।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.S ।I Summary II
।। अध्याय 06.S ।। सारांश II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: ६ सारांश॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥
||ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē
śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē ātmasaṃyamayōgō nāma ṣaṣṭhō’dhyāyaḥ||
भावार्थ:
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ध्यान-योग नाम का छठा अध्याय संपूर्ण हुआ॥
Meaning:
Thus ends the sixth chapter named Dhyana- yoga in Srimadbhagavadgita which is the essence of the Upaniṣads, which deals with Brahman- knowledge as well as the preparatory disciplines, and which is in the form of a dialogue between Lord Krishna.
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Summary of Bhagvad Gita Chapter 6:
Meditation, as described in this chapter, is an essential practice in any spiritual journey. Listening and reading scriptures comprises “shravanam”, resolving doubts is “mananam”, and establishing oneself in the knowledge of the eternal essence is “nidhidhyaasana” or internalization.
Meditation is the means to internalizing knowledge of the eternal essence.
Shri Krishna gives an exhaustive coverage of meditation in this chapter. The key point for us is to understand the vision of a meditator. The meditator views all objects, people and situations with equanimity. He does not see them as different than himself. In other words, he “sees his self in all beings, and all beings in his self”. He can see his self as brahman, the formless aspect of the eternal essence, or as Ishvara, the form- oriented aspect.
In preparing for meditation, Shri Krishna urges us to first renounce selfish desires through karma yoga. Unless the mind is purified of selfish desires for the most past, it will not be able to meditate properly. It is only through the intellect, our higher self, that can control the mind, our lower self. Furthermore, we should lead a moderate lifestyle, in other word not go overboard in eating, sleeping and indulging in sense objects. The end result of all this preparation is a gradual withdrawal or “uparati” from the outside world, leading to the mind settling in the eternal essence, conveyed by the message “the self-settling into the self”.
Next, Shri Krishna covers the technique of meditation. He advises us to select a place that is quiet, clean and pure. He also suggests using a seat that is well insulated, on which we are advised to sit with our eyes focused on one spot, and with our spine held erect. Shri Krishna further instructs us to focus our attention on one thought, and try not to let the mind waver, just like an unwavering candle flame. The object of meditation should be something that we hold as supreme and dear. It could be am image of a deity or of the guru. The untrained mind will always try to wander in different directions, but we should use the power of our intellect, our higher self, to bring the mind back to one thought.
Finally, Shri Krishna praises the meditator by elevating his status higher than any other kind of seeker. He says that the meditator attains supreme joy, peace and bliss. He is always protected against the heaviest of sorrows because he resides in Ishvara. Even if the ultimate goal of meditation is not realized in this birth, the effort put forth will be carried over into the next birth. But the most supreme meditator is one who is Ishvara’s devotee. Who is Ishvara in reality? That is covered in the next six chapters.
।। हिंदी समीक्षा- सारांश ।।
योगी एवम सन्यासी किसे कहा जा सकता है, अध्याय 6 का मूल है। क्योंकि योगरूढ़ होने से ही सर्वसंकल्पो का अभाव होगा। जीव का प्राकृतिक स्वभाव अधोगति की ओर ही होता है, इसलिये वो अपने को सांसारिक सुखों में व्यस्त एवम सुरक्षित समझता है, अपने ही कर्मो के फल का संचयन कर्ता भाव से करता है और भोगता है।
पंचम अध्याय में सन्यास एवम कर्मयोग के अभेद को बताने के बाद भगवान स्पष्ट करते है कि कर्मफल का आश्रय जो कर्ता- बुद्धि को त्याग कर कर्तव्य समझ कर करता है वह ही सन्यासी है वह ही कर्मयोगी है। सन्यास का अर्थ गेरुवे वस्त्र पहनना या जंगल मे जा कर तप करना नही है। सन्यास का अर्थ है कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त हो कर कर्तव्य कर्म को करना है, वही कर्म योगी अर्थात योगी है। यदि हम कितना भी दान धर्म करे, पूजा पाठ करे, ध्यान करे या भजन कीर्तन करे, जब तक कर्तृत्त्व- भोक्तत्व भाव से मुक्त नही होंगे, तब तक हमे हमारे प्रारब्ध और संचित कर्मो से मुक्ति नही मिलेगी और हम अपने कर्मफलों का संचय करते जाएंगे। इस से चाहे स्वर्ग मिले या कोई भी लोग, सुख- भोगे या दुख किन्तु मोक्ष नही होगा। कर्तृत्व – भोक्तत्व भाव से छूटे बिना कर्म करना मानो कुवे से निकल कर खड्डे में गिरना है या फिर तवे से उतार कर चूल्हे में गिरना है। कर्मयोगी को मन को वश में मित्र के समान करना अनिवार्य है, इसलिये उसे योगरूढ़ होने की सलाह दी गई।
ध्यान की तैयारी से ले कर ध्यान लगाने की विधि तक भगवान श्री कृष्ण से सुनी। मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा की शुरुवात श्रवण, पठन, मनन एवम निदध्यासन से होती है। योग का अर्थ है कि आत्मा को समत्व भाव से इतना उच्च स्तर तक ले जाओ की हर जीव में परमात्मा ही नजर आए। फिर आत्मा और परमात्मा ही रहे। योग का अर्थ ही जुड़ना है, इसलिये भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को योगी बनने का भी सुझाव देते है।
योगरूढ़ पुरुष के लक्षण करते हुये कहा गया कि जिस काल मे इंद्रियाओ के अर्थों में प्रवृत्त होते हुए भी अहम भोक्ता भाव उदय नहीं होता और कर्मो में प्रवृत्त होते हुए भी अहम कृतत्वभाव उदित नही होता उसी काल को योगरूढ़ मानना चाहिए। योग की विधि में पातंजलि योग की प्रक्रिया को ही मान्यता दी है।
अतः सब से पहले मन को मित्र बनाना चाहिए, तभी समत्व भाव संभव है। इस योग स्थिति में एकाकी, एकांतवास, आशा व परिग्रहकर त्याग, पवित्र देश, आसन विधि, मन व इंद्रियाओ का सयम, काया, सिर, ग्रीवा की समता, नासिकाग्र दृष्टि, सम चित्तता, निर्भयता, ब्रह्मचर्य पालन, ईश्वर परायणता, आहार विहार एवम जागरण स्वप्न्न आदि की नियंता इत्यादि उपयोग सामग्री को हम ने पढ़ा। दीपक की लौ पर स्थिर हो ध्यान लगाने का भी वर्णन पढ़ा।
जब मन कामनाओं से छूट कर आत्मा में स्थित हो जाता है तो ही युक्त कहलाता है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए पुनः संकल्पजन्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग, मन द्वारा इंद्रियाओ का सयंम, धैर्य युक्त बुद्धिद्वारा विषयो से उपरामता, उस बुद्धि की आत्मा में स्थिति और सब ओर से चंचल मन को खींच कर आत्मा में जोड़ना इत्यादि साधनों पर जोर देते हुए अनन्त सुख ब्रह्नरूप को प्राप्त होने का आश्वासन दिया गया है, जहां आनन्द ही आनंद है।
अर्जुन द्वारा मन को नियंत्रित करना सब से कठिन बताने पर, भगवान श्री कृष्ण ने स्वीकृती देते हुए भी एवम मन को चंचल एवम शक्तिशाली मानते हुए मन के निग्रह की विधि बताते हुए हर तरह के योगभ्रष्ट की गति भी बताई गई । निरंतर अभ्यास एवम दृढ़ निश्चय ही एकमात्र सफलता एवम मन को नियंत्रण करने की विधि है तथा अंत मे अर्जुन को योगी होने की सलाह भी दी गयी। विभिन्न लेखाकारों ने योगी को अपने अपने मार्ग के अनुसार योगी शब्द को सांख्य, कर्म, ज्ञान एवम ध्यान से जोड़ा। किन्तु गीता कर्मयोगी को ही प्रतिपादित करती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित है। इस को कुछ लोग भक्ति योग भी बोलने लगे। गीता के अनुसार कर्म से कोई नही छूट सकता, अतः यह पूर्णत कर्मयोग ही है जिस ने योगरूढ़ योगी प्रत्येक मार्ग को एक ही रूप में बताया है।
ध्यान योग व्यक्तीत्व विकास की विधि है जिस से मनुष्य अपने चरित्र निर्माण से ले कर कर्मठता को प्राप्त होता है। गीता किसी कर्मकांड से परे बिना किसी चमत्कार के स्पष्ट रूप से घोषणा करती है, मनुष्य अपने भविष्य का स्वयं निर्माता है। वो सब भोगता है जो उस ने अपने कर्मो से संचित किया है। गीता में नरक या किसी भी प्रकार का भय नहीं दिखाया गया है वरन भगवान श्री कृष्ण कहते है एक बार जिज्ञासा का भी बीज बो देने से मोक्ष को यात्रा जन्म जन्मांतर में शुरू हो जाती है और जीव मोक्ष को प्राप्त होता ही है। अच्छे कर्म और संस्कार होने से पुर्नजन्म में उसे कर्मो के अनुसार श्रीमंत या योगी परिवार में जन्म मिलता है, जिस से वह पूर्व जन्म के अधूरे मुक्ति के कार्य को स्वतः ही प्रारम्भ कर देता है।
प्रसंग है कि नदी को पार करने दस लोग गए और पार करने के बाद सभी अपने को छोड़ कर नौ को गिनते है। उन के हिसाब से दसवां है नही, अर्थात नदी में डूब गया। यही अपने को नही जानने का अज्ञान है। यह अज्ञान की अवस्था 1) अज्ञान, 2) आवरण, 3) विक्षेप, 4) परोक्ष ज्ञान, 5) अपरोक्ष ज्ञान, 6) तृप्ति और 7) शोकनाश यह 7 अवस्थाएं दसवें व्यक्ति की है।
प्रथम अवस्था में वह दुनियादारी में डूबा अपने को न तो पहचानता है और न ही उस विषय में कुछ चर्चा या सोचता है, बल्कि इस के प्रसंग को ही नकार देता है।
यदि बातचीत हो तो भी वह कहता है कि न तो वह अपनी आत्मा को जानता है और न ही आत्मा जैसी किसी वस्तु को महसूस करता है, अर्थात समझने को तैयार न हो तो यह अज्ञान का आवरण अर्थात द्वितीय अवस्था है। यदि वह यह भी कहने लगे कि वह ही कर्ता और भोक्ता है तो यह अज्ञान में तीसरी अवस्था विक्षेप की है। सत्संग, श्रवण, बातचीत में जब कोई उसे समझता है कि वह कुटस्थ आत्मा है तो इसे परोक्ष ज्ञान अर्थात चतुर्थ अवस्था कहेंगे और जब मनन द्वारा उसे लगे कि वह शुद्ध आत्म स्वरूप है तो इसे पंचम अवस्था अपरोक्ष ज्ञान कहेंगे। श्रवण और मनन के बाद निदिध्यासन से वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लग जाता है और उस को स्वीकार कर के उस में रहने लगे तो यह छठी अवस्था तृप्ति की होती है। इस अवस्था के बाद प्राणी की कामना, आसक्ति, मोह, अहम, लोभ आदि समाप्त हो जाते है तो यह उस की सातवी अवस्था शोक नाश की होती है और वह सद्चिदानंद की स्थिति को प्राप्त होता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अवस्थाएं जीव के मन की है, आत्मा की नही। आत्मा तो नित्य, अकर्ता, साक्षी और कुटस्थ है। इसलिए मुक्ति से पूर्व चिदाभास और आत्मा जीव के दो स्वरूप होते है। चिदाभास से ही जीव अपने को शुद्ध आत्म स्वरूप समझता है क्योंकि आत्मा को अहम का भान भी नही है। मोक्ष में दोनो मिलकर एक हो जाते है।
इस प्रकार इन सात अवस्थाओं में प्रथम तीन सांसारिक बंधन की अवस्थाएं है और शेष चार मुक्ति के मार्ग की अवस्थाएं है। क्योंकि यह समस्त अवस्थाओं में अज्ञान से ज्ञान तक प्रत्येक जड़ और चेतन ब्रह्म का ही स्वरूप है, इसलिए इसे ब्रह्म की ही विभिन्न अवस्थाएं मानी गई है।
ज्ञान होने के बाद यदि गिनती करने वाले को ज्ञात हो जाए कि जो दसवां व्यक्ति खो गया है, वह कोई और नहीं, वह स्वयं है तो ज्ञान कराने वाला इसे तत् त्वं असि अर्थात वह दसवें व्यक्ति तुम स्वयं हो और ज्ञान प्राप्त करने वाला इसे अहम ब्रह्म अस्मि से जाना जाता है। किंतु हम सब अज्ञान में जीते है क्योंकि प्रकृति की माया में हम अपने को कर्ता या भोक्ता ही समझते है।
यही योग है इसलिए ध्यान योग का अंत अर्जुन को योगी होने की सलाह पर किया गया है, योगी का अर्थ कर्तृत्व-भोक्तत्व भाव से मुक्त कर्मयोगी है जो अपने प्रत्येक कर्म के परब्रह्म को समर्पित कर के, परब्रह्म के आश्रय हो कर अपने निमित्त कर्मो को करता है। यद्यपि कुछ मीमांसकों ने इस योगी का अर्थ सन्यास योग, भक्ति योग, ध्यान योग से लिया है किंतु गीता में योग का अर्थ शुरू में स्पष्ट कर दिया है, इसलिये योगी का अर्थ निष्काम कर्म योगी ही है। वास्तव में तप, ज्ञान और कर्म योग के अभाव में अधूरा और प्रकृति की क्रिया है। योग से यही कार्य परमात्मा को जोड़ने का माध्यम हो जाते है। इसलिए तप से श्रेष्ठ ज्ञान और ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म को बताते हुए, सब से श्रेष्ठ योग को कहा गया है। यही योग जब तप से जुड़ा तो सांख्य योग हो गया और ज्ञान से जुड़ा तो ज्ञानयोग हो गया और कर्म से जुड़ा तो कर्मयोग हो गया। इसलिए अर्जुन को योगी होने को कहा गया और क्योंकि वह युद्ध भूमि में है इसलिए उसे निष्काम कर्मयोगी होने को कहा गया।
तीनो की मार्ग में जीव को कर्तृत्व भाव और भोक्ता भाव अर्थात कामना, आसक्ति, मोह, लोभ, काम, क्रोध और मोह को त्यागना ही पड़ता है, इसलिए सभी कर्म और क्रियाएं परमात्मा के लिए हो, अर्जुन को श्रद्धा, प्रेम, विश्वास के साथ स्मरण और समर्पित होने को कहा गया। यद्यपि कुछ विद्वान इसे भक्ति भाव की ओर ले जाते है किंतु भाव या योग कोई भी हो, सभी में यही स्मरण और समर्पण आवश्यक है। इस के बिना तो योग भी सिद्ध नही हो कर एक व्यायाम मात्र रह जाएगा।
अध्याय 6 के अंत तक अर्जुन की मनोवृत्ति बदल चुकी है। प्रथम अध्याय में वो मोह, भय से ग्रस्त था, जिसे वो अपने ज्ञान द्वारा सिद्ध भी कर रहा था और युध्द न करने के निर्णायक मोड़ पर पहुच कर भगवान से सहायता चाहता था। अब वो ज्ञान के प्रति आतुर है, इसलिये भगवान श्री कृष्ण ने उस की मनोवृत्ति के अनुकूल हो कर पहले योग के ज्ञान को कहा अब आगे ईश्वरीय ज्ञान को पढेंगे।
ज्ञान मन के एकाग्र एवम समतत्व भाव से परब्रह्म के आश्रय हो कर ही प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तक में प्राप्त ज्ञान सांसारिक वृत्तियों से मुक्ति नही देता, इसलिये गीता में ज्ञान को सातवे अध्याय में निष्काम कर्मयोग, सन्यास एवम योग में भेद और ध्यान लगा कर मन के निग्रह करने के बाद रखा है। आगे का ज्ञान तभी समझा जा सकता है, जब आप भी ईश्वर के प्रति समर्पित हो कर एकाग्र चित से पढ़े। नावल या उपन्यास की तरह पढ़ने से इस को आत्मसात करना लगभग असंभव है।
।। हरि ॐ तत सत।। सारांश- अध्याय 6 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)