।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 24 ।I
।। अध्याय 07. 24 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.24॥
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥
“avyaktaḿ vyaktim āpannaḿ,
manyante mām abuddhayaḥ..।
paraḿ bhāvam ajānanto,
mamāvyayam anuttamam”..।।
भावार्थ:
बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अप्रकट परमात्मा को मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला समझते हैं इसलिय वह मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी स्वरूप के परम-प्रभाव को नही समझ पाते हैं। (२४)
Meaning:
The unintelligent, not knowing my unmanifest, supreme, incomparable and imperishable nature, believe that I assume a human form.
Explanation:
“To one that holds a hammer, everything looks like a nail”. When we get used to a certain mode of thinking or behaving, it becomes a disadvantage because that mode of thinking begins to limit our perspective. We spend all of our waking life taking in information from the sense organs – the eyes, ears, nose, tongue and skin. Due to this constant exposure, we tend to perceive everything in terms of these 5 senses. Ultimately, these senses limit what we can perceive.
Shri Krishna, having described the finite goal- seeking mindset of most people, now clearly articulates the problem that they face. Limited by their finite intellect, limited by the prison of the 5 senses, people tend to view Ishvara as a finite entity. As if this is not unfortunate enough, they get so attached to their favourite deity that they sometimes begin to develop a fanatic attitude – “my god is better than your god” and so on. People often vehemently debate upon the Supreme Lord being a formless God, while the others claim He exists in His personal form. The true Ishvara is beyond all senses. Neither the mind nor our speech can reach it. Ishvara is beyond all names and forms.
Shree Krishna resolves this debate by stating that God exists in the spiritual realm eternally in His divine form. The ignorant do not understand the magnificent and imperishable nature of His personal form. The divine personality of God has not manifested from the formless Brahman; it is primordial. The divine light that emanates from His transcendental body is the formless Brahman.
But many of us go to temples to worship deities. Even spiritual masters worship deities. How should we understand this? It is because deities in a temple are indicators or pointers to the infinite. An idol in the shape of a deity helps us focus our attention on the form of the deity. But this focusing of attention on the finite deity is a stepping stone to contemplating the true nature of Ishvara, which is infinite, imperishable, and supreme.
“The light that emanates from the toenails of God’s personality is worshipped as the Brahman by the jñānīs.”
Therefore, there is no difference between the two forms. Neither of them is superior or inferior. In God’s personal form, His name, form, virtues, abode, pastimes, associates, etc., manifest as an extension of His divine energy. However, in the formless Brahman, even though all the divine potencies and energies exist, they are in a concealed form.
What is the real reason for the problem pointed out here? Why do most people think of Ishvara in finite terms? This is examined next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
यह श्लोक भगवान को अव्यक्त स्वरूप को समझने के लिये महत्वपूर्ण है जिस से आगे की गीता समझ में आ सके। परब्रह्म को अव्यक्त, अतिसूक्ष्म, निराकार, नित्य और दृष्टा आदि आदि कहा गया है, फिर भी जब स्वरूप को शब्दो से वर्णन न किए जाने के कारण नेति नेति कहा है।
भगवान के गुण, प्रभाव, नाम, स्वरूप और लीला आदि पर जिन का विश्वास नही है तथा जिन की मोहवृत और विषय विमोहित बुद्धि तर्क जालो से समाच्छन्न है, वे मनुष्य बुद्धिहीन है। उन लोगो की बुद्धि में यह बात आती ही नही कि समस्त जगत भगवान की ही द्विविध प्रकृति का विस्तार है और उन दोनों प्रकृति के परमाधार होने से भगवान ही सब से उत्तम है। उन के अचिन्त्य और अकथनीय स्वरूप , स्वभाव, महत्व तथा अप्रितम गुण मन एवम वाणी के द्वारा यथार्थ रूप में समझे और कहे नहीं जा सकते।
बुद्धिहीन होने का अर्थ मूर्ख या अज्ञानी होना नही है, यह लोग अपर्याप्त जानकार होते है किन्तु विषय के केंद्र बिंदु से हट कर उस के चारो और देखते या विचार करते है। उदाहरण के तौर पर, TV में अक्सर बहस पर उतरे लोग सिर्फ अपनी बात या अपनी पार्टी को सत्य सिद्ध करने में लगे रहते है, उन्हें विषय या विषय के बारे में अपने प्रतिद्वंदी द्वारा बोले किसी बात से कोई अर्थ या मतलब नही। इस का अर्थ यह नही है कि वह जानकार नही है, किन्तु अपने मतों, स्वार्थ, कामना, आसक्ति लोभ में स्वीकार नही करते, और समझ कर भी समझने को तैयार नही होते।
उन में बुद्धि का अभाव है प्रत्युत बुद्धि में विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसार को उत्पत्ति- विनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं यही उन में बुद्धिरहितपना है और मूढ़ता है। दूसरा भाव यह है कि कामना को कोई रख नहीं सकता कामना रह नहीं सकती क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामना पूर्ति के बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तव में कामना की सत्ता ही नहीं है फिर भी उस का त्याग नहीं कर सकते यही अबुद्धिपना है। मेरे स्वरूप को न जानने से ये लोग अन्य देवताओं की उपासना में लग गये और उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना में लग जाने से ये बुद्धिहीन मनुष्य मेरे से विमुख हो गये। यद्यपि ये मेरे से अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता तथापि कामना के कारण ज्ञान ढक जाने से ये देवताओं की तरफ खिंच जाते हैं। अगर ये मेरे को जान जाते तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।
(1) बुद्धिमान् मनुष्य वे होते हैं जो भगवान् अर्थात उस के अव्यक्त स्वरूप में परब्रह्म के शरण होते हैं। वे भगवान् को ही सर्वोपरि मानते हैं।
(2) अल्पमेधावाले मनुष्य वे होते हैं जो देवताओं के शरण होते हैं। वे देवताओं को अपने से बड़ा मानते हैं जिस से उन में थोड़ी नम्रता व सरलता रहती है।
(3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं जो भगवान् को देवता जैसा भी नहीं मानते किन्तु साधारण मनुष्य जैसा ही मानते हैं। वे अपने को ही सर्वोपरि सब से बड़ा मानते हैं
पृथ्वी जल तेज आदि जो महाभूत हैं जो कि विनाशी और विकारी हैं वे भी दो दो तरह के होते हैं स्थूल और सूक्ष्म। जैसे स्थूलरूप से पृथ्वी साकार है और परमाणुरूप से निराकार है जल बर्फ बूँदें बादल और भापरूप से साकार है और परमाणुरूप से निराकार है तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाई में रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होने से साकार है इत्यादि। इस तरह से भौतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में वह दो नहीं होती। साकार होने पर निराकार में कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होने पर साकार में कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। गीता साकार – निराकार, सगुण – निर्गुण, व्यक्त – अव्यक्त सभी को मानती है।
नवें अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान् ने अपने को अव्यक्तमूर्ति कहा है। चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान् ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सब का ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होने में और साकार होते हुए निराकार होने में भगवान् में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान् के स्वरूप को न जानने के कारण लोग उनके विषय में तरह तरह की कल्पनाएँ किया करते हैं।
अव्यक्त रूप को छोड़ कर व्यक्त स्वरूप धारण कर लेने की युक्ति को योग कहते है। वेदांती लोग इसे माया कहते है और इस योगमाया से ढका हुआ परमेश्वर व्यक्त स्वरूप धारी होता है। इसलिये व्यक्त सृष्टि मायिक अथवा अनित्य है और अव्यक्त परमेश्वर सच्चा इस नित्य है। कुछ लोग इस माया शक्ति अर्थात भगवान के व्यक्त स्वरूप को ही नित्य मानते है क्योंकि उन के अनुसार माया नित्य है। इसलिए कभी भी परमात्मा अवतार लेता है तो प्रकृति के नियमों अर्थात जन्म, बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ , वृद्ध होता हुआ अपने कर्म करता है, फिर वह भी शरीर त्याग देता है, किंतु उस के कर्म वा अवतार दिव्य होता है। इसलिए जो बुद्धिमान नही होते, वे उसे साधारण मनुष्य ही मानते है।
अद्वेत वेदांत के अनुसार भी माया परमेश्वर की ही कोई विलक्षण और अनादि लीला है। क्योंकि माया यद्यपि इंद्रियाओ का उत्पन्न किया हुआ है, तथापि इंद्रियां भी परमेश्वर की सत्ता से ही काम करती है। , अतएव अंत मे इस माया को परमेश्वर की ही लीला कहना पड़ता है। जिस नाम रूपात्मक माया से अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त माना जाता है, वह माया- फिर चाहे उसे अलौकिक शक्ति कहो या कुछ कहो, अज्ञान से उपजी हुई दिखाऊ वस्तु या मोह है और सत्य परमेश्वर तत्व इस से पृथक है। माया सत्य नही है, सत्य है एक परमेश्वर ही है।
सरल भाषा मे हम कह सकते है कि किसी भी कंपनी में आफिसर या डायरेक्टर कंपनी संचालन का व्यक्त रूप है जब कि कंपनी का संचालन शेयरहोल्डर करते है किंतु वो अव्यक्त रूप है। मॉल में काउंटर सेल, फिर मॉल मैनेजर, फिर सभी मॉल को नियंत्रित करने वाला मुख्य कार्यालय और फिर उस कंपनी के मालिक। यह मालिक उस मॉल के संचालन का अव्यक्त रूप है।
परमात्मा के व्यक्त स्वरूप से श्रद्धा और विश्वास की शुरुवात सगुणाकार से निर्गुणकार को प्राप्त करना है। व्यक्त रूप में मन को एकाग्र करने की सुविधा होती है। जिस से इन्द्रिय, मन, बुद्धि से परे निर्गुणकार ब्रह्म को अनुभव करने के पर्याप्त ऊर्जा, शक्ति और एकाग्रता प्राप्त की जा सके। परब्रह्म भी सृष्टि यज्ञ के संचालन के लिये व्यक्त स्वरूप में अवतार या महापुरुष के रूप में प्रकट होता है। किन्तु बुद्धिहीन जीव, उसी व्यक्त स्वरूप की आस्था और विश्वास से आगे नही बढ़ पाता और वह वही व्यक्त स्वरूप में ही ब्रह्म को अनुभव करने का प्रयास करने लग जाता है। परमात्मा का व्यक्त स्वरूप अनित्य ही है, अव्यक्त स्वरूप ही मन, इन्द्रियों, बुद्धि से परे है। इस को अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है और सब कुछ त्याग कर के ही प्राप्त किया जा सकता है। किंतु बुद्धि हींन जीव सांसारिक सुखों की कामना एवम आसक्ति में परमात्मा के व्यक्त स्वरूप को ही ब्रह्मस्वरूप मानने लगे जाता है।
सदाहरण मनुष्य अपनी बुद्धि हीनता है कारण, व्यक्त स्वरूप प्रकट हुए परमात्मा में ही मुझे देखता है। माया से प्रकट होने के कारण कोई भी देवता नित्य नही हो सकता। भगवान कृष्ण शरीरधारी योगी है। वो अन्य को योग प्रदान कर सकते है इसलिये योगेश्वर भी है। किंतु उन का शरीर माया स्वरूप है, परमात्मा उन व्यक्त स्वरूप में अव्यक्त भाव मे है जो नित्य है। बुद्धिहीन व्यक्ति कृष्ण रूप में प्रकट परमात्मा के व्यक्त स्वरूप को ही परमात्मा मान लेते है और पूजा करते है। वो उन के अव्यक्त स्वरूप को नही पहचान पाते। प्रकट स्वरूप में परमात्मा राम, कृष्ण या अन्य किसी भी देवी देवता के रूप में हो, परमात्मा की माया का ही स्वरूप है, अतः अनित्य है, नाशवान है, नष्ट होने वाला है। उन के एक और एक मात्र अव्यक्त स्वरूप में ही परमात्मा नित्य है। माया से भ्रमित लोग परमात्मा के अव्यक्त स्वरूप की बजाय व्यक्त स्वरूप की उपासना एवम पूजा करते है।
भगवान कहते है कि मैं ऐसा निर्विशेष, सामान्य तथा अव्यक्त स्वरूप होता हुआ भी और सब व्यक्तियों की भासमान सत्ता होता हुआ भी, वे बुद्धिहीन पुरुष मेरे अविनाशी परम भाव को न जानते हुए, इंद्रियाओ के ही अभ्यासी होने से मुझे व्यक्त स्वरूप ही मानते है और अपनी अपनी रुचि के अनुसार राम कृष्ण आदि किसी व्यक्त स्वरूप की ही उपासना करते है, इसलिये वे मुझे सर्वसाक्षी सर्वात्मा की शरण को प्राप्त नही होते। यद्यपि वे राम कृष्णादी मुझ सर्वात्मा के लीला विग्रह है और उन की उपासना मेरी शरण गति के लिये एक बीच का सोपान है, परंतु उस सोपान को ही उद्दिष्ट स्थान मान कर वे वहां ही डेरा डाल देते है और मेरी ओर आगे नही बढ़ते।
।। हरि ॐ तत सत ।। 7.24।।
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