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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. S II Summary II

।। अध्याय     07. S II सारांश II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ अध्याय: ७ सारांश॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भगवद्‍ज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥

|| ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē

jñānavijñānayōgō nāma saptamō’dhyāyaḥ ||

भावार्थ: 

इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद् भगवदगीता में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के संवाद में ज्ञान- विज्ञान योग नाम का सातवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

Meaning:

Thus ends the Seventh chapter named Jñāna- vijñāna- yōga in Shrimad Bhagavad Gita, which is the essence of the Upanishads, which deals with Brahman- knowledge as well as the preparatory discipline, and which is in the form of a dialogue between Lord Krishna and Arjuna.

Thus, is concluded the seventh chapter of the Gītā, which is titled jñāna- vijñāna – yoga.

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

Summary of Bhagvad Gita Chapter 7:

In the sixth chapter, Shri Krishna elaborated upon the technique of meditation. But one question was left unanswered. What or whom do we meditate upon? Shri Krishna answers that question in this chapter. He urges us to meditate upon him and begins speaking to us as Ishvara.

Krishna highlighted on the role of individual effort, so that we do not have a dangerous fatalistic approach. One of the pitfalls of the human pursuit or human life is the tendency to become fatalistic.

Especially when we face a few problems. When we face a few failures; we conclude that nothing is in our hands; everything is controlled by someone; things have been already written on the forehead, we are only simple puppets in the hands of someone. This is the most dangerous fatalistic approach which is fatal. Spiritually fatal. Therefore, Krishna gives a strong warning in the first six chapters. Never take to this fatalistic approach; it is not that everything is pre-determined; you have got control over your future; you can take charge of your life; Krishna does not say I have got total control. Krishna says I am not totally helpless. Krishna does not say I have total control; Krishna only says I am not totally helpless; I do have a contributory role in deciding my future and therefore take charge of your life.You are responsible for your future; this is called jīva prayathna; puruṣa prayathnaḥ; or assertion of the freewill, which is the unique faculty of a human being.

Before he describes what Ishwara really is, he assures us that we shall know him completely through knowledge combined with wisdom. Just academic knowledge about Ishvara is not sufficient. He adds that those who seek wisdom, which is the vision of Ishvara in his essence, are rare.

Shri Krishna says that there are 2 aspects of Ishvara, the lower and the higher. The lower nature comprises the five elements plus the mind, ego and intellect. The higher nature comprises the life-giving force which is also the experiencer, the subject. Ishvara is the ultimate cause of the universe. As the origin and cause of the universe he pervades all things like a string pervades beads in a necklace. To illustrate, he gives examples of his manifestations or vibhootis – he is the fragrance in earth and brightness in fire and so on.

So then, what is it that veils Ishvara from us, prevents us from accessing Ishvara? It is his maaya, which is nothing but the three gunas – sattva, rajas and tamas. Sattva represents harmony, rajas represent action and tamas represents inertia. These three forces or energies create the entire universe. Only by surrendering to Ishvara can we cross over this maaya, and only a certain kind of person is fit to do so.

According to Shri Krishna, there are two categories of people – those who perform evil actions and those who perform good actions. The performers of good actions who turn to something that is higher than them are called devotees. Those devotees are further divided into 4 types: the distressed, the inquisitive, the seeker of liberation and the wise. The wise devotee is the dearest to Ishvara because he seeks Ishvara as his own self, seeking nothing else.

But unlike the wise devotee, the other three types of devotees seek Ishvara for something finite. Ishvara is not against this because at the very least it strengthens their faith and weakens their ego, so that one day they can aim for the real deal – realization of the infinite Ishvara, not a deity that can only provide finite ends. Till that happens, Ishvara delivers the results through those finite deities.

Ishvara’s true nature is beyond maaya, which means he is beyond the three gunaas, beyond our mind and senses, unborn and unchanging. He is beyond space and time. But ever since the beginning of creation, most of us bound by maaya are under the sway of space, time and the three gunas.

The conclusion is clear. Only those who aspire to realize Ishvara in his true infinite nature and are ready to do so every moment of their life, will attain Ishvara. Karma yoga purifies our mind to prepare us for this task. But we need to learn the means by which we can gradually train ourselves to go beyond the finite notion of Ishvara. That is the topic of the eighth chapter, which first elaborates upon the technical terms introduced at the end of this chapter.

सारांश – सांतवा अध्याय:

अध्याय 2 से 6 तक हम ने एकत्व आम समत्व भाव के बारे में पढ़ा, कि किस प्रकार निष्काम कर्मयोग, सांख्य योग, ज्ञान योग एवम भक्ति योग सभी एक ही ब्रह्म की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग है।   किंतु जीव की प्रवृति के अधिक अनुकूल होने एवम प्रत्येक जन के लिये सम्भव होने से कर्मयोग ही अधिक उत्तम मार्ग है जिस के कारण जीव सृष्टि यज्ञ चक्र का भाग हो कर लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है। निष्काम एवम समतत्व भाव के कारण जीव ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है, अतः अध्याय 7 से हम ने ब्रह्मज्ञान का अध्ययन शुरू किया।

योगेश्वर श्री कृष्ण कहते है कि हजारों में कोई विरला ही अनन्य भाव से समर्पित हो कर मेरे आश्रित हो मुझ में योग लगाता है वो ही समग्र रूप से मुझे जानता है। ईश्वर ने अपने एकत्व भाव से योग पाने के निमित्त अपनी सर्वात्मता एवम सर्वरूपता का उपदेश दिया।

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवम अहंकार- आठ भेदों वाली मेरी ‘अष्टधा: अपरा यानि जड़ प्रकृति है एवम जीव रूप मेरी परा प्रकृति है। (सांख्य में इसे में 24 तत्व बताये गए है किंतु इन 24 तत्व को आठ में ही निहित करती है ) इन के संयोग से यह पूरा जगत है। मै हर जड़ एवम चेतन पदार्थ हूँ किन्तु इन मे कोई भी मुझ में नही है। मैं तो प्रकृति एवम प्रकृति के परिणाम स्वरूप संसार सब से परे हूँ किन्तु मुझ से परे कुछ भी नही है। यह सम्पूर्ण संसार मुझ से माला के मणियों के सूत्र की भांति पिरोया हुआ है।

इस प्रकार परमात्मा को परा- अपरा प्रकृति में परिभाषित किया गया। इसे हम परमात्मा का स्वरूप जड़-चेतन स्वरूप में समझ सकते है। दोनो ही स्वरूप कब और कैसे बने से ज्यादा जरूरी यही बताया गया कि दोनों ही अनादि है क्योंकि ब्रह्म ही समस्त सृष्टि का मूल है, जो अजन्मा, अनादि और नित्य है।

यह प्रकृति मेरी ही योग माया से जीव को भ्रमित कर के अपने त्रियामी गुण सत-रज-तम से यह संसार चलाती है और जीव अपने अहम एवम कामनाओं के अनुसार मुझे छोड़ कर विशिष्ट देवताओ की पूजा करते है। उन को देवताओ के प्रति कामनाओं से ले कर उनकी कामनाओं की प्राप्ति भी मैं ही करता हूँ।

परब्रह्म जगत का रचयिता ही नही, सम्पूर्ण जगत ही है। परमात्मा कोई बाहरी तत्व न हो कर कर्ता – अकर्ता , साक्षी, स्थित सम्पूर्ण है। उसे अपने से अलग समझना ही प्राथमिक भूल होगी। वह जगत का कारण और कारक दोनो ही है।

मेरे चार प्रकार के भक्त है अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु एवम ज्ञानी। ज्ञानी विरले ही भक्त होते है जो संसार को त्याग कर मुझे भजते है, बाकी अपनी अपनी कामनाओं के हिसाब से मुझे भजते है।

मेरे और जीव के बीच मे माया का पर्दा है। इसलिये जैसे ही जीव मेरी अपरा प्रकृति से मिलता है उस को मन, बुद्धि अहंकार घेर लेते है और उस मे इच्छा का जन्म होता है। यह इच्छा सांसारिक सुख की ओर उसे आकर्षित करती है और अपनी इच्छा पूर्ति के लिये वो अहम भाव से कर्म करता है और कर्म बंधन में फस जाता है। वो इस जन्म का हेतु भूल कर प्रकृति के आधीन हो कर सांसारिक सुखों के लिये कर्म करता है एवम मुझे न भज कर विशिष्ट देवताओ की पूजा करने लग जाता है जो उस की इच्छा की पूर्ति कर सके। यद्यपि जड़ प्रकृति से उत्पन्न है वस्तु नाशवान के किन्तु उस की लालसा एवम अहम इस को स्वीकार नही करते और वह जन्म मरण के चक्कर मे पड़ा रहता। भगवान ने इन्हें अज्ञानी एवम अल्पबुद्धि के जीव माना है तथा यह भी कहा है कि अंत समय मे भी जो मुझे ऐसा जान लेते है वो भी योग युक्त ही होते है।

योगमाया से पूरे संसार को अज्ञान से जकड़ लिया है, जिसे हम ज्ञान कहते या समझते है, वह इसी अज्ञान का हिस्सा होता है, इसलिये सांसारिक दुखो से निवृति और सांसारिक सुखों के आनन्द में ही हम अपनी समस्त शक्तियां लगा कर, यज्ञ, पूजा, पाठ, ध्यान आदि करते है। विज्ञापन आते है, स्वांस या कपाल क्रिया से ह्रदय रोग से मुक्ति पाओ, ध्यान से कैंसर से मुक्ति पाओ। यह यंत्र से धन लाभ और इस मंत्र जाप से शत्रु विजय, अच्छा पति या पत्नी, नौकरी, व्यापार आदि आदि। किन्तु जो चेतन्य जीव है, उसे इस योगमाया के अज्ञान से कैसे मुक्ति मिले, यह सोचना भी भय उत्पन्न करता है कि मृत्यु तो नही मांग रहे। शरीर ही जीवन, आत्मा, ब्रह्म है, इस से जो सुख भोगना है, शरीर के इस अज्ञान को मिटा पाना ही वास्तविक ज्ञान है, जब तक परमात्मा को अनुभव नही करते, तब तक भ्रमित ही रहते है। जो परमात्मा को अनुभव करता है, वही ज्ञानी है, वही ब्रह्मस्वरूप है। ज्ञानी ही सही भक्त है, बाकी भक्ति सात्विक होते हुए भी सांसारिक है।

व्यवहारिक दृष्टिकोण में हम अज्ञान में ज्ञान का प्रचार जब तक मोक्ष का नही करते हम प्रथम तीन श्रेणी के भक्त ही है। जो परमात्मा को सात्विक गुणों के कारण प्रिय है, जिन की मनोकामना भी उन के द्वारा विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, पूजा पध्दति एवम देवी देवताओं के माध्यम से परमात्मा पूरी भी करता है किंतु जन्म-मरण के चक्र से मुक्त ब्रह्मसन्ध नही। गीता का ज्ञान, इसी अज्ञान के कुचक्र से निकलने का व्यवहारिक ज्ञान है, जिसे अनुभव किये बिना समझ पाना दुष्कर है। यह व्यक्ति को जीवन की शैली कैसी हो, सत्य के ज्ञान के साथ बता रही है। इस को समझ पाना अपने आप मे बहुत बड़ी उपलब्धि है। ज्ञान के सातवें अघ्याय के बाद और भी गहन विषय की ओर बढ़ते है।

ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिये ज्ञानयुक्त योगी को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि वह कामना-आसक्ति और अहम से मुक्त होता है। वह जब इन से मुक्त हो कर श्रद्धा एवम विश्वास से ब्रह्म के प्रति समर्पित हो जाता है तो ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है। किन्तु आर्त, अर्थार्थी एवम जिज्ञासु भक्त में ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त न कर सकने के कारण उन में निहित राग-द्वेष ही बताया है, जो उन की कामना-आसक्ति और अहम का प्रतीक है। ध्यान रखने योग्य बात यही है कि जब तक सात्विक गुणों से भक्त भगवान की पूजा-अर्चना करता है, तब तक योगमाया से प्रभावित जीव चाहे कामना- आसक्ति से ग्रसित हो कर जो कुछ भी करता है, परमात्मा को वह प्रिय ही होता है, इसलिये विभिन्न देवताओं द्वारा परमात्मा उस की कामनाओं की पूर्ति भी करते है।

सांतवा अध्याय व्यवहारिक दृष्टि कोण से भी ज्ञान- विज्ञान योग है। हमारे ज्ञान की एक परिधि होती और अज्ञान की कोई परिधि नही होती। हम अपने ज्ञान द्वारा अपने अज्ञान की मिथ्या परिधि बना लेते है उसे हम धारणा, अंध विश्वास, अति आत्मविस्वास भी कह सकते है। इस मे हम उन तथ्यों को भी सही एवम सत्य सिद्ध करने की कोशिश करते है जो हम ने कभी अध्ययन ही नही किये किंतु उन को अन्य लोगो से सुना या देखा है। परमात्मा के बारे में भी अक्सर मैंने ऐसे लोगो को अनर्गल बहस करते सुना है। गीता ही एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जो कहता है कि परमात्मा किसी भी जड़ पदार्थ को नही माना जा सकता, कोई भी कर्म कांड परमात्मा नहीं हो सकता किन्तु इन सब मे परमात्मा होता है और परमात्मा में यह सब नही होता। परमात्मा को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय ज्ञानी होना है, जब तक आप स्वयं तत्वविद नही होते, आप परमात्मा के स्वरूप को तो देखते है किंतु परमात्मा को नही। सब लोग अपने अपने ज्ञान द्वारा अपने अर्ध सत्य को ही सत्य के स्थान पर स्थापित करते है किंतु सत्य को स्थापना की आवश्यकता नही क्योंकि सत्य पूर्ण ज्ञान का स्वरूप है उसे ज्ञानी हो कर ही जाना जा सकता है। कोई बहस, तर्क, सिंद्धान्त या नियम सत्य को परिभाषित नही कर सकता।

परमात्मा के अद्वेत एवम द्वेत स्वरूप का विस्तार से वर्णन एवम मन एवम कामना को जानने के लिये सातवां अध्याय  अत्यंत महत्वपूर्ण है। ईश्वर सभी ओर कण कण में है और ईश्वर के अंश होने के पश्चात भी हम ईश्वर के इतने निकट रहते हुए भी उस को नही भज पाते एवम समर्पित नहीं हो पाते। अगले अध्यायो में ईश्वर का सम्पूर्ण वर्णन है जिस को समझने के ईश्वर के इस अध्याय को समझना एवम आत्मसात करना जरूरी है। सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान में हम ने परमात्मा के दो स्वरूप परा एवम अपरा प्रकृति के बारे में पढ़ा। ज्ञान अर्थात सगुण एवम विज्ञान अर्थात निर्गुण स्वरूप में दोनो स्वरूप को अध्याय के अंत मे 6 भागो में बांट दिया है , जिसे हम कर्म, ब्रह्म, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदेव एवम अधियज्ञ के नाम से अगले अध्याय में पढ़ेंगे। जो ज्ञानी है,वह परमात्मा को इन 6 भागो में अपने अंतिम समय तक जानता है।

धर्मशास्त्रों एवम उपनिषदों का सिंद्धान्त है कि मरण काल मे मनुष्य के मन मे जो बुद्धि प्रबल रहती है, उस के अनुसार  उसे आगे जन्म मिलता है। इसी सिंद्धान्त को लक्ष्य कर के मरण काल मे भी शब्द का प्रयोग योग युक्त होने के लिये किया गया है किंतु मरने से पहले परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान हुए बिना केवल अंतकाल में भी यह ज्ञान नही हो सकता। परमात्मा के पूर्ण ज्ञान एवम स्वरूप को अब आगे समझने के लिये पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। अध्याय 7 सारांश ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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