।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 06 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 06 ।। विशेष II
।। अर्जुन की दुविधा का कारण और धर्मशास्त्र ll विशेष – 2.6 (1) ।।
गीता में अर्जुन की स्थिति परस्पर विरुद्ध दो धर्मो के नीति शास्त्र में फस जाने से हो गई। कमजोर एवम असहाय व्यक्ति ऐसी स्थिति में पलायन कर लेते है किन्तु जो व्यक्ति समाज मे उच्च स्थान रखते है एवम समाज की रक्षा एवम दायित्व संभालने में समर्थ है, उन्हें ऐसे समय मे सांसारिक कर्तव्यों का पालन नीति एवम धर्म के अनुकूल करना पड़ता है।
मनु ने नीति धर्म के पांच नियम बताए है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया, वाचा और मन की शुद्धता एवम इन्द्रिय निग्रह। अहिंसा के नियम में अहिंसा परमो धर्म कहते हुए भी मनु कहते है कि ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को मार ही डालना चाहिये जो चाहे गुरु, वृद्ध, बालक या विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो। अहिंसा में क्षमा, दया, शांति आदि के गुण हमेशा नही चल सकते।
इसी प्रकार ही सत्य के सिवा और कोई धर्म नही है; सत्य ही ब्रह्म है। किंतु चोर, उच्चको, या गलत नियम पर चलने वालों के साथ सत्य बोल कर किसी को हानि पहुचाना भी अधर्म है। सत्य वही सही है जिस में जन कल्याण हो। किसी की रक्षा के क्या हम थोड़ा से झूठ नही बोल सकते।
व्यापार में या वकालत में यदि सत्य ही बोला जाए तो क्या यह अधर्म होगा। वर्ण व्यवस्था के अनुसार कर्म करना कर्तव्य धर्म है, क्योंकि क्षत्रिय होने से युध्द करना अर्जुन का धर्म है। सेना के जवान युद्ध मे शत्रु पक्ष के लोगो को मारते है, वह हत्या या पाप नही हो सकता।
सत्य में वचन एवम प्रतिज्ञा भी शामिल है, भीष्म की प्रतिज्ञा से कौन वाकिफ नही है। कर्ण द्वारा चेतावनी देने के बाद भी अपने वचन एवम कीर्ति के कवच-कुंडल के दान देने की कथा को कौन भुला सकता है। किंतु ऐसी प्रतिज्ञा जब किसी दुष्ट व्यक्ति का हथियार बन जाये तो इसे धर्म नही कह सकते।
अपनी धर्म के प्रति प्रतिबद्धता के कारण भीष्म, द्रोण एवम कर्ण को अधर्म अर्थात दुर्योधन के साथ देना पड़ा। किंतु यह तीनों में प्रत्येक योद्धा जो पूरा युद्ध जीतने की क्षमता रखते थे, लोकसंग्रह हेतु अपनी मृत्यु को स्वीकार करते है और अपनी शक्तियों को क्षय करते है। भीष्म ने अपनी मृत्यु का उपाय बता कर, कर्ण ने कवच कुंडल का त्याग और पांडवों को जीवन दान दे कर और द्रोण ने युद्धिष्ठर के झूठ पर हथियार छोड़ कर अपनी मृत्यु को स्वीकार किया। ज्ञानी पुरुष प्रतिबद्धता के नियम को भी अपनी विशेषता बना कर प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। अब जो इन की आलोचना करते है, क्या इन से श्रेष्ठ चरित्र का परिचय अपने में दे सकते है ?
अगला धर्म अस्तेय का है अर्थात ऐसा कार्य न करना जिस से जीवन को कलंक लग जाये। कीर्ति की रक्षा के शूरवीर प्राण भी दे सकते है किंतु जब भूख से जीवन नष्ट हो रहा हो, तो जीवन की रक्षा करना भी धर्म है।
अंतिम नियम मन की शुद्धि है। मनु कहते है कि धर्म का पालन करो तो धर्म आप को उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा किन्तु धर्म का पालन नही करने से धर्म आप का नाश भी कर देगा। काम, क्रोध एवम लोभ यह नरक के द्वार हैं जिन्हें त्याग देना चाहिए किन्तु जब आप को अन्याय पर क्रोध नही आता तो आप पुरुष कहलाने के लायक भी नही।
“क्षमा वीरस्य भूषणम” किंतु यही क्षमा दुष्ट प्रवृति के मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चौहान द्वारा बार बार क्षमा करने से भारी सिद्ध हुई।
युगमान के अनुसार कृत, त्रेता, द्वापर और कलि के धर्म भी भिन्न भिन्न है। ऐसा कोई आचरण नही जो हमेशा सब लोगो के लिये समान हित कारी हो। जब आचारों में भिन्नता हो, भीष्म पितामह के तारतम्य अथवा सार-असार की दृष्टि से विचार करना चाहिए।
इसलिये नीति, कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म के विवेचन को नीतिशास्त्र में अत्यंत गहन अर्थो में विचार कर के धर्म या व्यवहारिक नीति के धर्म को स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि धर्म को अत्यंत सूक्ष्म माना गया है।
अर्जुन सांसारिक कर्म एवम वैराग्य के मध्य अनिश्चितता की स्थिति में आ गया है। वैराग्य अर्थात सांख्य योग जिस में सभी कर्मो का त्याग कर के वन में प्रस्थान किया जाए या युद्ध भूमि में अपने प्राकृतिक गुण क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए, कर्म किया जाए। मनुष्य होना, अच्छे कर्मों का फल है क्योंकि परमात्मा का ज्ञान, ध्यान एवम अनुभव परमात्मा के इस श्रेष्ठ स्वरूप में ही सम्भव है। इसलिये धर्म, सत्य एवम नीतिशास्त्र का सूक्ष्म अन्वेषण चिंतन एवम मनन इसी स्वरुप में कर सकते है।
धर्म के सूक्ष्म अर्थ को हम नीति शास्त्र, सत्य, धर्म के अंतर्गत कर्मयोग को हम भगवान श्री कृष्ण से गीता में विस्तृत रूप में पढ़ेंगे।किन्तु विशेष की इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए, कर्म का एक विश्लेषण गीता के ज्ञान शुरू करने से पूर्व हम लोग जान ले तो गीता को समझने में आसानी रहेगी।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.06 (1)।।
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