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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08. B II  Preamble II

।। अध्याय     08. B II प्रस्तावना II

Preamble – Chapter VIII – The Yog of the eternal God ( Attaining the Supreme)(Aksar brahaman yog)

In this chapter, Shree Krishna briefly describes several significant concepts and terms that the Upanishads expound in detail. He also explains what decides the destination of the soul after death. He says that if we remember God at the time of death, we can definitely attain Him. Therefore, alongside doing our daily works, we must always practice thinking of God. We can do this by thinking of His Qualities, Attributes, Virtues, etc. A persistent yogic meditation upon God by chanting His Names is also a good practice. Through exclusive devotion, when our mind is perfectly absorbed in Him, we will elevate from the material dimension to the spiritual realm.

Shree Krishna then talks about the various abodes in the material realm and the cycle of creation. He further explains how the multitudes of beings manifest on these abodes, and at the time of dissolution, everything absorbs back into Him.

However, the divine Abode of God is untouched by this cycle of creation and dissolution. Those who progress on the path of light finally reach the divine abode and never return to the material world. Whereas those fallen souls who tread the path of darkness endlessly keep transmigrating in the cycle of birth, old age, sickness, and death.

(Courtesy (preamble) – The Songs of GOD – By Swami Mukundanada

प्रस्तावना – अष्टमोSध्याय – अक्षर ब्रह्म योग

सातवे अध्याय में परमात्मा ने अपने होने के रहस्य को बताना शुरू किया और हम ने जाना कि यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड परा प्रकृति और अपरा प्रकृति अर्थात जड़-चेतन के स्वरूप में परमात्मा के रूप में ही है। परमात्मा क्या है? इसे  परमात्मा ने अपने को सम्पूर्ण जगत में व्याप्त, अनादि, अनन्त, नित्य स्वरूप को बताया, जिस से यह ब्रह्मांड रचा है, उस के सगुण एवम निर्गुण स्वरूप को समझा। अतः यह समस्त जगत ही परमात्मा में समाया हुआ है। फिर  अंत मे ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदेव एवम अधियज्ञ तथा प्रयाण काल मे ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को ही प्राप्त हो जाते है। भगवान के इस रहस्य को न समझ पाने के आठवें अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के इन के उत्तर देने के प्रश्न करता है, जिसे परमात्मा विस्तार से समझाना शुरू करते है।

अक्षर एवम ब्रह्म दोनों शब्द भगवान के सगुण एवम निर्गुण दोनों ही स्वरूपो का वाचक है तथा भगवान का नाम ॐ है उसे अक्षर एवम ब्रह्म भी कहते है। इस अध्याय में भगवान के सगुण एवम निर्गुण रूप का और ओंकार का वर्णन है, इस लिये इस अध्याय का नाम अक्षर ब्रह्म योग रखा गया है।

इस अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने ब्रह्म, अध्यात्म, अधिदेव, अधिभूत, अधियज्ञ एवम प्रयाण काल मे परमात्मा के स्मरण को ले कर सात प्रश्न किये थे। इस मे अर्जुन के प्रश्नों के उत्तर के साथ प्राण त्याग के समय प्रभु चिंतन, पुनः जन्म से मुक्ति एवम ईश्वर के ब्रह्म स्वरूप का वर्णन हम पढेंगे। ईश्वर की आराधना करने वाले हर योगी के लिये यह अध्याय ईश्वर के स्वरूप को समझने के लिये महत्व पूर्ण है।

बाह्य सृष्टि के अवलोकन से उस के वार्ता की कल्पना अनेक लोग अनेक रीतियों से किया करते है। 1) अधिभूत – यह मानते है सृष्टि के सब पदार्थ पँचमहाभूतो के ही विकार है और इन पँचमहाभूतो को छोड़ मूल में दूसरा कोई तत्व नही है। 2) अधियज्ञ – कई लोग मानते है गीता के चौथे अध्याय के वर्णन के अनुसार समस्त जगत यज्ञ से हुआ है, इसलिये परमेश्वर यज्ञ नारायण रूपी है और यज्ञ से उस की पूजा होती है। 3) अधिदेवत- कुछ लोगो का कहना है, कि जड़पदार्थ स्वयं सृष्टि के व्यापार नहीं करते, किन्तु उन में से प्रत्येक में कोई न कोई सचेतन पुरुष या देवता रहते है, जो कि इन व्यवहारों को किया करते है, इसलिये हमे उन देवताओ की आराधना करनी चाहिए। जैसे पांच भौतिक सूर्य के गोले में सूर्य नाम का जो पुरुष है वही प्रकाश देने वगेरह का काम किया करता है, अतएव वही उपास्थ है। 4) अध्यात्म –  कुछ लोगो का मानना है कि प्रत्येक पदार्थ में भिन्न भिन्न देवताओ की बजाय आत्मा का निवास है जो उस का मूल एवम वास्तविक रूप है। यह आत्मा भी पृथक पृथक है और असंख्य है।

शब्द अधि का अर्थ उस मे रहने वाला होता है। अब हम परमात्मा के इस तत्व का ज्ञान आंठवे अध्याय में करेंगे।

आठवें अध्याय की संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग 28 श्लोक तक ही सीमित है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ। गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। गीताकार ने दो श्लोकों में (८।३-४) इन छह पारिभाषाओं का स्वरूप बाँध दिया है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म हैं।

सांख्य में अव्यक्त प्रकृति के अक्षर कहा गया है किंतु वेदान्त का ब्रह्म इस अव्यक्त और अक्षर प्रकृति से भी परे का है, इसलिये इसे परम्-ब्रह्म कहा गया है। अतः परम्- ब्रह्म का अर्थ प्रकृति और ब्रह्म दोनो मिला कर होना चाहिए।   यह दृश्य सृष्टि नामरूपात्मक विनाशी स्वरूप क्षर है। समस्त देह अर्थात अधिदेह एवम समस्त यज्ञ के भोक्ता स्वरूप अधियज्ञ पूर्ण ब्रह्म ही है।

अध्याय सात से ब्रह्म ज्ञान शुरू हो जाता है, जिसे पढ़ना, समझना और अनुभव करना, अल्पबुद्धि वाले भक्तों के दुष्कर है। केवल चौथे प्रकार् के ज्ञानी भक्त ही इसे समझ पाते है। इस को समझने के लिये सात्विक मन, एकाग्रता एवम भाषा पर अधिक ध्यान देना होगा।  हम इस को समझने का प्रयास करते है। मेरा निजी मत है कि अनेक मीमांसक अपने अपने व्यक्तित्व एवम विचारधारा से इन अध्याय का विवेचन करते है, जिसे सम्मलित रूप से यहाँ लिखने का प्रयास करते है।

जैसे ब्रह्म ब्रह्म कहने से कोई ब्रह्म नही हो जाता, वैसे ही गीता पढ़ने से कोई ज्ञानी नही हो जाता। यह अनुभव अभ्यास एवम चित्त के निरोध से ही होता है। अतः जब तक चित्त एकाग्र हो कर ज्ञान को ग्रहण नही करता, तब तक अज्ञान नही मिटता। खाने को भोजन की थाली रखी हो, जब तक खाये नही, भूख नही मिटती। परमात्मा ने अर्जुन को गीता के चुना क्योंकि वह जिज्ञासु एवम कर्मवीर था। इसलिये अर्जुन अपनी कोई शंका रख कर ज्ञान नही प्राप्त कर रहा है, और अब आगे भी वह प्रश्न पूछ कर अपनी शंका ही मिटा लेना चाहते है।

अब कल से इस अध्याय को शुरू करते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। अध्याय 8 प्रस्तावना ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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