।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 08 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 08 ।। विशेष II
।। कर्म, निर्णय और उस का प्रभाव ।। विशेष 2.08।।
अर्जुन की मन स्थिति सामान्य कर्म योद्धा की स्थिति है जब उस के सामने कर्तव्य, धर्म, न्याय एवम आचरण एक साथ खड़े हो जाये तो यह तय करना अत्यंत मुश्किल है कि क्या किया जाए, इसी को गीता में अत्यंत सूक्ष्म रूप में बताया गया है।
एक ही कर्म करने के जब अनेक मार्ग सामने हो तो उस मे उत्तम का चयन कैसे करे। कौन सा शुद्ध मार्ग है। उस के अपवाद क्या क्या है। वह मार्ग ही क्यों उत्तम है?, इसी को जानना ही योगशास्त्र है। गीता का अध्ययन योग शास्त्र का अध्ययन है। अच्छे -बुरे के समानार्थक शुभ-अशुभ, हितकर-अहितकर, श्रेयस्कर-अश्रेयस्कर, कर्तव्य- अकर्तव्य, पाप-पुण्य, धर्म- अधर्म भी है। शास्त्रो में कर्मयोग शास्त्र के निरूपण सदाहरणतयः तीन प्रकार से की गई है।
1) अतिभौतिकवाद – बाह्य जगत में जो इन्द्रियों से गोचर है, वही सत्य है। किसी भी कर्म के बाह्य फल को देख कर नीति या अनीति के निर्णय करने वाले पक्ष को अतिभौतिक वाद अर्थात अति भौतिक सुखवाद कहा गया। परलोक या आत्मविद्या के प्रति इस वाद को मानने वाले उदासीन रहे। पश्चिम देशों की सभ्यता का विकास इसी वाद पर हुआ। इस के तीन स्वरूप 1) स्वार्थ सुखवादी 2) परार्थ सुखवादी और सर्व सुख वादी।
संसार के सारे सुख मेरे हो, मैं ही इस संसार मे राज करू यही स्वार्थ सुखवाद है, किन्तु जब अपने ही सुख से काम न चले तो अपने स्वार्थ में दूसरे का स्वार्थ देखना परार्थ सुखवाद है एवम जिस काम से अधिक लोगो को लाभ हो, वह सर्व सुखवादी है। किन्तु सभी के लिये सुख की बात कल्पना ही है, भौतिक साधन से सुख की उपलब्धि है तो दुख भी उस के साथ ही है। जो किसी का लाभ का कारण होगी तो अन्य के लिये हानि का। भौतिक सुखवाद परिवर्तनशील एवम अस्थायी होता है।
भौतिक सुख साधनों, चिकित्सा एवम मानव जाति के विकास के विज्ञान ने जो उन्नति की है, वह सर्व सुख वाद है। किंतु इसी विज्ञान से मानव ने पर्यावरण को भी इतनी क्षति पहुंचा दी, जिस से जीवन सरल नहीं रहा। युद्ध का भय क्या विज्ञान की देन नही है?
अर्जुन की समस्या युद्ध के होने वाली हानि की भी है। इतने सैनिकों का बलिदान एवम अपने जनों का बलिदान सिर्फ राज्य के लिये करना उचित है।
अतिभौतिकवाद सिर्फ सांसारिक सुखों को ध्यान में रख कर निर्णय लेने का नीतिशास्त्र है। आजादी की लड़ाई लड़ने वालों में, नए नए अविष्कार, जन सेवा, व्यापार, सुख ऐशवर्य के लिये मेहनत करने वाले अपने निर्णय इसी नीति शास्त्र में खोजते है।
2) अतिदैविकवाद – इस नीतिशास्त्र में यह मान्यता है कि हर वस्तु, घटना या कर्म बिना की शक्ति के नही होती। उस को संचालित करने वाली देवी शक्ति ही तय करती है। इसी प्रकार 33 करोड़ दैवी देवताओ की स्थापना हुई। इस वाद को मानने वाले सांसारिक सुखों के विभिन्न देवी – देवताओं की आराधना करते हुए, उन से अपने सांसारिक, लौकिक और परालौकिक सुखों के चमत्कार की आशा रखते है। आज के युग में मंदिरों की पूजा, यज्ञ – हवन, भगवद कथाएं जो सांसारिक या स्वर्ग सुखों की प्राप्ति के लिए की जाती है, इसी श्रेणी में आती है। अतिदैविकवाद भी जब अंधभक्ति और अंधविश्वास की ओर बढ़ने लगता है तो अतिभौतिक वाद की भांति मानव कल्याण में हानि ही पहुंचाता है।
3) अध्यात्म वाद – सम्पूर्ण जगत का रचना परब्रह्म के संकल्प के कारण है, इसलिये जीव का कर्तव्य है कि वह अपने कर्म इस प्रकार करे कि वह उस के बंधन में न फसे एवम मोक्ष को प्राप्त हो। इस मे सत-चित-आनन्द में परमानंद का स्थायी आनंद की प्राप्ति को अधिक बल दिया गया है।
जीवन के लक्ष्य को धर्म, अर्थ, काम एवम मोक्ष चार भागों के विभाजित किया गया है। अतः स्पष्ट है, धर्म मोक्ष नही है, अर्थ से यह जीवन चलता है और कामना से प्रेरणा मिलती है किंतु अंत मे बिना मोक्ष के गति नही। प्रत्येक जीव के निर्णय का आधार यही चारो स्तंभ होना चाहिये। किस एकवाद पर निर्णय अन्य वाद में गलत हो सकता है। निर्णय कोई स्थायी नही है, यह समय, स्थान, परिस्थिति एवम व्यक्तिगत वर्ण व्यवस्था एवम क्षमता से तय होता है। इसमें धर्मशास्त्रों से मार्गदर्शन लिया जाता है एवम अपने से श्रेष्ठ जनों के कार्यो एवम आदेशो को समझ कर तय किया जाता है। अंत सिर्फ मोक्ष है, अतः निर्णय का अंतिम लक्ष्य भी मोक्ष ही होना चाहिये।
कर्म के विवेचन में निर्णय का आधार किस वाद (सिंद्धांत) पर है, प्रभावित करता है। जो निर्णय भौतिक दृष्टिकोण से सही हो सकती है, वह अध्यात्म में गलत हो। भौतिक में भी जो सुखवाद में सही हो वो सर्वजन हिताय भाव मे गलत हो। जो निर्णय त्रेता काल मे सही था, कल युग मे न भी हो। सही और गलत को पहचानना ही योग शास्त्र है, जिस में अंधानुकरण की बजाए विवेक की आवश्यकता एवम योग साधना की जरूरत है। यही गीता में अर्जुन की परिस्थिति को सामने रख कर दिया हुआ ज्ञान है। अब जो ज्ञान साधना से भी परहेज करें वो दुर्योधन की श्रेणी में या कौरव एवम पांडव के महान योद्धाओ की श्रेणी में आते है, जिन्होंने स्वयं को अपने की ज्ञान से बांध दिया है।
जीवन अद्भुत एवम आश्चर्यजनक है। सांसारिक सुखों को एवम शरीर की क्षमताओं और सीमाओं को कोई नकार नही सकता एवम परब्रह्म के अस्तित्व को अस्वीकार भी नही कर सकता। गीता ने इसलिये अर्जुन के माध्यम से प्रथम अध्याय से द्वितीय अध्याय के श्लोक 10 तक इन्ही प्रश्नों को अर्जुन के माध्यम से द्वंद रूप में युद्ध भूमि के अंतर्गत बताया है।
धार्मिक, सामाजिक एवम पारिवारिक वातावरण में जब धार्मिक क्रियाएं में सुविधा, धन, काम और सुखवाद का प्रभाव अधिक हो तो आने वाली पीढ़ी में संस्कार और रीति रिवाज के पालन का अभाव ही होगा। अर्जुन ने भी युद्ध के बाद जिस स्थिति की कल्पना की थी, वही स्थिति ही अतिसुखवाद या अतिदैविकवाद का व्यवसायिक करण होने से भी हो सकती है।
गीता सम्पूर्ण योग शास्त्र है, इसलिये सांख्य, भक्ति एवम बुद्धियोग को कर्मयोग से जोड़ते हुए, मानव जीवन के सम्पूर्ण लक्ष्य को एक एक कर के प्रत्येक अध्याय में स्थापित किया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिये कर्मो के त्याग की आवश्यकता नही है, आवश्यकता आसक्ति एवम अहम के त्याग की है। गीता शास्त्र में सभी योग शास्त्र को अत्यंत सुंदर तरीके से भगवान की वाणी द्वारा प्रस्तुत किया गया, क्योंकि इस के ऊपर कोई ज्ञान या योग नही हो सकता, जिसे हम पढ़ना शुरू करेंगे। बस आप जुड़े रहे और नित्य पढ़ते रहे। कुछ शंका हो तो आप प्रश्न भी व्हाट्सएप्प में पूछ सकते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.08 ।।
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