।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 17 ।I
।। अध्याय 07. 17 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.17॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
“teṣāḿ jñānī nitya-yukta,
eka-bhaktir viśiṣyate..।
priyo hi jñānino ‘tyartham,
ahaḿ sa ca mama priyaḥ”..।।
भावार्थ:
इन में से वह ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ है जो सदैव अनन्य भाव से मेरी शुद्ध-भक्ति में स्थित रहता है क्योंकि ऎसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय होता हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय होता है। (१७)
Meaning:
Among those, the wise one who is constantly connected with single-pointed devotion is special, for I am dear to him, and he is dear to me.
Explanation:
Previously, Shri Krishna enumerated the four types of devotees that seek Ishvara’s refuge. Now, Shri Krishna says that the wise devotee is special among the four types of devotees. The wise devotee is always striving to be connected with him. Shri Krishna gives the reason for the special nature of this devotee in this and the next shloka.
Wise devotees develop selfless, exclusive, and incessant devotion toward GOD. Now that they have the knowledge that the happiness of the world is temporary and God is the source of eternal bliss, they neither crave for favorable circumstances nor lament over reversals in the world. They become situated in selfless devotion with complete self- surrender and for their Divine Beloved, they are willing to offer themselves as an offering in the fire of divine love. Shree Krishna declares that such devotees are dearest Him.
A wise devotee has also gone through a lot of ups and downs in life like anyone else. But he has taken the time to accurately analyze his situation. He has come to the conclusion that no matter what he gains – a new job, new house, investments and so on – he is still left with a sense of incompleteness. Unlike the other three types of devotees that seek something finite, he wants to go beyond finite things. In other words, he is seeking infinitude.
Having come to this conclusion, his search for infinitude has culminated in Ishvara. He intuitively knows that it is Ishvara that is going to give him infinitude. He then takes to the path of spirituality from the very early stages: karmayoga for purification of the mind, followed by meditation for single pointedness of mind, hoping eventually to culminate in attainment of the infinite Ishvara.
People coming to jñānam means meditation; another misconception; coming to jñānam does not mean meditation; in meditation you can reproduce only what you already know; can go on repeating that you already know, how can you know something new through meditation; and therefore, what is jñāna yōga, Krishna has already said in the fourth chapter.
Jñāna yōga means systematic study of scriptures under the guidance of a competent ācārya. what types of scriptures? Those scriptures which deal with the lower as well as higher nature of God. Not only the saguṇa Īśvara svarūpam; we should study that scripture which deals with the nirguṇa svarūpam also. So many people talk about Bhāgavatham, in fact Bhāgavatham is a wonderful scripture which deals with both Saguṇa Krishna and Nirguṇa Krishna but they filter the Nirguṇa portion. They will talk about, the story part is beautifully described and when there is the higher nature; quietly they skip. We have to study both the saguṇa and nirguṇa aparā and parā and therefore coming to jñānam means systematic study of scriptures.
There is another reason for the special nature of the wise devotee, which we shall see next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के श्लोक में ईश्वर ने उन को भजने वाले चार प्रकार के जीव बताए थे। यदि हम ध्यान से देखे तो ज्ञानी के अतिरिक्त तीनो प्रकार के जीव ईश्वर को पूजता तो अवश्य है किंतु उस के लिए उस की कोई न कोई कामना अवश्य रहती है। हम ने तत्वविद योगी एवम एकत्त्व या समतत्व भाव युक्त योगी के बारे में पिछले अध्यायों में पढ़ा है जो स्वयं की आत्मा को ईश्वर के इतना समीप ले जाता है कि उसे स्वयं की आत्मा में परमात्मा एवम परमात्मा में स्वयं की आत्मा दिखती है। अतः इसी एकत्त्व भाव के कारण ही भगवान कहते कि उन चार प्रकार के भक्तों में जो ज्ञानी है अर्थात् यथार्थ तत्त्व को जाननेवाला है वह तत्त्ववेत्ता होने के कारण सदा मुझ में स्थित है और उस की दृष्टि में अन्य किसी भजनेयोग्य वस्तु का अस्तित्व न रहने के कारण वह केवल एक मुझ परमात्मा में ही अनन्य भक्तिवाला होता है। इसलिये वह अनन्य प्रेमी ( ज्ञानी भक्त ) श्रेष्ठ माना जाता है। ( अन्य तीनोंकी अपेक्षा ) अधिक उच्च कोटि का समझा जाता है। क्योंकि मैं ज्ञानी का आत्मा हूँ इसलिये उस को अत्यन्त प्रिय हूँ। संसार में यह प्रसिद्ध ही है कि आत्मा ही प्रिय होता है। इसलिये ज्ञानी का आत्मा होनेके कारण भगवान् वासुदेव उसे अत्यन्त प्रिय होता है। यह अभिप्राय है। तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेवका आत्मा ही है अतः वह मेरा अत्यन्त प्रिय है।
ज्ञानी को प्रायः विवेचना करते हुए सन्यासी, त्यागी, ऋषि, मुनि, तपस्वी, योगी, संत या साधु समझ लिया जाता है।
ऋषि शब्द उन अन्वेषक अर्थात वैज्ञानिकों से लिया जाता है जो अध्यात्म से ले कर चिकित्सा, भौतिकी, रसायन, संगीत और मंत्रों पर रिसर्च करते रहते थे। इस में महऋषि उसे माना गया जिस में अपने अंदर की कामना और आसक्ति, क्रोध और मोह को नियंत्रित कर लिया हो और ब्रह्मऋषि वे लोग कहलाते है जिसे ज्ञान अर्थात अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो और अज्ञान से परे प्रकृति को अपना कर्म करते देखता है। सन्यासी जिस ने सांसारिक भोग विलास को त्याग दिया। त्यागी भी सन्यासी जैसे परंतु उन से कम ही होते है, जो संसार में रहते हुए, कुछ वस्तुओ को त्याग देते है। मुनि से हम उन तप करने वाले लोगो को लेते है जो मौन हो कर साधना अर्थात एकांत साधना करते है। तपस्वी वे लोग जो योग में तप अर्थात किसी लक्ष्य के लिए मंत्रों से, यज्ञ से या हठ योग करते है। संत सरल स्वभाव के जीव होते है जिन के मन में द्वेष, कपट, क्षोभ लोभ या मोह नहीं होता और साधु वही है जो किसी विशिष्ट विषय पर साधना करते है। योगी वह है जिस ने सत्व गुण के बाद अपने को परमात्मा से श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से जोड़ दिया है, जिस से वह अपने कर्म को निमित्त मानकर समर्पित भाव से करता है।
किंतु ज्ञानी वही है जिस ने अपने अज्ञान का अध्यास कर लिया हो अर्थात जिस ने अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचान कर अपने अज्ञान को नष्ट कर दिया हो। ज्ञानी की स्थिति अद्वैत भाव की होती है, इसलिए उस में और परमात्मा में कोई अंतर नही रह जाता। इसलिए जिस ने सन्यास, कर्म, भक्ति या बुद्धि योग से ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्रह्मसंध हो गया हो, वह ज्ञानी ही परमात्मा को अत्यंत प्रिय होता है।
गीता की मीमांसा में अक्सर सन्यास अर्थात सांख्य की प्रधानता उन मीमांसकों द्वारा ज्यादा रखी गई है जो साधु, संत आदि है। कर्मयोगी या गृहस्थ लोग उन्ही को अनुसरण भी करते है। गीता युद्ध भूमि में परमात्मा द्वारा क्षत्रिय योद्धा को अपने कर्तव्य कर्म का पालन कैसे किया जाए, का ज्ञान है। तो वह कर्मयोग अर्थात निष्काम, निर्लिप्त और योगी भाव से कर्म करने को प्रेरित करता है। क्योंकि गीता के पूर्व ही अर्जुन सन्यास को तैयार था। वह सन्यास और कर्म में जो उस के लिए श्रेष्ठ मार्ग है, जानने का जिज्ञासु भी था। उसे भी सभी मार्ग श्रेष्ठ बताते हुए भी, कर्मयोग ही उत्तम बताया गया। अतः ज्ञानी की अवस्था भक्ति, कर्म और सन्यास में आत्मशुद्धि को प्राप्त करने के बाद की है, जो तीनो या सभी मार्ग को समान रूप से लागू होती है।
ज्ञानी व्यक्ति किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं वरन् अपने मन की उन प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए ईश्वर का आह्वान करता है जिस के कारण उस के मन की शक्ति का जगत् के मिथ्या आकर्षणों में व्यर्थ अपव्यय होता है। अत स्वाभाविक है कि आत्मस्वरूप में स्थित भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे ज्ञानी पुरुष को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जिसके मन में आत्मानुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई कामना ही नहीं रहती। ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ। प्रेम का मापदण्ड है प्रियतम के साथ हुआ तादात्म्य। वास्तव में आत्मसमर्पण की धुन पर ही प्रेम का गीत गाया जाता है। निस्वार्थता प्रेम का आधार है। प्रेम की मांग है समस्त कालों एवं परिस्थितियों में बिना किसी प्रतिदान की आशा के सर्वस्व दान। प्रेम के इस स्वरूप को समझने पर ही ज्ञात होगा कि ज्ञानी भक्त का प्रेम ही वास्तविक शुद्ध और पूर्ण प्रेम होता है।एकपक्षीय प्रेम की परिसमाप्ति कभी पूर्णत्व में नहीं हो सकती। यहाँ भगवान् स्पष्ट कहते हैं ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और मुझे वह अत्यन्त प्रिय है। इस कथन में एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है। प्रेम का यह सनातन नियम है कि वह निष्काम होने पर न केवल पूर्णता को प्राप्त होता है वरन् उसमें एक दुष्ट को भी आदर्श बनाने की विचित्र सार्मथ्य होती है।यह एक सुविचारित एवं सुविदित तथ्य है कि यदि किसी व्यक्ति का मन किसी एक विशेष भावना जैसे दुख द्वेष मत्सर करुणा से भर जाता है तो उसके समीपस्थ लोगों के मन पर भी उस तीव्र भावना का प्रभाव पड़ता है। अत यदि हम किसी को निस्वार्थ शुद्ध प्रेम दे सकें तो हमारे दुष्ट शत्रु का भी हृदय परिवर्तित हो सकता है। यह नियम है।यह मनोवैज्ञानिक सत्य भगवान् के इस कथन में स्पष्ट होता है कि ज्ञानी को मैं और मुझे ज्ञानी अत्यन्त प्रिय है।
भक्ति योग में प्रिय होना, ज्ञान योग में समभाव होना एक समान है। जीव का लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर के परब्रह्म में लीन होना है। ज्ञानी भक्ति में वैराग्य होने से, उस का प्रकृति से कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव कम होता जाता है। जैसे ही वह प्रकृति से अपने को पृथक जान लेता है, वह परब्रह्म के करीब हो जाता है। सन्त कबीर, रैदास, मीरा, तुलसीदास आदि संत ज्ञानी और भक्ति प्रेरित ज्ञानी भक्त थे, जिन्हें परमात्मा द्वारा मोक्ष प्राप्त हुआ।
भगवान् ने ज्ञानी भक्त को अपना अत्यन्त प्यारा बताया किन्तु भगवान् ने दूसरे भक्तों के क्या कहते है, इसे आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 7.17।।
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