।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 27 II
।। अध्याय 07. 27 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.27॥
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥
“icchā- dveṣa- samutthena,
dvandva- mohena bhārata..।
sarva- bhūtāni sammohaḿ,
sarge yānti parantapa”..।।
भावार्थ:
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! संसार में सभी प्राणी इच्छा-द्वेष आदि द्वन्दों से उत्पन्न मोह के कारण जन्म लेकर पुन: मोह को प्राप्त होते हैं। (२७)
Meaning:
O Bhaarata, ever since the creation (of this world), all beings attain ignorance by the delusion born of duality, O Arjuna.
Explanation:
If someone says “I love my job” or “I love to go to this city” we have no doubt in understanding that there is satisfaction in that emotion of loving something. But if someone says, “I hate my boss”, we may not admit it but there is satisfaction in expressing hatred as well. It is next to impossible for our mind to think of anything without a tinge of love or hate.
Shri Krishna says that the moment we are born, we are cast into this double or dualistic thinking. We can never think an integrated, holistic thought because we are forced to think is terms of likes and dislikes. We run after a certain object because we like it so much and cannot live without it. We finally acquire it. But once that happens, that we begin to dislike that very object that we could not live without. Ultimately every such pursuit results in sorrow.
He had covered earlier about the dualities in the world. Happiness and distress, pleasure and pain, summer and winter, night and day, etc., all these dualities exist in pairs. These dualities are an inseparable part of life’s experiences. However, the most deluding dualities in life are birth and death.
Our material intellect believes that worldly pleasures will give us happiness and fulfilment. Therefore, in material consciousness, while we desire the favourable ones, we detest the unpleasant experiences. Although attraction and aversion are not the inherent qualities of these dualities, they develop due to our ignorance. Our intellect does not realize that materially pleasurable situations will only increase our material illusion. Thus, it makes us believe that pain is detrimental to us. However, adversities have the potential of dispelling that material illusion from our mind and elevate our soul. Our ignorance is the root cause of our delusions. A spiritually elevated person accepts these dualities as inseparable aspects of God’s creation and rises above likes and dislikes, attraction, and aversion, etc.
So, the jīva has missed the infinite God who is residing in himself; infinite peace which is within himself; infinite security, which is within himself, he has missed; when? right from the time of birth itself. Therefore, Krishna says in the second line, what at the time of birth itself every jīva is affected by ignorance.
Since I do not know that the peace and happiness are within myself, I seek the very same peace and happiness outside. throughout the life he is extrovert; he never asks the question; perhaps what I seek may be within myself; he does not even have that suspicion. In fact, he falls dead, but he never finds that what he wants is within himself. Therefore, the entire world is deluded because of ignorance.
Cause of happiness is what? knowing myself; cause of sorrow is what? not knowing myself. Sorrow and happiness are both cantered on me. Self-ignorance being cause of sorrow; self-knowledge being cause of happiness, I do not know.
So therefore, how do we get rid of our likes and dislikes, and begin to think holistically? Karma yoga is the answer. By relentlessly performing actions for the service of a higher ideal, we eliminate likes and dislikes to a great extent. Every sense organ has a like and dislike for its respective objects. That is an undeniable truth. But whether or not we fuel these likes and dislikes is up to us. Breaking away from the clutches of the sense organs prepares us for piercing the screen of maaya.
Now, if we summarize the shlokas so far, we have the entire problem laid in front of us. Maaya caused by our dualistic disposition blocks us, prevents us from accessing the true nature of Ishvara. Unless we gain this access, we are trapped in samsaara or earthly existence. What should we now do?
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे आत्मबुद्धि मिलती जो उसे योग की ओर ले जाती है। उस के साथ उस मे देहात्मक बुद्धि भी जन्म लेती है जो उस के शरीर के सुख-दुख, लाभ-हानि, राग-द्वेष से जुड़ी रहती है। देह बुद्धि का एक भाग अनुकूल बुद्धि कहलाता है जिसे इच्छा या राग भी बोल सकते है और दूसरा भाग प्रतिकूल बुद्धि भी कहलाता है जिसे द्वेष भी कहलाता है। इसी देहात्मक बुद्धि के अनुकूल बुद्धि एवम प्रतिकूल बुद्धि के परिणाम स्वरूप हम राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-माया, सुख-दुख एवम लाभ-हानि जैसे मोह-ममता एवम अहम के द्वंद में फस कर रह जाते है। बचपन से हम जिस निर्गुण, निराकार, नित्य ब्रह्म को सगुण स्वरूप में देखते, पढ़ते और समझते है, वह हमारे सांसारिक दुखो, रोग और निर्धनता के निवारण के लिए बताया जाता है। इसलिए जिस अहम और अज्ञान में हम जीवन जीते है, उस का अर्थ जीवन के अंतकाल में समझ में आने लगता है किंतु क्या करेंगे जब समय की चिड़िया चुग गई खेत।
पूर्व में हम ने पढ़ा कि यदि श्रद्धा एवम विश्वास के साथ समर्पण परब्रह्म की ओर हो तो ज्ञान की प्राप्ति होती है और शनैः शनैः जीव ब्रह्मसन्ध हो जाता है। हमारे अंदर श्रद्धा एवम विश्वास के अभाव होने से प्रकृति जन्य राग-द्वेष होता है। राग से बन्धन अर्थात मोह, कामना, लोभ और आसक्ति होती है, यदि पूर्ति न हो तो क्षोभ, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि आता है। राग के अभाव में द्वेष जन्म लेता है। इसलिये मानवीय दुर्गुण में राग-द्वेष को मुख्य मानते हुए, भगवान प्रथम तीन प्रकार् के भक्तों का वर्णन करते है, जो सात्विक तो है, किन्तु अपने अपने राग-द्वेष से कामना और आसक्ति में लिप्त हो कर परमात्मा की पूजा और अर्चना विभिन्न देवी देवताओं की करते रहते है। यह भक्त अपने अपने पुण्य कर्मों के फल स्वरूप स्वर्ग, वैकुण्ठ, ब्रह्म लोक आदि में आनन्द को प्राप्त होते है, किन्तु पुण्य की समाप्ति पर पुनः जन्म-मरण के चक्र को भी प्राप्त होते है।
मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है अतः मनुष्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति उस के अपने विवेक के अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व न देकर राग और द्वेष को लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है जिस से उस का पतन होता है। मनुष्य की दो मनोवृत्तियाँ हैं एक तरफ लगाना और एक तरफ से हटाना। मनुष्य को परमात्मा में तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसार से अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मा से तो प्रेम करना है और संसार से वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियों को जब मनुष्य केवल संसार में ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेष का रूप धारण कर लेते हैं जिस से मनुष्य संसार में उलझ जाता है और भगवान् से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान् की तरफ चलने का अवसर ही नहीं मिलता। कभी कभी वह सत्संग की बातें भी सुनता है शास्त्र भी पढ़ता है अच्छी बातों पर विचार भी करता है मन में अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उन को ठीक भी समझता है। फिर भी उस के मन में राग के कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलता को प्राप्त करना है और प्रतिकूलता को हटाना है यह मेरा खास काम है क्योंकि इस के बिना मेरा जीवन निर्वाह नहीं होगा। सांसारिक उन्नति को ही जब उन्नति मान ली जाती है तो धन, दौलत, मान सम्मान, समाज, परिवार, देश, पद एवम शासन करने की प्रवृति उस को आत्मबुद्धि की बढ़ने से रोक देती है। वो अपने ही बनाये मकड़ी जाल में उलझ कर सुख एवम दुख के द्वंद में इस तरह उलझ जाता है कि परमात्मा को भी इसी में लगा कर अनुकूल बुद्धि के अनुसार ही फल की आशा करने लग जाता है। उस का ज्ञान, विवेक, आत्म चिंतन एवम गुरु और परमात्मा के प्रति शरणागति अपनी सांसारिक इच्छाओं के प्रति समर्पित हो जाती है। इस प्रकार वह हृदय में दृढ़ता से रागद्वेष को पकड़े रखता है जिस से सुनने पढ़ने और विचार करने पर भी उस की वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्व को नहीं छोड़ती। इसी से वह परमात्मा की तरफ चल नहीं सकता। इस संसार के कर्म बंधन में पड़ने के कारण वो अपने कर्मो के फल को भोगता है एवम जीवन मरण के चक्कर मे पड़ा रहता है।
व्यवहारिक जीवन मे भी चाहे मसला सांसारिक ही क्यों न हो, अक्सर हम जब हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते है तो आस-पास के वातावरण में होने वाली घटनाएं हमे आकर्षित करने लगती है और उस का आनन्द लेने के लिये हम अपने लक्ष्य से भटक जाते है। वैसे ही परमात्मा द्वारा यह मनुष्य जन्म तो मोक्ष की प्राप्ति के लिये है किंतु राग-द्वेष के कारण हम अपना लक्ष्य इसी संसार को मान कर जीने लगते है फिर अंत मे हिसाब लगाए तो कुछ भी हाथ नही लगता या फिर रह जाती है अतृप्त लालसा, इच्छा और राग-द्वेष एवम कलपना।
आत्मसुरक्षा की सर्वाधिक प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इच्छाओं के रूप में व्यक्त होती है जिन के द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है। प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो उसकी ओर मन की प्रतिक्रिया द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्नभिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है। स्वाभाविक ही ऐसा व्यक्ति सदा प्रिय की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिन प्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता। महात्मा बुद्ध भी यही कहते है कि अज्ञान में जिंदगी भर हम जिस सुख के लिए भागते है और धन संपत्ति एकत्रित करते है, वह जीवन के अंतकाल में भूल का अहसास दिला देती है किंतु उस समय पछताने के अतिरिक्त कुछ नही रहता।
अत: आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है मन को संयमित करके उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो क्रिया प्रधान भावना प्रधान या विचार प्रधान आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति आत्मप्रकाश और आत्ममिलन का क्षण होता है।परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह को प्राप्त होते हैं दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है। दुखपूर्ण प्रारब्ध को मनुष्य का यह कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो। ईसाई धर्म के विपरीत कृष्ण धर्म किसी व्यक्ति को पाप का पुत्र नहीं मानता। यमुना कुञ्ज विहारी दुर्दम्य आशावादी आशा के संदेशवाहक जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ मात्र दार्शनिक सत्य को ही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी देह विशेष और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही निर्माण करता है।इस मोह जाल से मुक्ति पाना और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।
श्रद्धा और विश्वास के अभाव और राग-द्वेष में मनुष्य किसी भी विचारधारा या कर्म सही प्रकार् से चिंतन कर के नही कर पाता। उस का मन हमेशा द्वंद में उलझा रहता है और उसे प्रत्येक व्यक्ति, कार्य और विषय मे शंका बनी रहती है। यह उस की निर्णय क्षमता को प्रभावित करती है। सही निर्णय के व्यक्ति के विषय के प्रति तटस्थता अनिवार्य है।
ऐसा कहा जाता है कि गर्भस्थ शिशु की कोई कामना या इच्छा नही होती किन्तु जन्म लेते ही उसे योग माया घेर लेती है और उसे भूख, प्यास आदि का अनुभव कराती है, जिस से उसे शरीर से राग होने लगता है, फिर आसपास के जनों से। उसे लगता है वह ही ब्रह्म है। यह भ्रांति में वह अपना जीवन व्यतीत करता है, जब कि यह पार्थिव शरीर आत्मा नही है, और इन्द्रियाँ, उन के अधिष्ठाता देवता, प्राण, वायु, जल और अग्नि भी आत्मा नही है और अन्नमय मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, पृथ्वी और प्रकृति इन मे कोई भी आत्मा नही है, फिर इन से प्राप्य कोई भी वस्तु आत्मा नही हो सकती। इन से यदि राग-द्वेष भी यदि कुछ है तो वह सब योगमाया ही है। जो जन्म से शुरू हो कर मृत्युपर्यन्त तक बना रहता है।
कस्तूरी मृग की भांति जीव जो स्वयं ब्रह्म का अंश है और जो स्वयं सत चित्त आनंद है, प्रकृति में अपने आनंद और सुख को खोजता है। प्रकृति में द्वंद अर्थात हर सुख के पीछे दुख, हंसी से साथ रोना, अमीरी के साथ गरीबी, स्वतंत्रता के साथ पराधीनता है। इसी द्वंद का एक क्षोर जन्म और द्वितीय क्षोर मृत्यु है। इसलिए जन्म से मृत्यु और मृत्यु से जन्म, इसी चक्कर में घूमता रहता है। इसलिए स्थिर नहीं हो पाता।
अगले श्लोक में अपने इस राग- द्वेष के द्वंद से दूर रहने वालों के बारे में पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। 7.27।।
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