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- Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  01 ।। Preamble II

।। अध्याय 01 ।। प्रस्तावना II

II PREAMBLE II Arjun Vishad Yog II

The Bhagavad Gita, or the song of God, was revealed by Lord Shree Krishna to Arjun on the threshold of the epic war of Mahabharata. A decisive battle between two sets of cousins, the Kauravas and the Pandavas, was just about to commence on the battlefield of Kurukshetra. A detailed account of the reasons that led to such a colossal war; is given under Introduction-The Setting of the Bhagavad Gita.

The Bhagavad Gita is primarily a conversation between Lord Shree Krishna and Arjun. However, the first chapter begins with a dialogue between King Dhritarashtra and his minister Sanjay. Dhritarashtra being blind, could not leave his palace in Hastinapur but was eager to know the ongoings of the battlefield.

Sanjay was a disciple of Sage Ved Vyas, the author of the epic Mahabharata and several other Hindu scriptures. Sage Ved Vyas possessed a mystic ability to see and hear events occurring in distant places. He had bestowed upon Sanjay the miraculous power of distant vision. Therefore, Sanjay could see and hear, what transpired on the battleground of Kurukshetra, and gave a first-hand account to King Dhritarashtra while still being in his palace.

(Preamble – Courtesy – The Songs of GOD – Swami Mukundananda)

।। प्रथम अध्याय ।। अर्जुन विषाद योग II

प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण नाटकीय रंगमंच प्रस्तुत करता है जिसमें श्रोता और वक्ता दोनों ही कुतूहल शांति के लिए नहीं वरन् जीवन की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त होते हैं। शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों की प्रभूत मात्रा से अर्जुन का व्यक्तित्व बना था और इन चारों के ऊपर दो गुण और थे एक क्षमा, दूसरी प्रज्ञा। बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होनेवाली स्थिति में पहुँचकर सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यह माना है कि मन की इस कातरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करे, क्या न करे, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

कृष्ण ने अर्जुन की वह स्थिति देखकर जान लिया कि अर्जुन का शरीर ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने से पहले ही उस अद्भुत क्षत्रिय का मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु कर्तव्य आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

गीता जिस भौगोलिक स्थिति में शुरू की गई है, वह सामान्य जीवन की वास्तविक स्थिति है जब मनुष्य अपने कर्तव्य पालन के लिये अनेक विरोधों का सामना करता है, जिस में अधिकांश उस के अपने होते है। यद्यपि ज्ञान पर्याप्त होने के बावजूद निर्णय नही ले पाता। इसलिये वह निराशा से घिर जाता है।

गीता में अर्जुन जिन तर्क के साथ प्रश्न करता है, वह उस के शाब्दिक ज्ञान के ही शब्द होते है। अन्तःकरण से उपजा ज्ञान, जिसे हम मनोमय से पहचानेंगे, कभी भी व्यक्ति को भ्रम की स्थिति में नही डालता। अतः जिस को हम नही जानते उसे संशय निवारण हेतु एवम जिज्ञासा द्वारा समझना जरूरी है, जो हम प्रायः अपने अहम में नकारात्मक हो कर समझने से पहले ही निर्णय ले चुके होते है। यह गीता पढ़ने से पूर्व भी सांसारिक द्वंद में उलझे हुए लोग, अक्सर गीता के बारे में अपने तर्क रखते ही रहते है। हमे इन से सावधान हो कर समर्पित भाव से गीता को अन्तःकरण से ही समझना होगा।

।। हरि ॐ तत सत ।। 01 II

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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