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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 16 I Additional II

।। अध्याय     07. 16 ।। विशेष II

।। मंथन रामसुखदास जी द्वारा ।। विशेष – 7.16 ।।

सुकृती मनुष्य दो प्रकार के होते हैं एक तो यज्ञ दान तप आदि और वर्ण आश्रम के शास्त्रीय कर्म भगवान् के लिये करते हैं अथवा उन को भगवान् के अर्पण करते हैं और दूसरे भगवन् नाम का जप तथा कीर्तन करना भगवान् की लीला सुनना तथा कहना आदि केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म करते हैं। जिन की भगवान् में रुचि हो गयी है वे ही भाग्यशाली हैं वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने योग्य हैं। वह रुचि चाहे किसी पूर्व पुण्य से हो गयी हो चाहे आफत के समय दूसरों का सहारा छूट जाने से हो गयी हो चाहे किसी विश्वसनीय मनुष्य के द्वारा समय पर धोखा देने से हो गयी हो चाहे सत्सङ्ग स्वाध्याय अथवा विचार आदि से हो गयी हो किसी भी कारण से भगवान् में रुचि होने से वे सभी सुकृती मनुष्य हैं। जब भगवान् की तरफ रुचि हो जाय वही पवित्र दिन है वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान् की तरफ रुचि नहीं होती वही काला दिन है वही विपत्ति है

इसी प्रकार कामना दो तरह की होती है पारमार्थिक और लौकिक। (1) पारमार्थिक कामना पारमार्थिक कामना दो तरह की होती है मुक्ति (कल्याण) की और भक्ति (भगवत्प्रेम) की।

जो मुक्ति की कामना है उस में तत्त्व को जानने की इच्छा होती है जिसे जिज्ञासा कहते हैं। यह जिज्ञासा जिस में होती है वह जिज्ञासु होता है। गहरा विचार किया जाय तो जिज्ञासा कामना नहीं है क्योंकि वह अपने स्वरूप को अर्थात् तत्त्व को जानना चाहता है जो वास्तव में उस की आवश्यकता है। आवश्यकता उस को कहते हैं जो जरूर पूरी होती है और पूरी होने पर फिर दूसरी आवश्यकता पैदा नहीं होती। यह आवश्यकता सत्व विषय की होती है।

दूसरी कामना प्रभु प्रेम प्राप्ति की होती है। उस को प्राप्ति तो कहते हैं पर वास्तव में वह प्राप्ति अपने लिये नहीं होती प्रत्युत प्रभु के लिये ही होती है। उस में अपना किञ्चिन्मात्र प्रयोजन नहीं रहता प्रभु के समर्पित होने का ही प्रयोजन रहता है। प्रेमी तो अपने आप को प्रभु के समर्पित कर देता है जो कि उसी का अंश है।उपर्युक्त दोनों ही पारमार्थिक कामनाएँ वास्तव में कामना नहीं हैं।

(2) लौकिक कामना लौकिक कामना भी दो तरह की होती है सुख प्राप्त करने की और दुःख दूर करने की। शरीर को आराम मिले जीते जी मेरा आदर सत्कार होता रहे और मरने के बाद मेरा नाम अमर हो जाय मेरा स्मारक बन जाय कोई ग्रन्थ बना दे जिस को लोग देखते रहें पढ़ते रहें और यह जान जायँ कि ऐसा कोई विलक्षण पुरुष हुआ है मरने के बाद स्वर्ग आदि में भोग भोगते रहें आदि आदि लौकिक सुखप्राप्ति की कामनाएँ होती हैं। ऐसी कामनाओं से तो वासना ही बढ़ती है जिस से बन्धन और पतन ही होता है उद्धार नहीं होता। यह कामना आसुरी सम्पत्ति है इसलिये यह त्याज्य है। दूसरी कामना दुःख दूर करने की है। दुःख तीन प्रकार के हैं आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक। अतिवृष्टि अनावृष्टि सरदी गरमी वायु आदि से जो दुःख होता है उस को आधिदैविक कहते हैं। यह दुःख देवताओं के अधिकार से होता है। सिंह साँप चोर आदि प्राणियों से जो दुःख होता है उस को आधिभौतिक कहते हैं।

शरीर और अन्तःकरण को लेकर जो दुःख होता है वह आध्यात्मिक होता है। इन दुःखों को दूर करने की और सुख प्राप्त करने की जो कामना होती है वह सर्वथा निरर्थक है क्योंकि उस कामना की पूर्ति नहीं होती। पूर्ति हो भी जाती है तो दूसरी नयी कामना पैदा हो जाती है और अन्त में अपूर्ति ही बाकी रहती है। इसलिये इन दोनों कामनाओं की पूर्ति किसी भी मनुष्य की कभी भी नहीं हुई न होती है और न भविष्य में ही पूरी होनेवाली है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 7.16 ।।

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