।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. B ।I Preamble II
।। अध्याय 07. B ।। प्रस्तावना II
PREAMBLE – CHAPTER – 7 “Knowledge of Absolute ( Gyan – Vigyan yog) “
This chapter begins with Shree Krishna describing the material and spiritual dimensions of God’s energies. He explains that similar to beads strung on a single thread, all these energies have originated from Him and rest in Him. The entire creation begins and dissolves into Him. Although it is very difficult to overcome His material energy Maya, those who surrender to Him can easily cross over it by His grace.
He then describes the four kinds of people who engage in His devotion and the other four who do not surrender to Him. He says that those devotees, who worship Him in knowledge with their mind and intellect merged in Him, are dearest to Him. Yet, some are deluded by material desires and surrender to the celestial gods, who bestow upon them temporary material prosperity. However, these celestial gods also get their powers from the Supreme Lord. Therefore, the worthiest object of devotion is the Almighty God Himself.
Shree Krishna further confirms that He is the ultimate truth and the highest authority. He possesses several divine attributes such as omnipotence, omnipresence, and omniscience. However, His divine Yogmaya power hides His imperishable nature and eternal divine form. Those devotees who surrender to Him and take His shelter receive the divine knowledge of the Supreme God, the self, and the entire field of the karmic actions.
(Preamble – Courtesy : “The song of God” by Swami Mukundananda”
प्रस्तावना – सप्तम अध्याय – “ज्ञानविज्ञान योग “
सातवें अध्याय की संज्ञा ज्ञान – विज्ञान योग है। ये प्राचीन भारतीय दर्शन की दो परिभाषाएँ हैं। उनमें भी विज्ञान शब्द वैदिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था। सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस प्रसंग में विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की जो सुनिश्चित व्याख्या यहाँ गीता ने दी है, वह अवश्य ध्यान देने योग्य है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। जिस अंड से मानव का जन्म होता है। उस में ये आठों रहते हैं। किंतु यह प्राकृत सर्ग है अर्थात् यह जड़ है। इस में ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं; वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवाँ तत्व हो जाता है।
ज्ञान-विज्ञान का यह अध्याय भौतिक शास्त्र, अनुसंधान एवम प्रकृति को समझने के लिये महत्वपूर्ण है। गीता में इस अध्याय का विस्तृत वर्णन नही है किंतु वेद, उपनिषदों में इस के विस्तृत वर्णन से अनेक आधुनिक वैज्ञानिक खोज के बारे में पता चलता है। हम भारतीय लोग थोड़ा सा मानसिक तनाव आने पर वस्तु को गंभीरता से नही लेते। हम भगवद कृपा भी चमत्कार से प्राप्त हो जाये, इसलिये कठिन अध्ययन, तप या मन के निग्रह की बजाए कर्मकांडो के टोटके, मंदिरों की घण्टिया या किसी भी गेरुवे वस्त्र को धारण करने वाले की जय जय कार में महत्वपूर्ण जीवन के समय को नष्ट कर देते है। यदि कुछ दान, धर्म या परोपकार भी करते है तो उस का उद्देश्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति या सांसारिक दुखो से छुटकारा प्राप्त करना होता है।
प्रकृति, आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर, माया और इस सृष्टि का संचालन अर्थात प्रकृति के तीन गुण सभी एक विज्ञान की भांति अति सूक्ष्म, सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप में व्यक्त और अव्यक्त है। इसलिए इस को जानने वाला दृष्टा और दिखने वाला दृश्य भी एक विशिष्ट नियमो से बंधा है। जिस में सांख्य के अधिकतर सिद्धांतो को स्वीकार करते हुए, गीता वेदान्तिक सिद्धांत के अनुसार ही ब्रह्म, माया, ईश्वर और प्रकृति के गुणों का वर्णन करती है। अनुसंधान में विज्ञान की पढ़ाई अत्यंत कठिन अवश्य होती है किंतु गाह्य न हो, ऐसा नहीं कह सकते। अतः अध्याय 7 से 12 तक का अध्याय उच्च विज्ञान के अध्याय है, जिन्हे हम समझने की चेष्टा करते है।
पश्चिम देश से हमारे ही ग्रंथो के अध्ययन से विज्ञान में प्रगति कर रहे है, उन की प्रबंधन, योग, व्यक्तित्व विकास की पुस्तकों को हम गर्व से पढ़ कर बताते है और अपने अमूल्य धरोहर को कर्म कांड या पूजा पाठ की सामग्री समझते हुए निर्रथक बहस करते है।
पूर्व के छह अध्याय में निष्काम कर्म योग में हम से योग द्वारा मन एवम इन्द्रियों का निग्रह कैसे करे। साथ मे एकत्त्व एवम समतत्व भाव को प्राप्त करने पर अधिक बल दिया गया। किन्तु नीरा निष्काम होना, एकत्त्व एवम समत्व द्वारा मन एवम इन्द्रियों को वश में करने से परब्रह्म की प्राप्ति नही होती। सत्य यही है कि जीव परब्रह्म का अंश है और कर्तृत्व-भोक्तत्व भाव के कारण अज्ञान में रहता है। जीव ज्ञानवान है, किन्तु अज्ञान से ढका है। अतः सप्तम अध्याय से इसी अज्ञान को समाप्त करने का ज्ञान है। जैसे सूर्य प्रकाशवान है किंतु बादलों से ढक जाने यह नही कहा जा सकता कि उस का प्रकाश नष्ट हो गया। बादलों के छट जाने से उस का प्रकाश पुनः फैल जाता है। यही जीव जो स्वयं के परब्रह्म का अंश है, अज्ञान में रहने से उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नही रहता। अतः इस अज्ञान को हटाने से जीव को अपने परब्रह्म स्वरुप होने का ज्ञान हो जाता है। यही जानने के हम अज्ञान का अध्ययन कर के उस से कैसे मुक्त हो कर अपने स्वरूप को प्राप्त करे, आगे पढ़ेंगे। यह तभी सम्भव है जब मन एवम इन्द्रियों पर पूर्ण निग्रह प्राप्त हो।
इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र- वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रुचि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।
सांख्यों का मत हैं कि इंद्रियों को अगोचर अर्थात अव्यक्त, सूक्ष्म और चारो ओर अखंडित भरे हुए एक ही निरवयव मूल द्रव्य से सारी व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई है। यह सिद्धांत पश्चिम देशों के अर्वाचीन आधिभौतिक शास्त्रज्ञों को भी मंजूर है। इसी मूल द्रव्य की शक्ति का क्रमशः विकास होता आया है और पूर्वापर क्रम को छोड़ कर अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं हुआ है। इसी को उत्क्रांतिवाद या विकास सिद्धांत कहते है। इस से सनातन धर्म के अतिरिक्त बाइबिल या अन्य धर्म की मान्यताओं के विपरीत होने से पश्चिम देशों को स्वीकार करने में समय लगा। अतः यह तय है शून्य से कुछ नही पैदा होता और शून्य में कुछ भी विलीन भी नही होता। जो दृश्य है वह ही स्थूल से सूक्ष्म और अति सूक्ष्म हो कर पुनः विकसित होता है। यह पूरी सृष्टि भी बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की भांति स्थूल से अतिसूक्ष्म और अति सूक्ष्म से स्थूल में परिवर्तित होती रहती है, जिसे हम ब्रहमा के रात और दिन या सृष्टि का प्रलय या रचना कहते है। इस अध्याय के ज्ञान को और विज्ञान को हम आगे विस्तृत स्वरूप में पढ़ेंगे।
सांतवे अध्याय का कर्म कांड में इतना अधिक महत्व बता दिया गया है कि भगवान शिव की वाणी द्वारा इस पाठ के पठन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है एवम जो जिन्हें मृत्यु के पश्चात प्रेत योनि मिलती है उन के श्राद्ध में इस पाठ का करना अति उत्तम एवम फल दायक होता है।
किसी भी पठन को कुछ लोग जिज्ञासा से, कुछ ज्ञान वृद्धि से, कुछ हुंकारा भरते हुए और कुछ अनमने भाव से पढ़ते है। अर्जुन का पठन एक जिज्ञासु की भांति है, वो कोई भी संशय नही रखना चाहता। यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने उस की सम्पूर्ण जिज्ञासा के निवारण हेतु आगे उस परम ज्ञान को दिया है जो सामान्य मनुष्य के समझना भी कठिन है। इस अध्याय में 30 श्लोक हम क्रमशः पढ़ेंगे। अब सांतवे अध्याय से पढ़ना शुरू करते है और अपनी जिज्ञासा हेतु चर्चा जारी रखते है।
।। हरि ॐ तत सत।।प्रस्तावना II
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