।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.28 ।।I
।। अध्याय 06.28 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.28॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
‘yuñjann evaḿ sadātmānaḿ,
yogī vigata-kalmaṣaḥ..।
sukhena brahma-saḿsparśam,
atyantaḿ sukham aśnute”..।।
भावार्थ :
इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है। (२८)
Meaning:
In this manner, the sinless yogi, always engaged in the self, joyfully contacts the eternal essence, experiencing infinite bliss.
Explanation:
With this shloka, Shri Krishna concludes the topic of the meditation process. He says that one who follows the step-by-step approach towards meditation obtains infinite joy and happiness because he comes into contact with the eternal essence.
The word” evam” here refers to the step-by-step approach to meditation that has been prescribed here. Shri Krishna says that only by following this approach can the eternal essence be realized. There are several methods to meditation, but it is important to follow a disciplined approach in order to obtain the result mentioned in this shloka. It is like the purification of gold. Only a certain process will ensure that the mined gold will shine.
Next, Shri Krishna highlights that the yogi needs to have continually kept focus on the method of meditation with the word “vigata kalmashah” which means without any defects or sins. Meditation cannot yield results if the mind still harbours impurities in the form of vaasanaas and desires. A purified mind is a prerequisite to meditation.
Happiness can be classified into four categories as stated in bhagwat;
Tāmasic happiness. This is the pleasure derived from narcotics, alcohol, cigarettes, meat products, violence, sleep, etc.
Rājasic happiness. This is the pleasure from the gratification of the five senses and the mind.
Sāttvic happiness. This is the pleasure experienced through practicing virtues, such as compassion, service to others, cultivation of knowledge, stilling of the mind, etc. It includes the bliss of self-realization experienced by the jñānīs when they stabilize the mind upon the soul.
Nirguṇa happiness. This is the divine bliss of God, which is infinite in extent. Shree Krishna explains that the yogi who becomes free from material contamination and becomes united with God attains this highest state of perfect happiness. He has called this unlimited bliss in verse 5.21 and supreme bliss in verse 6.21.
Finally, what does is the end result of meditation? It is ultimate happiness or sukha, obtained by contact with brahman, the eternal essence. The literal translation is: “the yogi touches brahman”. Brahman is of the nature of infinite joy and bliss. Anyone who identifies with it also gains such infinite joy – “atyanta sukham”.
With this shloka, the explanation of the process of meditation is concluded. We can go much deeper into the process of meditation, discuss further obstacles and so on. Other texts cover those obstacles in greater detail. Next, Shri Krishna illustrates the change in the vision of the meditator, which is the final topic in this chapter on meditation.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्लोक 27 में प्रशांतमन और उत्तम सुख के रज और तम गुणों से ऊपर उत्पन्न होने की बात की गई है, तो यहां ब्रह्मसंस्पर्श से अत्यंत सुख या आनंद की बात की गई है। देखने – पढ़ने में यह बात दोहराई सी लगती है किंतु अंतर गहराई का है। पूर्व श्लोक में सत गुण से आने से सुख और आनंद का अनुभव ब्रह्म के संपर्क का रास्ता खुलने से आने लगता है, जब की इस श्लोक में जो सुख या आनंद है वह कहीं से आता नही है, वरन जीव ही गुणातीत हो कर ब्रह्म स्वरूप हो कर आनंदमय हो जाता है।
आत्मविकास एवं आत्मसंयम की साधना में प्रवृत्त हुआ योगी धीरे धीरे आत्म अज्ञान के अन्धकार और दोषों से बाहर ज्ञान के प्रकाश में आकर आनन्द का अनुभव करता है। जब साधक योगाभ्यास से मन को शान्त रखता है तब मानो ध्यान की उष्णता में मन का शुद्धीकरण होता है जैसे अग्नि की उष्णता में किसी लौहखण्ड का। जैसा पहले बताया जा चुका है मनुष्य अपने पुरुषार्थ से मन को विषयों से परावृत्त करके आत्मा में स्थिर कर सकता है। तत्पश्चात् मन एक गुब्बारे के समान विनष्ट हो जाता है जो आकाश में उँचा उड़ता हुआ विरलतर वातावरण में पहुँच कर फूट जाता है। उसके फूटने पर गुब्बारा तो नीचे गिर जाता है और गुब्बारे में स्थित आकाश बाह्य महाकाश के साथ एकाकार हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान की चरम स्थिति में मन नष्ट होता है तब अहंकार गिर जाता है और वह मन परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाता है और तब उसे ब्रह्मसंस्पर्श के परम सुख की अनुभूति होती है।यहाँ भगवान् अधीर और जिज्ञासु साधक को सच्चित्स्वरूप तत्त्व का ज्ञान कराना चाहते हैं जिसका अनुभव अन्तकरण के तादात्म्य के परियोग से ही संभव है। यह दर्शाने के लिए कि आत्मानुभूति की स्थिति आनन्द की है भगवान् कहते हैं कि ब्रह्मसंस्पर्श से साधक अत्यन्त सुखी होता है। आत्मानुभव और ब्रह्मसंस्पर्श पर्यायवाची शब्द ही समझने चाहिये।
उस की ब्रह्म के साथ जो अभिन्नता होती है उस में मैंपन का संस्कार भी नहीं रहता सत्ता भी नहीं रहती। यही सुखपूर्वक ब्रह्म का संस्पर्श करना है। जिस सुख में अनुभव करनेवाला और अनुभव में आनेवाला ये दोनों ही नहीं रहते वह अत्यन्त सुख है। इस सुख को योगी प्राप्त कर लेता है। यह अत्यन्त सुख अक्षय सुख और आत्यन्तिक सुख ये एक ही परमात्मतत्त्वरूप आनन्द के वाचक हैं।
जानकारी के लिए महृषि याज्ञवल्क्य सुखों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए कहते है – समस्त भूमंडल का साम्राज्य, मनुष्यलोक का पूर्ण ऐश्वर्य और स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, स्वास्थ्य, सम्मान, कीर्ति आदि समस्त भोग्य पदार्थ जिस को प्राप्त है, वह मनुष्य सब से बढ़ कर सुखी है क्योंकि इस लोक में मनुष्य का यही परम् आनन्द है।
उस से सौ गुना पितृलोक का आनन्द है- उस से सौ गुना गंधर्वलोक का आनन्द है- उस से सौ गुना अपने कर्मफल से देवता बने लोगो का आनन्द है- उस से सौ गुना आजान देवताओं का आनन्द है- उस से सौ गुना प्रजापति लोक का आनन्द है और उस से भी सौ गुना ब्रह्मलोक का आनन्द है। वही आनन्द पापरहित अकाम श्रोत्रिय का परम आनन्द है क्योंकि तृष्णा रहित श्रोत्रिय प्रत्यक्ष ब्रह्मलोक ही है। जो ब्रह्म को साक्षात प्राप्त है, उस को असीम अनन्त अचिन्त्य आनन्द प्राप्त है जिस की किसी के साथ तुलना हो ही नही सकती।
अष्टवक्र गीता में जनक जी अष्टवक्र से आत्मज्ञान को सुन कर, संतुष्ट होकर अपनी अभिव्यक्ति देते है, यह अभिव्यक्ति से स्पष्ट ज्ञात होता है कि योग की चरम सीमा पर ब्रह्म संस्पर्श होने योगी अनुभव किस प्रकार का होगा।
“महाराज जनक कहते है कि – मैंने आप के तत्त्वज्ञान रूपी संडासी को लेकर अपने अंतःकरण से नाना प्रकार के संकल्प- विकल्पों रूपी विचारों को निकाल दिया है । अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ , विचार ही आत्मज्ञान में रुकावट है ।।”
“राजा जनक कहते हैं कि आत्मा हमारा स्वभाव है , वही सत्य है , आनन्द है । उसे प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़ी महिमा है । आत्मज्ञानी ही महामहिम है । अपनी महिमा में स्थित मुझको कहाँ धर्म है ? कहाँ काम है ? कहाँ अर्थ है ? कहाँ विवेकशीलता है ? कहाँ द्वैत है ? और कहाँ अद्वैत है ?”
“राजा जनक कहते है कि स्थान और समय का बन्धन अज्ञानी को होता है । आत्मज्ञानी इन की परिधि से बाहर हो जाता है । मैं आत्मस्वरूप हो गया , इसलिए आत्मा ही मेरी महिमा है । अपनी महिमा में नित्य स्थित हुए मुझे कहाँ भूत है? कहाँ भविष्य है ? अथवा कहाँ वर्तमान है ? अथवा देश ही कहाँ है ?”
“राजा जनक कहते हैं कि अपनी आत्मा में स्थित हुए मुझ को कहाँ आत्मा है और कहाँ अनात्मा है ? कहाँ शुभ है और कहाँ अशुभ है ? कहाँ चिन्ता है और कहाँ अचिन्ता है ? राजा जनक की अभिव्यक्ति एकदम स्पष्ट है कि उस स्थिति में पहुँचकर आत्मा , अनात्मा का भेद ही समाप्त हो जाता है , वहाँ केवल आनन्द का बोध होता है , प्राणी शान्त हो जाता है । ऐसा अनुभव होता है , जिसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ।।”
“राजा जनक कहते हैं कि अपनी महिमा में रहते हुए मुझको कहाँ स्वप्न, कहाँ सूषुप्ति और कहाँ जाग्रत है? कहाँ तुरीय अवस्था का भय है ? वास्तव में ये चारों अवस्थाएं शरीर, मन और बुद्धि की हैं । चेतना इनसे पार की अवस्था है , जहाँ इनका कुछ भी अनुभव नहीं होता ।।”
“राजा जनक कहते हैं कि अपनी महिमा में स्थित मुझको कहाँ दूर है ? कहाँ समीप है ? कहाँ बाह्य है ? कहाँ अभ्यन्तर है ? स्थूल कहाँ और सूक्ष्म कहाँ है ? राजा जनक का यह कहना पूर्णतः सत्य है , क्योंकि आत्मा में स्थित ज्ञानी के लिए सभी भेद समाप्त हो जाते हैं । आत्मा दूर भी है और पास भी है , वह बाहर भी है और अन्दर भी है , वह स्थूल भी है और सूक्ष्म भी है , जो पिण्ड में है वही ब्रम्हाण्ड में है । वह सब जगह है ।।”
“आत्मा अजन्मा , अविनाशी , सनातन, अलिप्त है । इसलिए राजा जनक कहते हैं कि अपनी महिमा में स्थित हुए कहाँ मृत्यु है अथवा कहाँ जीवन ? कहाँ लोक है और कहाँ इसका लौकिक व्यवहार ? कहाँ लय है ? और कहाँ समाधि है ? आत्मा तो एक ही है । ज्ञानी के लिए ये सब धारणाएँ छूट जाती हैं ।।”
“राजा जनक कहते हैं कि जो ज्ञानी पूर्णता को प्राप्त हो गये हैं– उनके लिए धर्म , अर्थ , काम आदि की उपयोगिता नहीं रहती क्योंकि सिद्धि प्राप्त होनेपर साधन बेकार हो जाते हैं । इसी प्रकार विज्ञान की भी उपयोगिता नहीं रहती । जब कुछ प्राप्त करना ही शेष नहीं रहता , तो इसका प्रयोजन ही समाप्त हो गया । सब छोड़कर एक आत्मा में स्थित योगी सब कुछ पा लेता है । यही परम धर्म है ।।”
छान्दोग्य उपनिषद में भूमा एवम अल्प शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है, योगी जहां अन्य को नही देखता, अन्य को नही सुनता, अन्य को नही जानता, वह भूमा है और जहां अन्य को देखता है, अन्य को सुनता है अन्य को जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वह मरणशील अर्थात नश्वर है। जो आज है वह नष्ट हो जाएगा तो यथार्थ में सुख नही हो सकता।
व्यवहारिक बात यही है कि स्थिति को पढ़ना और उस स्थिति के आनंद को महसूस करना एक सांसारिक और गृहस्थ के सरल नही है, जब तक वह राजा जनक, कृष्ण आदि जैसे कर्मयोगी के चरित्र को अच्छे से पढ़ कर न समझ ले। परंतु यदि निरंतर अभ्यास और धृति अर्थात दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ इस स्थिति के लिए तैयार हो।हम लोगो से कामना का त्याग की यदि कठिन है तो मन और देह के प्रति आसक्ति का त्याग विचार से परे होगा। किंतु हनुमान प्रसाद पोद्दार, डोंगरे महाराज, रामसुखदास जी आज के युग के कर्मयोगी के उदाहरण को आदर्श मान ले तो यह असंभव भी नही है। इसलिए भगवान कहते है कि लाखो में एक ही इस स्थिति को प्राप्त कर पाता है।
अतः इस स्थिति के लिए जैसे पहले भी कहा गया है, मुक्ति की इच्छा होनी चाहिए और इस में पहली मुक्ति अपने दुराचार से हो कर सदाचार की शुरुवात है, द्वितीय मुक्ति दुर्भाव से, तृतीय दुर्गुण से, चतुर्थ चंचलता से होने के बाद, पांचवी मुक्ति सदाचार, सद्गुण, सद्भाव से हो कर छठी मुक्ति अपने अंत:करण से होना चाहिए। यह मुक्ति कुछ ही समय अर्थात ध्यान, भजन या कीर्तन रहे तो भी नही चलता, यह नित्य अर्थात 24*7 रहना चाहिए। इस के निरंतर अभ्यास इस प्रकार हो ही यह आत्म स्वरूप ही हो जाए। यदि कुछ पकड़ कर बैठे है और मुक्ति की सोच रहे है तो यह बेवकूफी और अज्ञान के अतिरिक्त कुछ नही। मुक्त यानि पूर्णत: मुक्त, कोई शर्त, मजबूरी, भ्रांति या अपवाद नहीं।
यहाँ पातंजलि या सांख्य योग में क्रियारहित समाधिस्थ योगी के ब्रह्मभूत स्थिति तक पहुचने का वर्णन है, यह स्थिति पर कर्मयोगी किस प्रकार रहेगा, उस परिपेक्ष में अर्जुन को योगी की अन्य विशेषताओं को आगे वर्णित किया गया है। इसी अनन्त आनंदमय आनंद की श्लोक 21 में आत्यंतिक सुख और अध्याय 5 में श्लोक 21 में अक्षय सुख बताया गया है। ध्यान योग की विधि, उस के लिए साधन एवम उस के प्राप्त स्थिति का वर्णन इस श्लोक के साथ समाप्त होता है। अब अगले श्लोक में योगी के एकत्वदर्शन एवम सर्वभूतात्मैक्यदर्शन का वर्णन को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 6.28।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)