।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.42 ।I
।। अध्याय 06.42 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.42॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥
“atha vā yoginām eva,
kule bhavati dhīmatām..।
etad dhi durlabhataraḿ,
loke janma yad īdṛśam”..।।
भावार्थ:
अथवा उत्तम लोकों में न जाकर स्थिर बुद्धि वाले विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है। (४२)
Meaning:
Alternatively, he will go only to a family of learned yogis. One whose birth is of this type is exceedingly rare in this world.
Explanation:
Earlier, Shri Krishna spoke about the fate of the unfulfilled meditator who goes to an illustrious family after having attained heaven. In this shloka, Shri Krishna talks about another type of unfilled meditators who is born not into a wealthy family but into a family of learned yogis. He also says that such a birth is exceedingly rare.
The circumstances, situation, and family of our birth have an important bearing upon the course of our life. From our bodily parents we derive physical hereditary characteristics. This is the genetic process of heredity. However, there is also the process of social heredity. We blindly follow many customs because of the social environment of our upbringing. We do not choose to be Indians, Americans, British, etc. We identify ourselves with a nationality based upon our birth, and even go the extent of developing enmity with people of other nationalities. Invariably, we follow the religion of our parents, on the basis of social heredity.
Thus, the place and family of our birth has a great impact upon our direction and attainment in life. If the place and family of birth were arbitrarily decided in every life, there would be no justice in the world. However, God has an account of all our thoughts and actions of endless lifetimes. In accordance with the law of karma, the spiritual assets earned by the unsuccessful yogi in the previous life bear fruit. Accordingly, those yogis who had traversed quite a distance and developed dispassion are not sent to the celestial abodes. They are given birth in a spiritually evolved family, to facilitate the continuance of their journey. Such a birth is a great good fortune because the parents inculcate divine wisdom in the child from the very beginning.
So far, Shri Krishna has spoken about two types of serious seekers who had a clear understanding of meditation but were unable to attain liberation. The difference between the two types of seekers is the presence or absence of desires. The meditator who still harbours desires is born into a wealthy family.
Desires are the biggest obstacles in meditation. Only when desires are extinguished can serious meditation begin. That is why this category of meditators is given the chance to fulfill his desires in a wealthy family.
The other rarer category of meditator had managed to extinguish his desires but could not attain liberation because he ran out of time. Since he is not interested in fulfilling any desire, regardless of whether it is heavenly or earthly, he goes straight into a family of yogis after he dies. These yogis are not just accomplished meditators, they also possess “dheemata” or a keen understanding of the scriptures.
Such a family provides a conducive environment for this kind of meditator to continue his progress in meditation. He has enough dispassion in him and therefore does not get affected by the the absence of wealth in this new family. In fact, he appreciates it because wealth can become a distraction in the path of meditation.
Now, do both these types of newly born seekers have to start their journey from scratch? This is taken up by Shri Krishna in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
साधना करने वाले दो तरह के होते हैं वासना सहित और वासना रहित। प्रथम साधक के विषय मे पूर्व श्लोक में बताया गया कि वो अपनी काम वासनाओं के कारण योगभ्रष्ट होता है अतः स्वर्ग के मार्ग से पुनः शुद्ध आचरण युक्त पवित्र एवम श्रीमंत परिवार में जन्म लेता है। दूसरा साधक जिसके भीतर वासना नहीं है तीव्र वैराग्य है और जो परमात्मा का उद्देश्य रखकर तेजी से साधन में लगा है पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है वह किसी विशेष कारण से जैसे आयु पूर्ण होंना या आकस्मिक मृत्यु होने आदि से योगभ्रष्ट हो जाता है तो उस को स्वर्ग आदि में नहीं जाना पड़ता प्रत्युत वह सीधे परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर चुके हैं जिन की बुद्धि परमात्मतत्त्व में स्थिर हो गयी है ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन् मुक्त बुद्धिमान् योगियों के कुल में वह वैराग्यवान् योगभ्रष्ट जन्म लेता है। उस का जन्म साक्षात् जीवन् मुक्त योगी महापुरुष के कुल में ही होता है क्योंकि श्रुति कहती है कि उस ब्रह्मज्ञानी के कुल में कोई भी ब्रह्मज्ञान से रहित नहीं होता अर्थात् सब ब्रह्मज्ञानी ही होते हैं।
उस का यह इस प्रकार का योगियों के कुल में जन्म होना इस लोक में बहुत ही दुर्लभ है। तात्पर्य है कि शुद्ध सात्त्विक राजाओं के धनवानों के और प्रसिद्ध गुणवानों के घर में जन्म होना भी दुर्लभ माना जाता है पुण्य का फल माना जाता है धनवान होना वो भी सात्विक आचरण के साथ, पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का ही परिणाम होता है। फिर तत्त्वज्ञ जीवन् मुक्त योगी महापुरुषों के यहाँ जन्म होना तो दुर्लभतर अर्थात बहुत ही दुर्लभ है कारण कि उन योगियों के कुल में घर में स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगोंकी चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँ के वायुमण्डल से दृश्य से तत्त्वज्ञ महापुरुषों के सङ्ग से अच्छी शिक्षा आदि से उस के लिये साधन में लगना बहुत सुगम हो जाता है और वह बचपन से ही साधन में लग जाता है। इसलिये ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेने को दुर्लभतर बताया गया है। इस प्रकार के परिवार में जन्म होना कह कर गीता इस बात की भी पुष्टि करती है ब्रह्म योगी का सन्यासी होना आवश्यक नही । गृहस्थ योगयुक्त कर्मयोगी का परिवार भी ब्रह्मसंथ ही है जो निष्काम भाव से कर्म में लिप्त है। साथ मे पूर्व में सांख्य योग एवम कर्म सन्यास मार्ग एक ही है, उस की पुष्टि भी होती है।
आदिशंकराचार्य जी ने विद्वान, ब्रह्मसन्ध परिवार को दरिद्र शब्द से भी जोड़ा है। दरिद्र का अर्थ आधुनिक सुख सुविधा एवम अर्थ विहीन, जिस से भ्रष्ट योगी सांसारिक मोह माया से दूर, अपने को मोक्ष के लिये ज्ञानी परिवार के मध्य यथाशीघ्र ज्ञान प्राप्ति को अग्रसर हो जाये। ऐसा माना गया है सरस्वती और लक्ष्मी एक साथ निवास नही करती क्योंकि ब्रह्मसन्ध को लक्ष्मी की आवश्यकता ही नही रहती, वह उस नित्य आनन्द में रहता है, जिस का कोई अंत नही।
संसार में दो प्रकार की प्रजा मानी जाती है बिन्दुज और नादज। जो मातापिता के रजवीर्य से पैदा होती है वह बिन्दुज प्रजा कहलाती है और जो महापुरुषों के नाद से अर्थात् शब्द से उपदेश से पारमार्थिक मार्ग में लग जाती है वह नादज प्रजा कहलाती है। यहाँ योगियों के कुल में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट बिन्दुज है और तत्त्वज्ञ जीवन् मुक्त महापुरुषों का सङ्गप्राप्त साधक नादज है। इन दोनों ही साधकों को ऐसा जन्म और सङ्ग मिलना बड़ा दुर्लभ है। श्रीमन्त परिवार से श्रेष्ठ परिवार संस्कार वाला परिवार होता है। शास्त्रों में मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है पर मनुष्य जन्म में महापुरुषों का सङ्ग मिलना और भी दुर्लभ है । नारदजी अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं महापुरुषों का सङ्ग दुर्लभ है, अगम्य है और अमोघ है। कारण कि एक तो उनका सङ्ग मिलना कठिन है और भगवान् की कृपा से ऐसा सङ्ग मिल भी जाय तो उन महापुरुषों को पहचानना कठिन है। परन्तु उन का सङ्ग किसी भी तरह से मिल जाय वह कभी निष्फल नहीं जाता। तात्पर्य है कि महापुरुषों का सङ्ग मिलने की दृष्टि से ही उपर्युक्त दोनों साधकों को दुर्लभतर बताया गया है। अतः संत संगत से श्रेष्ठ कुछ भी नही। इसलिये कहा भी गया है “तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग” ।
आजकल मनुष्य के दुराचरण के लिए बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों को ही दोषी बता कर सब को अपने आसपास के वातावरण के विरुद्ध उत्तेजित किया जाता है परन्तु उपर्युक्त श्लोकों में कथित सिद्धांत इस प्रचलित मान्यता का खण्डन करता है। निसन्देह ही मनुष्य एक सीमा तक बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होता है परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि सभी मनुष्य वर्तमान में जिन वातावरण एवं परिस्थितियों में रह रहे हैं उनका कारण भूतकाल में किये गये उन्हीं के अपने कर्म ही हैं। बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन मात्र से व्यक्ति में वास्तविक सुधार नहीं हो सकता। यदि मदिरापान के अभ्यस्त व्यक्ति को किसी ऐसे नगर में ले जाये जहाँ सुरापान वर्जित है तो वह व्यक्ति वहां भी छिपकर मदिरापान करता ही रहेगा। अच्छे संस्कार परिवार से मिलते है और बिना अच्छे संस्कार के जीवन पशु की भांति है। आप चाहे कितनी भी उच्च कोटि की बाते करे या कितना भी धन कमा ले किन्तु संस्कार नही है तो वो धन अनैतिक एवम पतन के कर्मो में ही लगता है और उस के फल को भोगे बिना मुक्ति नही हो सकती। झूठ, फरेब एवम अनैतिकता संसार से हो सकती है, स्वयं में बसे चेतन्य स्वरूप आत्मा से नही और बिना आत्मदर्शन के मोक्ष भी नही होता। श्री कृष्ण का पूर्व कथन की कोई उसे जिस भाव से पूजता है मैँ उसे उसी भाव से स्वीकार करता हूँ, भी यहां प्रतिपादित होता है।
प्रकृति और महामाया अवसर प्रदान करती है किंतु यह आवश्यक नही उच्च कुल में जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव योगी ही हो। यदि ऐसा होता तो रावण, हिरणाकश्यप, कंस या दुर्योधन भी उच्च कुल और राजाओं के यहां जन्म नही लेते। कभी कभी पूर्वजन्म के कर्मफल भी उच्च कुल में जन्म दिला देते है या कुल के नाश का कारण भी बना देते है। किंतु सात्विक, धार्मिक और सत्य के मार्ग पर चलने वाले कुल में जन्म निश्चय ही दुर्लभ है क्योंकि वहां संस्कार जन्म से मिलने शुरू हो जाते है और वह जीव को मुक्ति के मार्ग में ले जाने को सहायक भी होते है। जिस ने ब्रह्म ज्ञान की यात्रा शुरू की, वह पूर्ण होनी ही है किंतु ऐसा भी माना गया है कि तत्वज्ञान को प्राप्त करने वाला काष्ट के समान उदासीन नही होता, उस की देह प्रकृति के अनुसार ही कार्य करती है, इसलिए वह देह से प्रारब्ध के कर्मों को भोगता है, किंतु मन और बुद्धि से वह तत्व ज्ञानी होने से उदासीन रहता है। अतः उस के आचरण और क्रियाओं से उस के तत्व दर्शी होने या ब्रह्म ज्ञानी होने को नही जाना जा सकता। इसलिए जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो गई हो, उस की मुक्ति निश्चित है। युद्ध भूमि में कर्ण और भीष्म पांडव के विरुद्ध लड़े थे किंतु तत्व ज्ञानी होने से उन की युद्ध की कोई आकांक्षा नही थी। यह उन का प्रारब्ध था, वे युद्ध उदासीन भाव से प्रकृति की क्रिया ही समझ कर लड़े थे। अतः किसी की क्रिया पर जो प्रति क्रिया दी जाती है, वह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत संचित ज्ञान या अज्ञान ही है। तत्वज्ञानी को प्रकृति की क्रियाओं से कोई मोह नहीं होता, इस लिए वह मोक्ष का उत्तराधिकारी भी है।
पूर्व के श्लोक एवम इस श्लोक द्वारा यह स्पष्ट है सात्विक प्रवृति से किया कोई कार्य निष्फल नही होता, यह जीव के लिये मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। मनुष्य जन्म मिलना ही इस का प्रथम प्रमाण है, फिर कुल, परिवार और संस्कार का मिलना द्वितीय। किन्तु मिलना सफलता नही है क्योंकि मोक्ष की यात्रा तो मुक्ति तक है, इसलिये सात्विक कार्य करते रहना ही मुक्ति का मार्ग है।
वैराग्यवान् योगभ्रष्ट का तत्त्वज्ञ योगियों एवम श्रीमंत कुल में जन्म होने के बाद क्या होता है यह बात हम आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 6.42।।l
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