में ज्ञान व क्रिया व्यापार जिस के अनुग्रह से सिद्ध होता है उस दैवी शक्ति को अधिदेव कहते है। कुछ लोग कहते है जड़ पदार्थ सृष्टि में व्यापार नही करते, किन्तु उन में से प्रत्येक में कोई न कोई सचेतन पुरुष या देवता है अतः किसी भी जड़ पदार्थ की सहायता के लिये हमें उस के सचेतन पुरुष अर्थात उस के देवता की पूजा करनी चाहिये। क्षर में जो अक्षर तत्व है उसी को ब्रह्म समझो। पुरुष शब्द से सूर्य का पुरुष, जल का देवता वरुण पुरुष इत्यादि सचेतन सूक्ष्म देहधारी देवता जिन में हिरण्यगर्भ अर्थात ब्रह्मा भी सम्म्मलित है। अधि का अर्थ पहले भी बताया हुआ है कि अधि उपसर्ग उस से संबंधित या उस मे रहने वाला। इस के अनुसार अधिदेव का अर्थ अनेक देवताओ के रूप में रहने वाला तत्व। इस सिंद्धान्त के कारण ही हिन्दू धर्म मे 33 कोटि दैवी देवताओ की बात की गई। यह 33 कोटि सचेतन आत्मा ही एक परमात्मा का स्वरूप है इसलिये भगवान कहते है कि मैं ही हर जड़ पदार्थ में, चेतन में स्थित अधिभूत एवम अधिदेव हूँ।
सूक्ष्म शरीर में चेतना अर्थात आत्मा का प्रविष्ट होना तेजस हुआ और इस तेजस की प्रत्येक इकाई में महंता होने से वह हिरण्यगर्भ कहलायी। यही हिरण्यगर्भ वो देव पुरुष होते है जो प्रकृति की विभिन्न कार्यों का संचालन करते है जिन्हे हम देवता भी कहते है और यही अधिदेव भी है।
नदियों में पानी बहना, मौसम परिवर्तन, हवा का बहना, फूल का खिलना सब किसी न किसी के देव के अधीन है, इसलिये भगवान कहते है मुझे जो जिस रूप और भाव से पूजता है मैं उसे वैसा ही फल प्रदान करता हूँ। यही ब्रह्म का देव स्वरूप अधिदेवत है। आदिवासी पत्थर, पेड़, नदी किसी भी को देव समझ कर पूजते है, वह ब्रह्म को पूजते है, उस का अधिपत्य जिस देव का होता है, उन्हें वही फल मिलता है।
इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की देह में स्थित विभिन्न आत्मा को देखा जाए तो यह असंख्य देह ही अधिदेह कहलाती है।
इस देह में कर्ता भोक्ता रूप से जितना कुछ व्यापार हो रहा है वो सब यज्ञ रूप है और इस जीवात्मा के भोग के लिये है। अर्थात भोजन, कर्म, शयन, पूजन आदि समस्त व्यापार यानि सम्पूर्ण भोग रूप यज्ञ की सिद्धि अंतर्यामी ले अधिष्ठतत्व में ही हो रही है। जो मन एवम इंद्रियाओ में अंतस्थित हो कर चला रहा है वो अन्तर्यामी तेरी आत्मा मै परमात्मा ही हूँ। इस भोग रूप यज्ञ अधिष्ठाता अर्थात अधियज्ञ इस देह में वह अन्तर्यामी मैं परमात्मा ही हूँ। यज्ञ ही विष्णु है इस श्रुति के अनुसार सब यज्ञों का अधिष्ठाता जो विष्णु नामक देवता है वह अधियज्ञ है। इस देह में जो यज्ञ है उसका अधिष्ठाता वह विष्णुरूप अधियज्ञ मैं ही हूँ। यज्ञ शरीर से ही सिद्ध होता है अतः यज्ञ का शरीर से नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह शरीर में रहने वाला माना जाता है।
अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। वेदान्तशास्त्र के अनुसार प्रत्येक इन्द्रिय मन और बुद्धि का अधिष्ठाता देवता है उन में इन उपाधियों के स्वविषय ग्रहण करने की सार्मथ्य है। समष्टि की दृष्टि से शास्त्रीय भाषा में इसे हिरण्यगर्भ कहते हैं।
इस देह में अधियज्ञ मैं हूँ वेदों के अनुसार देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में आहुति दी जाने की क्रिया यज्ञ कहलाती है। अध्यात्म (व्यक्ति) की दृष्टि से यज्ञ का अर्थ है विषय भावनाएं एवं विचारों का ग्रहण। बाह्य यज्ञ के समान यहाँ भी जब विषय रूपी आहुतियाँ इन्द्रियरूपी अग्नि में अर्पण की जाती हैं तब इन्द्रियों का अधिष्ठाता देवता (ग्रहण सार्मथ्य) प्रसन्न होता है जिसके अनुग्रह स्वरूप हमें फल प्राप्त होकर अर्थात् तत्सम्बन्धित विषय का ज्ञान होता है। इस यज्ञ का सम्पादन चैतन्य आत्मा की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। अत वही देह में अधियज्ञ कहलाता है।भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ दी गयी परिभाषाओं का सूक्ष्म अभिप्राय या लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक सत्य है और शेष सब कुछ उस पर भ्रान्तिजन्य अध्यास है।
तीसरे और चौथे श्लोक में जो ब्रह्म अध्यात्म कर्म अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ का वर्णन हुआ है उसे समझने मात्र के लिये जल का एक दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे जब आकाश स्वच्छ होता है तब हमारे और सूर्य के मध्य में कोई पदार्थ न दीखने पर भी वास्तव में वहाँ परमाणुरूप से जलतत्त्व रहता है। वही जलतत्त्व भाप बनता है और भाप के घनीभूत होने पर बादल बनता है। बादल में जो जलकण रहते हैं उन के मिलने से बूँदें बन जाती हैं। उन बूँदों में जब ठण्डक के संयोग से घनता आ जाती है तब वे ही बूँदें ओले (बर्फ) बन जाती हैं — यह जलतत्त्व का बहुत स्थूल रूप हुआ। ऐसे ही निर्गुणनिराकार ब्रह्म परमाणुरूप से जलतत्त्व है अधियज्ञ (व्यापक विष्णु) भापरूप से जल है अधिदैव (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) बादलरूप से जल है अध्यात्म (अनन्त जीव) बूँदेंरूप से जल है कर्म (सृष्टिरचनारूप कर्म) वर्षा की क्रिया है और,अधिभूत (भौतिक सृष्टिमात्र) बर्फरूप से जल है।
तात्त्विक दृष्टि से तो सब कुछ वासुदेव ही है। इस में भी जब विवेक दृष्टि से देखते हैं तब शरीर शरीरी प्रकृति पुरुष – ऐसे दो भेद हो जाते हैं। उपासना की दृष्टि से देखते हैं तो उपास्य (परमात्मा) उपासक (जीव) और त्याज्य (प्रकृति का कार्य – संसार) – ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनों को समझने के लिये यहाँ इन के छः भेद किये गये हैं — परमात्मा के दो भेद – ब्रह्म (निर्गुण) और अधियज्ञ (सगुण)। जीव के दो भेद – अध्यात्म (सामान्य जीव जो कि बद्ध हैं) और अधिदैव (कारक पुरुष जो कि मुक्त हैं)।संसार के दो भेद – कर्म (जो कि परिवर्तन का पुञ्ज है) और अधिभूत (जो कि पदार्थ हैं)
अतः सत्य, अव्यक्त, नित्य, अक्षर एक मात्र निर्गुण ब्रह्म है। ब्रह्म से क्षर अधिभूत हुए और इसी से अधिदेव अधिभूत को संचालन हेतु हुए। इस सब का कार्य या क्रिया कर्म कहलाया और कर्म पर प्रकृति के तीन गुण का विभिन्न मात्राओं में प्रभाव अध्यात्म अर्थात स्वभाव बना और इन सब को भोक्ता के रूप में ब्रह्म ही अधियज्ञ बन कर सब के हृदय में निवास करता है। यह अर्जुन का प्रश्न था कि वह रहता कहां है तो विभिन्न स्वरूप में ब्रह्म ही है और भोक्ता अर्थात सगुण स्वरूप में सब के हृदय में वास करता है।
परमात्मतत्त्व अत्यन्त अलौकिक और विलक्षण है। उस तत्त्व का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उस तत्त्व को इन्द्रियाँ मन और बुद्धि नहीं पकड़ सकते अर्थात् वह तत्त्व इन्द्रियाँ मन और बुद्धि की परिधि में नहीं आता। हाँ इन्द्रियाँ मन और बुद्धि उस में विलीन हो सकते हैं। साधक उस तत्त्व में स्वयं लीन हो सकता है उस को प्राप्त कर सकता है पर उस तत्त्व को अपने कब्जे में अपने अधिकार में अपनी सीमा में नहीं ले सकता।
सब संसार में परमात्मा व्याप्त हैं – सब संसार परमात्मा में है – सब कुछ परमात्मा ही हैं – सब संसार परमात्मा का है – इस प्रकार गीता में भगवान् के तरह तरह के वचन आते हैं। इन सब का सामञ्जस्य कैसे हो सब की संगति कैसे बैठे इस पर विचार किया जाता है। गीता परमात्मा को तलाश करने वालो के स्पष्ट घोषणा करती है कि तत त्वम असि, अर्थात तुम ही ब्रह्म हो। परमात्मा बाहर नही, अधियज्ञ स्वरूप प्रत्येक प्राणी के ह्रदय के परमात्मा ही निवास करता है। उस को खोजने की बजाय अपने अज्ञान को मिटाने और पहचानने की आवश्यकता है।
गीता की रचना दूरदर्शिता के साथ अत्यंत विवेक से की गई। अतः समस्त विवादों, सिंद्धान्तों, मान्यताओं एवम देवी देवताओं एवम सम्पूर्ण जगत तो एक मात्र परमात्मा से जोड़ा गया। ज्ञान- विज्ञान, क्षर-अक्षर या अपरा-परा प्रकृति का एक ही स्वरूप परमात्मा ही बताया गया जो विभिन्न रूप में सब मे स्थित है। गीता वेद और उपनिषद में विभिन्न ऋषियों के अनुभव, मान्यताओं और मोक्ष के मार्ग को एक सूत्र में पिरोती है, इसलिये सब कुछ परब्रह्म ही है। यह सृष्टि परब्रह्म का संकल्प है। इसलिये परब्रह्म ने जब अपना विस्तार करने का संकल्प किया और एक से अधिक होने का संकल्प लिया तो इस सृष्टि की रचना हुई। यह संकल्प परब्रह्म का अज्ञान भी कहा गया है, इसलिये इसे असत और परब्रह्म को सत भी कहा गया है। जिसे हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे।
दूसरे श्लोक में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न था कि अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं इस का उत्तर हम अगले श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 8.04 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)