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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  06.41 I

।। अध्याय     06.41 ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 6.41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥

“prāpya puṇya-kṛtāḿ lokān,

uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ..।

śucīnāḿ śrīmatāḿ gehe,

yoga-bhraṣṭo ‘bhijāyate”..।।

भावार्थ: 

योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उन में अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ था, उन इच्छाओं को भोग कर के फिर सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। (४१)

Meaning:

Obtaining those worlds destined for performers of virtuous deeds, and residing there for several years, that one who has fallen from yoga is born in the home of the pure and illustrious.

Explanation:

Shri Krishna continues to answer Arjuna’s question with regards to what happens to the unfulfilled meditator after death. He says that such a meditator attains heaven and having stayed there for a long period of time, he is born into an illustrious family.

Many of us strive to perform meritorious acts or “punya” throughout our life, and at the same time try to avoid or minimize demerits or “paapa”. The difference between paapa and punya determines our fate after death. Those that have an excess of punya go to heaven after death, others go to hell. So, Shri Krishna says that one who follows the path of meditation is automatically qualified to access the very same heaven that is attained by people who have performed immeasurable meritorious deeds. He does not have to worry about counting merits and demerits, he just has to continue meditating.

Residence in the celestial abodes is awarded to those who engage in mundane virtuous deeds and the fruitive karm- kāṇḍ activities enjoined in the Vedas. So, why should an unsuccessful yogi go to the celestial abodes? The reason is that the opposite of Yog (union with God) is bhog (material enjoyment). One falls from Yog because of the desire for bhog. So God, like an indulgent father, gives that fallen yogi a chance to engage in bhog in the next life and realize that it is an exercise in futility, which does not satiate the yearning of the soul for permanent bliss.

Now, no matter how much pleasure it gives, the stay in heaven is always temporary. Once the allotted time runs out, the unfulfilled meditator will have to come back into the world. But it will not be such a bad thing. So the fallen yogi is sometimes sent to the celestial abodes for a long time, and then again granted birth on Earth. He will attain an environment that is conducive for continuing his spiritual journey.

Such souls are then given birth in a family where they have the opportunity to continue their spiritual journey. Śhuchī means those who are of pious and of good character; shree means those who are wealthy. The unsuccessful yogi is either born in a pious family that will nurture the child’s spirituality from childhood, or in a wealthy family where all the bodily needs are taken care of, and one does not need to engage in the struggle for survival. Such a family environment facilitates the opportunity to engage in spiritual pursuits for the souls who are so inclined.

Shri Krishna says that such a person will be born into an illustrious family, one that is endowed not only with material wealth but also spiritual prowess.

Why should such a family need to have material wealth? The primary reason for the meditator to remain unfulfilled is that he still carried around traced of material desire. The new family that he is born into will give him the opportunity to get those material desires out of his system. As we have seen earlier, perfect meditation is possible only when material desires are addressed holistically.

Many of us may not be able to digest the notion of heaven and rebirth. In any case, Shri Krishna wants to assure us that the very laws of nature that take care of the meditator while he is alive will ensure that he will be taken care of even after death.

Do all unfulfilled meditators attain this state? Shri Krishna goes into this topic next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन के संशय पर भ्रष्ट योगी की मृत्यु उपरांत गति को वेदों से आगम प्रमाण के साथ भगवान श्री कृष्ण बताते है कि परलोक की गति इहलोक में किये गये कर्मों तथा उनके प्रेरक उद्देश्यों पर निर्भर करती है। कर्म मुख्यत दो प्रकार के होते हैं पाप और पुण्य। पापकर्म का आचरण करने वालों की अधोगति होती है केवल पुण्यकर्म का आश्रय लेने वाले ही आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। हमारे शास्त्रों में इन पुण्यकर्मों को भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है (क) सकाम कर्म अर्थात् इच्छा से प्रेरित कर्म और (ख) निष्काम कर्म अर्थात् समर्पण की भावना से ईश्वर की पूजा समझकर किया गया कर्म।

ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग और कर्मयोग आदि का साधन करनेवाले जिस पुरुष का मन विक्षेप आदि दोषों से या विषयासक्ति अथवा रोगादि के कारण अंतकाल में लक्ष्य से विचलित हो जाता है, उसे योग भ्रष्ट कहा गया है। योगभ्रष्ट कर्म तो मोक्ष के करता है किंतु मन के विक्षेप से बीच मे भटक जाता है, इसलिये उस की स्थिति त्रिशंकु की न हो जाये, यही जानना अर्जुन का उद्देश्य था।

कर्म का फल कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है इसलिए सकाम और निष्काम कर्मों के फल निश्चय ही भिन्न होते हैं। स्वाभाविक है पूर्णत्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचने के इन पुण्यकर्मियों के मार्ग भी भिन्न भिन्न होगें। इस प्रकरण में उन्हीं मार्गों को दर्शाया गया है।जो लोग स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से ईश्वर की आराधना यज्ञयागादि तथा अन्य पुण्य कर्म करते हैं उन्हें देहत्याग के पश्चात ऐसे ही लोकों की प्राप्ति होती है जो उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अनुकूल हों।

जो पुरुष ज्ञान योग, भक्ति योग, ध्यान योग एवम कर्मयोग की साधना में रत हो कर मन मे विक्षेप आदि दोषों के कारण अंत समय मे विषयादि या कामना से ग्रस्त हो कर लक्ष्य से भटक जाता है, वो ही योग भ्रष्ट कहलाता है। इन के कर्म स्वर्ग प्राप्ति के नही हो कर मोक्ष प्राप्ति के लिए होते है, अतः निष्काम होते है।

ऐसे पुरुषों को पुनः जन्म होने से पूर्व स्वर्ग आदि में सुखभोग प्राप्त होता है फिर उन का जन्म विशुद्ध आचरण वाले पवित्र एवम श्रेष्ठ गुण वाले श्रीमंत परिवार में होता है।

संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है।

ईश्वर द्वारा यह आश्वासन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सकाम भाव से कर्म करने वाला अपने कर्मो के कारण स्वर्ग को प्राप्त कर वहां के सुख भोग अपने कर्म फल से अनुसार भोग कर पुनः जीव गति प्राप्त करता है, ऐसा व्यक्ति स्वर्ग का सुख सकाम भोगता है और पुण्य क्षीण होने पर वापस जन्म लेता है। स्वर्ग किसी का स्थायी निवास नही है। यह कर्म फल से ही प्राप्त है और इस की कीमत कर्म फल ही है, जिस से समाप्त होने पर पुनः जन्म होना ही है।

जब कि निष्काम भाव से कर्म करने वाला मन के विक्षेप एवम कामनाओं को समाप्त करने हेतु स्वर्ग को प्राप्त कर के अपनी कामनाओं को समाप्त करता है, वो स्वर्ग में भोग की बजाय योग ही करता है एवम  पुनः शुद्ध आचरण करने वाले श्रीमंत परिवार में जन्म लेता है जिस से वो अपनी अधूरी साधना को पूर्ण कर सके। ईश्वर ने योग साधना में लगे लोगो को अपना ही अंश स्वीकार् करते हुए, उस की साधना को पूर्ण करने का सब से महान आश्वासन दिया है। जो अर्जुन के पूछे गए प्रश्न एवम शंका का निवारण है।

श्रीमंत परिवार में जन्म इस बात का द्योतक है कि भ्रष्ट योगी अपनी कामनाओं और आकांक्षाओं के लिये धन, सुविधा, अभाव की ओर न भटके और अपने निष्काम कर्म से योग द्वारा ज्ञान को प्राप्त कर के मोक्ष को प्राप्त कर सके। श्रीमंत उन धनाढ्य परिवारों का प्रतीक है जो संस्कृति, संस्कार एवम धर्म का पालन करने वाले एवम रक्षा करने वाले होते है। प्रत्येक धनी परिवार श्रीमंत नही होता। श्रीमंत होने का अर्थ भी द्रव्य प्रदार्थ से धनी होना नही है, धनी का अर्थ विद्वान, सुसंस्कृत, संस्कारित, धर्म के अनुसार कार्य करने वाला भय रहित, निर्लोभी एवम निष्काम कर्मयोगी परिवार ही है।

बहुत से लोग अपने को आधुनिक मानने वाले पुनः जन्म के इस सिंद्धान्त को स्वीकार न भी करे किन्तु किसी भी क्रिया के पीछे कारण होता है यह वैज्ञानिक सत्य है। अतः संस्कार युक्त श्रीमत परिवार में जन्म होना या अदभुत बौद्धिक क्षमता होना या देव संयोग से किसी के द्वारा महान कार्य होना भी किसी न किसी क्रिया का कारण होता हो है। आत्मिक प्रतिभा किसी किसी मे जन्म से देखने मिलती है। श्री कृष्ण इन सब क्रिया का कारण ही इस श्लोक से प्रकट करते है। जिसे आज तक कोई नकार नहीं पाया।

पूर्व के श्लोक और इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि जीव धर्म की ओर दो उद्देश्य से बढ़ता है जिस में प्रथम सांसारिक सुखों का भोग और द्वितीय मुक्ति। प्रायः मुक्ति के मार्ग पर चलने वाला कभी भोगों की ओर आकर्षित हो जाता है तो उसे योगभ्रष्ट माना गया। जिस की देह त्याग के भोगों की तृप्ति हेतु विभिन्न लोकों की यात्रा के बाद पुनः जन्म भी श्रीमंत परिवार में होता है। अतः संसार में अर्थ का महत्व भी मुक्ति के संतुलित जीवन के लिए अनिवार्य है। अर्थ के अभाव में परिवार और जीवन में प्रकृति के जीवन को ही चलायमान रखना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए मुक्ति, मोक्ष और योग जैसे धार्मिक कार्य श्रेष्ठि लोग ही संपन्न करवाते है और इन लोगो का कर्तव्य है कि जन सामान्य की प्राथमिक आवश्यकताओं को किसी भी उपदेश देने से पहले पूरा करे। भूखे पेट व्यक्ति को किसी भी ज्ञान की अपेक्षा रोटी की अधिक आवश्यकता है। इसलिए अधिकांश महान संतों ने ज्ञान के साथ जनसेवा का मार्ग अपनाया। गरीबी अभिशाप है किंतु गरीब के घर जन्म लेना अभिशाप नहीं है यदि वह परिवार ज्ञानी हो, क्योंकि ज्ञानी के गरीबी धन से नही, ज्ञान की मात्रा से जानी जाती है। जिसे हम अगले श्लोक में भगवान से समझेंगे।

पूर्व के श्लोक के कार के उदाहरण को आगे बढ़ाते है। कार में ईंधन, हैंडल, पहिए, आदि के विभिन्न सिस्टम होते है। शरीर के पांच कोश अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय ऐसे पांच कोश के अलग अलग operating system होते है। भोजन के पकाने से लेकर ऊर्जा और शरीर की क्रियाओं को मस्तिष्क से नियंत्रित करते है। आनंदमय कोश को छोड़ कर सभी कोश प्रकृति के है, इसलिए मृत्यु के साथ ही मस्तिष्क का data भी निकल जाता है किंतु जीव के कर्मों के फल उस की कामना और आसक्ति के कारण मनोमय और विज्ञानमय कोश के data आनंदमय कोश के साथ जुड़ जाते है। इसलिए इस डाटा के कारण सूक्ष्म शरीर विभिन्न लोकों में विभिन्न स्वरूप में घूमता है। जीव कर्ता और भोक्ता भाव से इस सूक्ष्म शरीर से बंधा है, इसलिए वह भी अज्ञान में इस सूक्ष्म शरीर को हो अपना स्वरूप समझ कर इस के साथ घूमता है। किंतु ऑपरेटिंग और एप्लीकेशन सिस्टम नही होने से वह इस को पढ़ नही सकता। फिर पुनः जन्म लेते समय उस के संस्कार, भावनाए, ज्ञान इन्ही कोश में होने से वह उन्हीं के अनुसार उसी परिवार और स्थान में जन्म लेगा, जहां से वह इस से आगे जा सके। कामना, आसक्ति, मोह आदि का एक आकर्षण क्षेत्र अर्थात frequency बनती है, सूक्ष्म शरीर उसी frequency की ओर आकर्षित हो कर उस योनि अर्थात शरीर धारण करता है। पूर्व जन्म की बाते या पढ़ाई आदि यदि कोई है, तो वह इन्ही कोश में है किंतु पासवर्ड न होने से, जीव इस को प्राप्त नही कर सकता, किंतु जैसे ही वह ज्ञान की ओर बढ़ता है, उस के पूर्व जन्म के संचित ज्ञान एक्टिव हो जाते है और वह उस से आगे की योग साधना में लग जाता है। जो योगी होते है, वे अपना पासवर्ड तलाश कर के पूर्व जन्म को भी जान लेते है। इसलिए यह स्पष्ट है कि प्रकृति और महामाया की कार्य पद्धति  पूर्णतय: आधुनिक कंप्यूटर प्रणाली से भी ज्यादा वैज्ञानिक है और जीव के कर्म और उस के फलों का रिकॉर्ड और उस के अनुसार जीव का जन्म आदि सभी नियमानुसार चलते है। इसलिए प्रकृति का programmer हो कर भी परब्रह्म को अकर्ता ही कहा गया है। जो जीव इस माया के अज्ञान को समझ जाता है, वह ही मुक्त है। सनद रहे कि सनातन धर्म का आधार कल्पनाएं नही है, वरन पूरी तरह से ज्ञान और विज्ञान पर आधारित है। किंतु आलस्य और प्रमाद में फसे हिंदू, गहन अध्ययन के तैयार हो नही होते। जो तैयार है, वे अध्यायों में और भी विस्तार से पढ़ेंगे।

संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है। परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्म करने वालों की क्या गति होती है, यह हम अगले श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।6.41।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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