।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 14 ।I
।। अध्याय 07. 14 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.14॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
“daivī hy eṣā guṇa-mayī,
mama māyā duratyayā..।
mām eva ye prapadyante,
māyām etāḿ taranti te”..।।
भावार्थ:
यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी अपरा शक्ति स्वरुप माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं। (१४)
Meaning:
For this, my divine maaya, comprised of the gunaas, is hard to cross. Only they who seek my refuge, cross over my maaya.
Explanation:
At this point in the seventh chapter, Shri Krishna has framed an interesting problem for us. If our mind with its senses is attracted to sense objects because of the play of the three gunaas, and if Ishvara is beyond the three gunaas, we need to somehow pierce through gunaas to contact Ishvara. If we cannot do it with our mind with its sense organs, how do we do it? We need some additional help. Shri Krishna says that the only solution is to surrender to Ishvara.
First, let us understand what exactly is preventing us from contacting Ishvara. Shri Krishna says that there is something called maaya is the barrier between us and Ishvara. What exactly is this maaya? It is nothing special, it is the 3 gunaas that saw in the previous shloka. Where is this maaya located? Not too far away. It is in our mind, and we can see its effect daily. Just when we think we are studying Gita and are immune to its effect, we suddenly get an angry thought about a friend or a co-worker. That is maaya. Some people claim that Maya is mithyā (non-existent). They say that the material energy Maya is a perception created due to our ignorance, but if someone attains spiritual knowledge, Maya will cease to exist. The soul itself is the Ultimate Reality, and once we understand that all illusions shall dispel. However, this theory is negated by the Bhagavad Gita in this verse. Shree Krishna has already stated that Maya is an extension of His energy and not an illusion. The Śhwetāśhvatar Upaniṣhad also states:
“Maya is the energy (prakṛiti), while God is the Energetic.”
The Ramayan states: “Some people think Maya is mithyā (non-existent), but factually it is an energy engaged in the service of God.”
Now if maaya is the moat that blocks access to Ishvara, how do we cross it?
Shri Krishna says that in order to cross over maaya, we have to surrender to Ishvara completely. This type of complete surrender is indicated by the word “prapadyante” in the shloka. It literally means falling down at someone’s feet. To visualize it, imagine that the devotee is holding onto Ishvara’s feet, and also keeping one hand under Ishvara’s feet. With this arrangement, the devotee will not run away from Ishvara, and Ishvara will also not run away from the devotee.
In the same way, we are in the clutches of Maya, the material energy. Although it is subservient to God, it keeps troubling us so that we keep moving towards God. By our own efforts, we cannot defeat Maya; only when we surrender completely to God, by His grace, we can cross the ocean of material existence.
Now, what does surrender mean in practice? As long as we assert ourselves physically, emotionally and intellectually, as long as we emphasize our individuality and assert our ego, we will strengthen maaya. So therefore, we need to de-emphasize our individuality and strengthen our devotion to Ishvara. When we surrender ourselves to Ishvara, we give up the notion that “I do everything” or “I own everything”. It is all Ishvara’s maaya. By distancing ourselves from maaya, we get closer to Ishvara.
Moreover, Shri Krishna says that maaya is divine, which means that it is supported by Ishvara, but it has reality on its own. In our lives, however, we still rely on maaya for support. We rely on our savings, friends, family, job, education and so on as our refuge if times get tough. But all this is still the product of maaya. Once we shift our thinking that maaya cannot be a support, we will rely on the cause of maaya for support instead of maaya. And that cause is Ishvara. We can only enjoy bungee jumping when we have a strong rope and support. Similarly, we can enjoy the play of maaya if we have tethered ourselves to Ishvara.
How should we practice this daily? We should continue performing our duties as we saw in the previous chapters. What we should change, however, is our attitude. Whenever we start giving importance worldly things including people, objects, and situations, we should train ourselves to shift our attention to Ishvara who is behind everything. But we should not use this to justify all our wrong doings. As we saw in a previous chapter, prakriti or nature is a self- regulating system. If we do something that is against the laws of nature, it will come back to us as a punishment.
The next question in our mind would be, “If it is so easy to defeat So then, having understood this, why do people not seek Ishvara?
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में हम ने पढ़ा कि यह जीव पांच तत्व, मन, बुद्धि एवम अहंकार से युक्त है। इसलिये प्रकृति इस मे मोह एवम अहम को अपने त्रियामी गुणों से जोड़ देती है जिस को माया कहा गया है। जैसे ही कर्ता भाव आता है तो जीव को सांसारिक सुखों में ही आनंद आता है और इस आनंद के लिये ही वो कर्म भी करता हुआ कर्म बंधन में बंधता जाता है। यही प्रभु की माया है जिसे कोई नही समझ सकता।
सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति का आधार जीव और प्रकृति का संयोग है। जिसे गीता में वेदांत के अनुसार भी परा और अपरा प्रकृति का नाम दिया गया है। जीव को परब्रह्म का अंश कहा गया है किंतु प्रकृति के संयोग से उस में अष्टधा प्रकृति के विकार आ जाते है और उसे जीवात्मा कहा जाता है।
सत्त्व रज और तम तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उन के साथ तादात्म्य कर के मनुष्य अपने को सात्त्विक राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उन का अपने में आरोप कर लेता है कि मैं सात्त्विक राजस और तामस हो गया हूँ। इस प्रकार तीनों गुणों से मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्मा की तरफ न देख कर उत्पन्न और नष्ट होने वाली वृत्तियों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है यही उस का मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होने के कारण वह मेरा परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध है इस को समझ ही नहीं सकता।
यहाँ जगत् शब्द जीवात्मा का वाचक है। निरन्तर परिवर्तनशील शरीर के साथ तादात्म्य होने के कारण ही यह जीव जगत् नाम से कहा जाता है। तात्पर्य है कि शरीर के जन्म में “मैं ” अर्थात अपना जन्मना शरीर के मरने में अपना मरना शरीर के बीमार होने में अपना बीमार होना और शरीर के स्वस्थ होने में अपना स्वस्थ होना मान लेता है, इसी से यह जगत् नाम से कहा जाता है। जब तक यह शरीर के साथ अपना तादात्म्य मानेगा तब तक यह जगत् ही रहेगा अर्थात् जन्मता मरता ही रहेगा कहीं भी स्थायी नहीं रहेगा। गुणों की भगवान् के सिवाय अलग सत्ता मानने से ही प्राणी मोहित होते हैं। अगर वे गुणों को भगवत्स्वरूप मानें तो कभी मोहित हो ही नहीं सकते। तीनों गुणों का कार्य जो शरीर है उस शरीर को चाहे अपना मान लें चाहे अपने को शरीर मान लें दोनों ही मान्यताओं से मोह पैदा होता है। शरीर को अपना मानना ममता हुई और अपने को शरीर मानना अहंता हुई। शरीर के साथ अहंता ममता करना ही मोहित होना है। मोहित हो जाने से गुणों से सर्वथा अतीत जो भगवत्तत्त्व है उस को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्षण नष्ट होने वाले तीनों गुणों से परे हैं अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्यनिरन्तर एकरूप रहने वाले हैं ऐसे परमात्मा स्वाभाविक हैं। परमात्मा की यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है, कृत्रिम नहीं है और अभ्यास साध्य भी नहीं है प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है। परंतु शरीर तथा संसार में अहंता ममता अर्थात् मैं और मेरा भाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होनेवाला है यह केवल माना हुआ है इसलिये यह अस्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक को स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है जिस के कारण मनुष्य स्वाभाविकता को समझ नहीं सकता।
भगवान कहते है कि यह गुणात्मक एवम दिव्य स्वरूप मेरी माया अत्यंत दुस्तर है, जो इस माया को पार करते है वो ही मुझे प्राप्त करते है। यह देवी स्वरूपी माया इतनी दुस्तर है कि माया से प्रभावित लोग इस माया की ही पूजा अर्जना करने लग जाते है, जिस के कारण मुझे प्राप्त नही कर पाते। जैसे रोशनी के अभाव के कारण अंधकार छाया रहता है या फिर तत्वज्ञान के अभाव में अज्ञान ही ज्ञान बना रहता है वैसे ही परमात्मा है, इस के अभाव में जीव परमात्मा की माया में फस कर परमात्मा के स्वरूप को ही परमात्मा समझ कर पूजता रहता है एवम अपने मन, बुद्धि, अहम एवम कामना से भ्रमित हो कर मेरी अपरा प्रकृति में मेरे को खोजता रहता है।
माया कितनी दुस्तर हो सकती है इस का अंदाज हम इस बात से भी लगा सकते है कि भगवान ने जब अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन नारद मुनि को दिए तो यह भी कहा ” हे नारद! तुम जिसे देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। तू मुझे सब प्राणियों के गुणों से युक्त मन समझ” क्योंकि परमात्मा ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि अपरा प्रकृति के हर गुण में मैं ही हूँ किन्तु इन मे कोई भी मुझ में नही है।
परमात्मा को प्राप्त कैसे करे इस के लिये हमें पुनः अध्याय 2 से 6 तक जाना होगा जिस में हमे निष्काम कर्मयोगी बन कर ज्ञान प्राप्त करते हुए तत्वविद बनना है एवम सभी मे परमात्मा का स्वरूप देखते हुए उस की शरण को स्वीकार करना है और सर्वात्म भाव से अपनी आत्मा में परमात्मा एवम परमात्मा हो अपनी आत्मा में देखना है।
आज के सांसारिक प्रपंच में जहां दिनचर्या शरीर से शुरू होती है एवम परिवार, रहन सहन, समाज, देश एवम व्यापार आदि में ही घूमती रहती है, इस को कहना बेमानी लगता है। हम परमात्मा को कथाएं कह सुन कर, परमात्मा को देव स्थान या तीर्थो में पूजे कर एवम संत महात्मा के शरणागत हो परिपूर्ण समझ लेते है। किंतु यह भूल जाते है जिस छवि या स्वरूप को हम परमात्मा समझ रहे है वो माया ही है। इसलिये ही यह दुस्तर है। हम अपने अज्ञान को प्रकाशित करते है, क्योंकि हम सात्विक होना ही ज्ञान समझते है। हमारे कर्म और चेष्टाएँ भले ही परब्रह्म के सम्बंध में हो किन्तु यह हमारा वाचा ज्ञान ही होता है, जो हम व्हाट्सएप्प, प्रवचन, यु टयूब, योग कक्षाएं आदि लगा कर करते है।
ज्ञान को प्राप्त नही किया जा सकता, यह तो प्राप्त ही है, जरूरत अज्ञान को मिटाने की होती है। हम अज्ञान अर्थात प्रकृति में ज्ञान स्थापित करते है। दान- पुण्य, धर्म, यज्ञ आदि स्वर्ग, परलोक आदि के सुख भोग के लिये करते है। माया में फसे हुए जीव के पास परब्रह्म को समझने और जानने के लिए साधन भी प्रकृति के ही मन और बुद्धि है। अर्थात जिस से तुम्हे बाहर होना है, उस में साधन भी उसी का हो तो कोई कैसे बाहर हो सकता है, जब स्वयं माया ने ही उसे जकड़ रखा हो।
बिरले योगी निष्काम भाव से कर्म करते हुए अहम एवम कामनाओं का त्याग करते हुए इस को प्राप्त करते है। जिज्ञासा से शुरू हुआ परमात्मा के प्रति विस्वास जन्म जन्मांतर तक कभी नष्ट नही होता, इसलिये परमात्मा के प्रति विस्वास के साथ बढ़ते रहे तो परमात्मा अवश्य मिलेगा। जरूरत मात्र निष्काम भाव से कर्म एवम ज्ञान की है। हमे अज्ञान से बचते रहना चाहिए। जीव जब अपरा प्रकृति एवम परा प्रकृति को जान जाता है तो उसे अपने मन एवम बुद्धि पर नियंत्रण भी आ जाता है जिस से वो शनेः शनेः परमात्मा की ओर अपने अहम एवम कामना का त्याग करते हुए बढ़ता है एवम निष्काम होने से कर्मो से बंधन से मुक्त भी होने लगता है। अतः शरणागत होना भी हो तो, व्यक्ति विशेष की बजाए, परमात्मा की शरण मे जाना चाहिए। ज्ञान को प्राप्त होना अत्यंत कठिन माना गया है किंतु जिस के सर पर सम्पन्न व्यक्ति का हाथ हो वह सांसारिक जीवन भी सुख से भोगता है, इसलिये जिस ने परमात्मा की शरण ली हो, उस को ज्ञान की प्राप्ति करवाने का दायित्व परमात्मा स्वयं अपने ऊपर ले लेता है। माया के दुष्चक्र से बचने एवम प्रकृति से बाहर परब्रह्म की प्राप्ति के भगवान श्री कृष्ण अपने शरणागत होने को कहते है किंतु माया ग्रसित जीव शरणागत भी माया से प्रेरित हो होता है और उस से अपने लिये सांसारिक सुख भोग कामना करता है। सत्य यही है कि किंतने लोग मंदिर में मोक्ष की कामना से जाते है ?
अतः शरणागत हो कर भक्ति यानि परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास और प्रेम अटूट नही होगा, तब तक भक्ति शुरू नही होगी। फिर भक्ति में हमारी कामनाएं और आसक्ति सांसारिक सुख या सांसारिक दुख से निवारण की होगी तो यह निम्न स्तर की भक्ति से मुक्ति नही हो सकती। माध्यम भक्ति में यदि कामना और आसक्ति स्वर्ग, वैकुंठ या ब्रह्मलोक की भी तो भी हमे ज्ञात होना चाहिए कि मृत्यु लोक से ब्रह्मलोक के समस्त 14 लोक और संपूर्ण ब्रह्मांड तक अपरा प्रकृति ही का विस्तार है। फिर ब्रह्मा से ले कर स्वर्गलोक और अन्य लोक के देवी – देवता, यक्ष, पितर, गंधर्व आदि भी अपरा प्रकृति के अंतर्गत है और माया से मुक्त नही। पहले भी लिखा जा चुका है कि ईश्वर या देवता वह है जिस ने माया को नियंत्रित कर लिया और जो माया से नियंत्रित है, वह जीवात्मा है। इसलिए जिसे वेदों, उपनिषदों और गीता में परब्रह्म कहा गया है वह तो इन सबसे परे है, जिसे आगे हम विस्तार से पढ़ेंगे। अतः कामना और आसक्ति किसी भी स्वरूप में हो, वह प्रकृति की ही होगी। अतः भक्ति उत्तम प्रकार अर्थात मुमुक्षु की भांति परमात्मा की होनी चाहिए, जो मीरा, गोपियों, राधा की थी। भक्ति और भक्त के गुणों को विस्तार से भक्तियोग में पढ़ेंगे।
जो प्राणी अपरा प्रकृति में माया को समझ नही पाते उन के बारे में हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 7.14।।
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