।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 28 II
।। अध्याय 07. 28 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.28॥
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
“yeṣāḿ tv anta- gataḿ pāpaḿ,
janānāḿ puṇya- karmaṇām..।
te dvandva- moha- nirmuktā,
bhajante māḿ dṛḍha- vratāḥ”..।।
भावार्थ:
परन्तु जिस मनुष्य ने पूर्व- जन्मों में और इस जन्म में पुण्य- कर्म किये हैं तथा उस के सभी पाप पूर्ण- रूप से नष्ट हो चुके हैं, वह दृढ-संकल्प के साथ मेरी भक्ति कर के मोह आदि सभी द्वन्दों से मुक्त हो जाता हैं। (२८)
Meaning:
But those people of meritorious actions whose sins have been exhausted, they, freed from the delusion of duality, worship me with firm determination.
Explanation:
The delusion of duality, as we saw earlier, is a condition that we are cast into right from birth. This delusion further strengthens maaya that prevents us from accessing Ishvara. Having explained the condition of most people who are trapped in this situation, Shri Krishna now describes the people who have come out of maaya. He says that only those who have conducted enough meritorious acts and wiped out their sins acquire the firm resolution to directly access Ishvara.
Shree Krishna says that those souls who have freed their minds from the dualities of hatred and desire worship him with unshakeable determination. They neither seek pleasure in the material world nor feel an aversion for pain. They are cautious while indulging in worldly pleasures as it may again delude their soul. Earlier, in verse 2.69, Shree Krishna had said, “What the ignorant consider as night, the wise consider as day.” Such devotees, who aspire to attain God- realization, look upon adversities as an opportunity for spiritual growth and renunciation.
Let us revisit what exactly is meant here by merits and sins. What is a sin? Any time that our mind and senses drag us into the world and force us to conduct actions born out of selfish desire, we commit a sin. When this happens again and again, it adds to the moha or delusion that blocks our discrimination or viveka.
Conversely, whenever we perform an unselfish action that is in line with our svadharma or duty, we commit a merit. In doing so, we do not add to the stock of delusion, but in fact purify our mind.
But there are blessed people, who have done some puṇya karma; either in the previous janma or in this janma; and because of the puṇya karma they do their mind gets purer and purer and therefore their obstacles get lesser and lesser. And what is the indication of the reduction of pāpam; they begin to think. Despite so many achievements, I have acquired; but my problem continues; perhaps my direction is wrong; if my direction is right; at least I should have stumbled upon the solution. The very fact my, what you call, the disturbance continues, anxiety continues, worry has worsened; tension, I require sleeping pills; therefore, for something must be wrong; Once that purity comes, he feels like asking someone; is some other direction? do we have some other goal in life? is it merely arta and kāma? or do I have something else? And the moment the enquiry begins; the moment the purity comes, Bhagavān begins to give direction. Their delusion subsided and they begin to understand sukham and duḥkam are not outside; the problem is not outside; the problem is within me. Solution therefore is You alone. So once the direction is turned towards myself; then I have become spiritual. Until then, there was other spirituality; he was taking to that spirituality; the real spirituality is when I turn towards myself.
The message is clear: do your duty because it is the only way to contact Ishvara. Karma yoga, seen from this vantage point, reasserts its importance.
Next, Shri Krishna begins to conclude this chapter by planting the seed of the next chapter in two shlokas. They deal with the fundamental question of our ultimate liberation.
हिंदी समीक्षा ।।
जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त होना है तो उसे प्रकृति के इस द्वंद से बाहर निकलना होगा। सन्यास योग में शंकराचार्य जी का कथन है कि
काम आदि दृश्य पदार्थों का लय / नाश करके ब्रह्मनिष्ठ पुरुष के इस कथन को कि ” मैं शुद्ध हूँ ” – विद्वान पुरुष ‘शब्दानुविद्ध ‘ – शब्द से सम्बन्ध वाली समाधि कहते हैं ; क्योंकि इस प्रकार के शब्दों से युक्त द्रष्टा से ही स्थित पुरुष का समाधिभाव देखने में आता है ।।
देह , इन्द्रिय , मन , बुद्धि दृश्य पदार्थों के साक्षी होते हुए आत्मा में दृढ़रूप से प्रतिष्ठित और चित्त की निवर्तक अमनावस्था/ शान्त अवस्था को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है। जो दीर्घकाल तक निरन्तर संस्कारपूर्वक सविकल्प समाधि को करते हैं , उनको ही निर्विकल्प समाधि सिद्ध होती है ।।
जो निर्विकल्प समाधि में निष्ठासहित ध्रुवस्थिति में रहता है , उसका नित्य हो जाना निश्चित है । उसका जन्म-मरण के प्रवाह का अभाव हो जाता है और वह बाधारहित नित्य- अविनाशी- दृढ़ – असीम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।।
किंतु सन्यासी का निर्वाण का मार्ग सामान्य कर्मयोगी या भक्ति मार्ग के योगी के लिए कठिन है, क्योंकि ब्रह्म को जानना या समझना लगभग असम्भव है।
फिर इस द्वन्द्व मोह (राग-द्वेष) से छूटे हुए ऐसे कौन से मनुष्य हैं जो परमात्मा को शास्त्रोक्त प्रकार से आत्मभाव से भजते हैं इस अपेक्षित अर्थ को दिखाने के लिये कहते हैं जिन पुण्यकर्मा पुरुषों के पापों का लगभग अन्त हो गया होता है अर्थात् जिन के कर्म पवित्र यानी अन्तःकरण की शुद्धि के कारण होते हैं, वे पुण्यकर्मा हैं ऐसे उपर्युक्त द्वन्द्वमोह से मुक्त हुए वे दृढ़व्रती पुरुष परमात्मा को भजते हैं। परमार्थ तत्त्व ठीक परमात्मा को ही मात्र इष्ट मानने के, इसी प्रकार है, दूसरी प्रकार नहीं ऐसे निश्चित विज्ञान वाले पुरुष दृढ़व्रती कहे जाते हैं। यह लोग परब्रह्म को छोड़ कर अन्य किसी देवी- देवता की शरण मे नही जाते।
व्यवहारिक दृष्टिकोण से जब हम किसी भी देवी-देवता की पूजा अर्जना राग-द्वेष छोड़ कर कामना रहित दृढ़ विस्वास से करते है कि यही हमारे उद्धार के पालन हार होंगे, तो वह परब्रह्म की ही उपासना है। मीरा द्वारा कृष्ण, तुलसीदास द्वारा राम की आराधना का यही स्वरूप था।
इस श्लोक में पाप और पुण्य कर्म की बात कही गई है, निष्काम भाव से शास्त्रो में निहित कर्म, जो जन हित मे लोकसंग्रह के लिये कार्य किये जाते है, वह पुण्य कर्म है। पुण्य कर्म करने वालो की वृत्ति सात्विक एवम कामना भी सात्विक या राजसी होंगी। किन्तु पाप कर्म इन से विपरीत आसुरी वृति में तामसी या राजसी प्रकृति में स्वार्थ या किसी को हानि पहुचाने के लिये किया जाए, माना गया है। लक्ष्य, प्रकृति के गुण, एवम प्रवृति किसी कार्य के पाप -पुण्य का निर्णय करते है, कोई कार्य स्वयं में पाप या पुण्य नही होता। इसलिये भगवान कहते है पुण्य कर्म करते करते जब जीव की प्रवृति सात्विक होती जाती है, तो उस के कर्मफलों में पहले के पाप कर्मों का फल क्षीण हो जाता है, वह भी ईश्वर परायण होने लगता है, और मुक्ति की ओर बढ़ता है।
हमे यह ध्यान रखना होगा कि प्रकृति कार्य – कारण के सिद्धांत पर कार्य करती है। इसलिए कोई भी कर्म या कार्य का परिणाम अर्थात फल की उत्पत्ति न हो, ऐसा संभव नही। अतः निस्वार्थ भाव से लोकहित के लिए कार्य का प्रभाव सृष्टि यज्ञ चक्र का भाग है और स्वार्थ, राग – द्वेष, लोभ या क्रोध में किया कार्य का परिणाम भी उसी प्रकार का होगा। अतः जैसा हम करते है, वैसा ही हमे फल प्राप्त होता है। इसलिए जैसे जैसे हमारे कर्म निष्काम, निर्लिप्त भाव के लोकहित में होते जायेंगे, हमारा प्रकृति का द्वंद भाव समाप्त होता जाएगा। इस से चित्त भी शांत होने लगता है। चित्त के शांत होने से हमारे ज्ञान में वृद्धि होने लगती है और हमे भगवान के स्वरूप का ज्ञान होने लगता है और हम मुक्ति के मार्ग की ओर बढ़ने लगते है। यह यात्रा एक जन्म में यदि संभव न हो तो आगे के जन्मों तक चलता रहती है।
जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है इस कथन को सम्यक् प्रकार से समझना आवश्यक है। पाप मनुष्य का स्वभाव नहीं हैं वेदान्त के अनुसार वह मनुष्य द्वारा किये गये गलत निर्णय अर्थात् विपरीत ज्ञान का परिणाम है जिस ने आत्मचैतन्य को आच्छादित सा कर दिया है। पाप का मुख्य कारण है बाह्य स्थूल जगत् के निम्न स्तरीय विषयोपभोग के लिए हमारे मन की तृष्णा और स्पृहा। पापी पुरुष वह है जिसका अत्यधिक समय और ध्यान केवल अपने देहसुख के लिए ही व्यक्त होता है। ऐसे पुरुष में देह स्वामी और आत्मा उस की दासी बन जाती है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति वैषयिक सुखों की कामना मन में उठने वाली प्रत्येक निम्न कोटि की भावना का सन्तुष्टीकरण यह है पापी पुरुष की जीवन पद्धति। इस प्रकार का कामुक पाशविक जीवन अन्तकरण में वैसी ही वासनाएं उत्पन्न करता है। वासना के अनुसार ही विचार होते हैं। विचारानुसार कर्म और ये कर्म फिर वासना को ही दृढ़ करते हैं। मनुष्य की शान्ति और सन्तुष्टि को विनष्ट करने वाली वासना विचार कर्म की श्रृंखला को तोड़ने के लिए मनुष्य को पुण्य कर्म का नया जीवन प्रारम्भ करने का उपदेश दिया जाता है। पुण्य कर्म पाप का विरोधी होने से उसके अन्तर्गत वे सब विचार भावनाएं तथा कर्म आते हैं जो ईश्वर को समर्पित होते हैं अर्थात् जिनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होता है। मैं देह हूँ के स्थान पर मैं आत्मा हूँ इस ज्ञान को दृढ़ करके कर्म करने पर वे अपना संस्कार उत्पन्न नहीं करेंगे। कुछ कालावधि में इन पुण्य संस्कारों के दृढ़ होने पर पाप वासनाएं नष्ट हो जायेंगी। ऐसा पाप युक्त पुरुष सुख दुखादि रूप सभी प्रकार के द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त हो जाता है। तब उस में यह योग्यता आती है कि वह एकाग्रचित तथा दृढ़वती अर्थात् दृढ़ निश्चयी होकर आत्मा का ध्यान कर सके।
सुख स्वरूप केवल भगवान ही है, सांसारिक भोग रोग रूप है, बारंबार जन्म मरण दीर्घ रोग है और केवल भगवान की अनन्य शरण द्वारा ही इस रोग की निवृत्ति संभव है’ ऐसा जिन का दृढ़ निश्चय ही वे ही दृढ़ व्रती कहलाते है। ऐसे दृढ़व्रती पुण्य कर्मी जन जिनका पाप निवृत हो गया है वे काम क्रोध तथा राग द्वेष द्वंद मोह से छूट कर मुझे भजते है अर्थात मेरी शरण मे प्राप्त होते है। पुण्य कर्मों से पाप इसी प्रकार निवृत होते है जैसे प्रकाश से अंधकार। फिर पापो की निवृत्ति से द्वंद मोह से छुटकारा होता है। द्वंद मोह से छूटने पर भगवतपरायन्ता प्राप्त होती है। भगवतपरायन्ता से भगवत प्राप्ति द्वारा जन्म मरण से छुटकारा होता है।
गीता के अनुसार मुक्ति का मार्ग किसी के लिये बन्द नही होता, यह अथक प्रयास करते रहने से बाल्मीकि या अंगुलिमार डाकू भी ऋषि बन कर ईश्वर को प्राप्त होते है। जन्म- मरण से मुक्ति बिना कोई मार्ग नही है, यह संभव मनुष्य योनि में ही है, यदि यह जन्म भी निर्रथक व्यतीत हो जाये तो फिर पुनः कष्टदायक किंतने चक्कर होंगे, यह कोई नही कह सकता। हमे यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति जड़ है और जीव चेतन, प्रकृति से बन्धन जीव के अज्ञान से होता है, प्रकृति कभी बन्धन नही कर सकती। इसलिये भगवान कहते है कि जीवन मे कभी भी राग- द्वेष को त्याग कर दृढ़निश्चय के साथ द्वन्दरहित जब भी कोई भक्त उन को पूजना शुरू कर देता है तो कालांतर में उस के पुण्य कर्म बढ़ना शुरू हो जाएंगे और पाप कर्म कम हो जाएंगे। उस के लिये भी मुक्ति का मार्ग खुल जायेगा। कामना से सही, किन्तु कभी भी यह द्वन्दरहित भक्ति का मार्ग खुल सकता है, इसलिये सत्कर्म करते रहना चाहिये।
सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने साधक के लिये तीन बातें कही थीं। मय्यासक्तमनाः मेरे में प्रेम कर के और मदाश्रयः मेरा आश्रय ले कर योगयुंज्जन योग का अनुष्ठान करता है वह मेरे समग्ररूप को जान जाता है। जीव जो प्रकृति की योगमाया में द्वंद में फसा है, अज्ञानी है, अहम से भरा है, उसे अपनी गलती या अज्ञान का अध्यास भी कैसे हो। उन्हीं तीन बातों के उपसंहार के स्वरूप में अब आगे के दो श्लोकों पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 7.28।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)