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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.02 II

।। अध्याय     08.02 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥

“adhiyajñaḥ kathaḿ ko ‘tra,

dehe ‘smin madhusūdana..।

prayāṇa-kāle ca kathaḿ,

jñeyo ‘si niyatātmabhiḥ”..।।

भावार्थ: 

हे मधुसूदन! यहाँ “अधियज्ञ” कौन है? और वह इस शरीर में किस प्रकार स्थित रहता है? और शरीर के अन्त समय में आत्म-संयमी (योग-युक्त) मनुष्यों द्वारा आपको किस प्रकार जाना जाता हैं? (२)

Meaning:

Who is adhiyagna and how is he (established) in this body, O Madhosoodana? How are (you) known by a self-controlled person, at the time of departure?

Explanation:

Arjuna concludes his round of seven questions to Shri Krishna in this shloka. His two questions are as follows.

Now comes the 6th question; adhiyajñaḥ kaḥ; who is adhi yajñaḥ or what is adhi yajñaḥ and how does adhiyajñaḥ reside in the body?

“Lord of sacrifice” may refer to either Indra or Vishnu. Vishnu is the chief of the primal demigods, including Brahma and Siva, and Indra is the chief of the administrative demigods. Both Indra and Vishnu are worshiped by yajna performances. But here Arjuna asks who the Lord of yajna (sacrifice), the Lord is actually and how is residing within the body of the living entity.

Second, he wants to know how can a yogi or a self-controlled person remember Ishvara at the time of departure. There must be a tremendous control over the mind to remember the Lord at the time of death; therefore, how can self- controlled people remember God at the time of death? This is the 7th question regarding anthakāla smaraṇa. Shri Krishna treats the second question as the most important question. After answering the first six questions in the next two shlokas, Shri Krishna devotes the remainder of the chapter to answering this question only.

 Let us continue to develop the illustration of the animated movie so that we can use it in the next shloka when Shri Krishna starts answering Arjuna’s questions. We learned about the animated character “Tom”, which is just a series of images on film. The light that illuminated Tom began to think that it has an identity that is different than the rest of the film strip.

 As a consequence, the light creates an identity for itself. That light becomes Tom. “He” is bound by his “body”, which is nothing but an outline on the strip of film. He also begins to think that he is the “doer” of an action and is the “enjoyer” of the result of an action. He thinks that he is walking, talking, interacting with people. He also gets happy or upset over the result of his actions.

So, in summary, we have a strip of film that contains a series of images. Each image contains several lines that make up the character Tom that has suddenly begun to think that he is alive. Let us keep this in mind as we begin to hear Shri Krishna’s answers.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन अब आगे प्रश्न करते जो उन्हें बताया भी नही गया था। वो पूछते है कि यह अधिभूत – अधिदेह क्या है अर्थात यह अधिष्ठातृ देवता विशेष या अंतर्यामी परमात्मा या कोई और? यह अधियज्ञ नामक तत्व मनुष्य आदि समस्त प्राणियों के शरीर मे किस प्रकार और कहाँ रहता है, इस को अधिदेह या अधिभूत क्यों कहते है।

अर्जुन का अगला प्रश्न था कि पुरुष अपने अंत काल मे आप को स्मरण किस प्रकार रख सकता है, युक्त चित वाले पुरुष (नित्यात्मभि) कौन होते है और वो अंत समय तक आप को कैसे याद रख सकते है।

यहां कृष्ण को मधुसूदन का सम्बोधन है, गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को और अर्जुन द्वारा कृष्ण को अनेक नामो से संबोधन है, जो प्रश्न एवम उत्तर के अनुकूल है। मधुसूदन का अर्थ मधु नामक राक्षस का वध करने वाले, मधु काम अर्थात कर्मफल से मुक्त कराने वाले है। अर्जुन का ध्यान अब युद्ध भूमि से अलग हो कर ज्ञान की ओर है, वह सम्पूर्ण ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करना चाहता है, वह यह समझ गया कि प्रथम अध्याय में जिस शास्त्र का उध्दरण दे कर बात कर रहा था, उस का अर्थ जो वह समझ रहा था, वह नही है। जीवन मे जब तक सही गुरु नही मिलता, प्रायः हम जो पढ़ते, देखते, करते और अनुभव करते है, उस से एक ज्ञान की धारणा बना लेते है और उसे ही अपने जीवन मे अपना लेते है। किंतु अध्ययन, विद्वानों से सत्संग एवम चिंतन जारी रखने से सही ज्ञान समझने और जीवन मे अपनाने से हमारा वास्तविक विकास होता है।

एक अच्छे शिष्य या श्रोता होने के नाते मन के हर विचार को स्पष्ट कर लेना आवश्यक है चाहे वो बताया गया हो या मन मे उत्पन्न हुआ हो। यह दो प्रश्न सांतवे श्लोक के अंत मे नही थे किन्तु अर्जुन कोई भी शंका या संदेह नही रखना चाहता, इसलिये उस ने मन मे उठे वो भी प्रश्न पूछ लिया जो उसे पहले  बताए प्रश्न के अनुसार लगे।

गीता समस्त वेदो एवम उपनिषदों का सार है अतः उपरोक्त प्रश्न उन विशिष्ट  देवताओ को ध्यान में रख कर पूछे गए जिन्हें विशेष प्रयोजन से पूजा जाता है। मनुष्य की इंद्रियाओ का विवेचन तीन तरह से किया जाता है, जैसे अधिभूत, अध्यात्म और अधिदेव। इन इंद्रियाओ द्वारा जो विषय ग्रहण किये जाते है जैसे हाथों से जो लिया जाता है, कानो से जो सुना जाता है, आखों से जो देखा जाता है और मन से जिस का चिंतन करते है वे सब अधिभूत है और हाथ- पैर आदि के सूक्ष्म स्वभाव अर्थात सूक्ष्म इंद्रियां, इन इंद्रियाओ के अध्यात्म है। परंतु इन दोनों दृष्टि को छोड़ कर अधिदेवत दृष्टि से विचार करने पर- यह मान करके कि हाथों के देवता इंद्र, पैरों के विष्णु, गुद के मित्र, उपस्थ के प्रजापति, वाणी के अग्नि, आखों के सूर्य, कानों के आकाश या दिशा, जीभ के जल, नाक के पृथ्वी, त्वचा के वायु, मन के चंद्रमा, अहंकार के बुद्धि एवम बुद्धि के देवता पुरुष सभी अधिदेवत है जो अपनी अपनी इंद्रियाओ के अनुसार व्यापार करते है। यहां तक कि उपनिषदों में मन को अध्यात्म एवम सूर्य एवम आकाश को अधिदेवत बोला गया। इसी प्रकार यज्ञ में विष्णु एवम इंद्र का आह्वान कर के यज्ञ में होम किया जाता है, जिसे अधियज्ञ कह सकते है, अतः यह सभी देवताओं में कौन श्रेष्ठ है और किस का पूजन करना चाहिए इस भेद को जो की प्राचीन काल से चले आ रहा था, मिटाने के परमब्रह्म स्वरूप परमात्मा को बृहदारण्यक उपनिषद सर्वश्रेष्ठ  बताया था। उपनिषदों का यही सिंद्धान्त वेदांत सूत्र के अंतर्यामी अधिकरण में है। अतः सब के अन्तःकरण में रहने वाला यह तत्व सांख्यो की प्रकृति या जीवात्मा नही है, किन्तु परमात्मा है। गीता भी इसी भेद दृष्टि को समाप्त कर के समस्त अपरा एवम परा प्रकृति में परमात्मा को ही स्थापित करती है। जिसे हम पढ़ते भी आ रहे है और आगे भी विस्तार से पढेंगे।

पूर्व में हम ने ज्ञान – विज्ञान योग का अध्याय 7 को पढ़ा। ज्ञान उस ब्रह्म और चेतना शक्ति को स्वीकार करने और अपने स्वरूप को जानने का माध्यम है, जब की विज्ञान प्रकृति में होने वाली प्रत्येक प्रक्रिया को प्रामाणिक करने का माध्यम है। अतः जहां अन्य धर्म ज्ञान का सामंजस्य नहीं सिद्ध कर पा रहा है, वहां सनातन धर्म ने हमेशा विज्ञान को स्वीकृति देते हुए, पूर्व की मान्यताओं को बदला भी है। गीता में यज्ञ अर्थात कर्म पर अधिक वर्णन होने से अधिभूत, अधिदेवत और अध्यात्म के साथ अधियज्ञ को भी जोड़ा गया है, जिसे हम ज्ञान के साथ विज्ञान को भी समझने की चेष्टा करेंगे। ज्ञान का मार्ग श्रद्धा, विश्वास और समर्पण का है किंतु इस में संशय उत्पन्न हो जाने से अविश्वास, अश्रद्धा हो सकती है। अतः इस संशय का निवारण विज्ञान के साथ करने में पढ़ने और समझने में कुछ कठनाई आ सकती है।परमात्मा को पढ़ना, जानना, समझना, ग्रहण करना एवम आत्मसात करना जटिल है। फिर आज के युग मे संस्कृत युक्त शुद्ध हिंदी में और भी कठिन।

मनुष्य की जिंदगी रोजमर्रा की आवश्यकताओं के अतिरिक्त मन के अंतर्द्वंद में इतनी अधिक गुजरती है कि कभी कभी ऐसा लगता है कि मन मे एक व्यक्त्वि या अनेक, यही अधिदेवत, अधिभूत या अध्यात्म है जो उस की विभिन्न इंद्रियाओ से व्यापार करते है। इन सब को सिर्फ एक परमात्मा ही जोड़ सकता है। उसी को जानने के लिए अब आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।।8.02।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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