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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  06.25 ।।

।। अध्याय    06.25  ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 6.25

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥

“śanaiḥ śanair uparamed,

buddhyā dhṛti-gṛhītayā..।

ātma-saḿsthaḿ manaḥ kṛtvā,

na kiñcid api cintayet”..।।

भावार्थ : 

मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे। (२५)

Meaning:

With firm resolve and regularity, slowly but surely, withdraw (the mind) through the intellect. Having established the mind in the self, do not think even a little bit about anything else.

Explanation:

In the prior shloka, Shri Krishna advised the meditator to detach the mind from sense objects, and to control desires by checking unwanted thoughts. In this shloka, Shri Krishna goes deeper into the topic of focusing attention on one thought. He says that the meditator should use his intellect to withdraw the mind from all material thoughts in order to focus the mind on the one thought: “I am the self”.

The objects are divided into three:

1. The first object is external world, because it is an object of my experience.

2. The second object is my physical body itself, which is also an object of my experience.

3. The third object is my own mind, which is also an object of my experience.

So, world is object of experience, body is object of experience, even mind is an object of experience. And in meditation; what do I do, initially my attention is on the world; then I shift my attention to the body, then I shift my attention to the mind and then I shift my attention to what?; the very observer of the mind, that is I- the-

awareness, the witness-consciousness principle. And it takes time; you can come to the body perhaps it is easier, even when it comes to the body, now and then, it will go to the first son, second daughter, and third daughter-in-law; again, you have to bring to the body, again it will run outside.

In the third chapter, we had encountered the hierarchy of our personality where we saw that the mind is higher than the senses, and the intellect is higher than the mind. What does it mean for the meditator? It means that even though the mind is hard to control, our intellect has the power to rein it in. In other words, the meditator should use the intellect to control the mind.

The mind likes to be busy. It hops from one thought to another at lightning fast speeds. Once we withdraw the mind from the senses, the mind gets restless because it cannot run after sense objects. In order to keep busy, it starts thinking about the past and the future. So therefore, Shri Krishna asks us to use our intellect to rein in the mind. This withdrawal is called “buddhi uparamet” in the shloka.

How does one do that? Let’s take dieting as an example. Imagine that our doctor has asked us to go on strict diet for 2 weeks. Our first step is to control the senses by not keeping any undesirable food in the house. When this happens, the mind will continuously think about food, and tempt the body to do undesirable things, e.g., go out of the house to get fatty food and so on. The mind becomes agitated and restless, which is a recipe for disaster.

At this point, we use our intellect that has received the doctor’s instructions to check the mind. We think: “I respect the doctor. Therefore, mind, stop contemplating undesirable food since it will have negative consequences for me”. When we think this thought, we can control the mind’s rush into food- related thoughts.

Similarly, during meditation, we can withdraw the mind using the intellect. We need to have an intellect that has read and heard about the eternal essence. It understands that any thought other than “I am the self” does not have a place in meditation. Each time an unwanted thought comes, we should use the intellect to gently but firmly shift focus from that thought and put the mind back into the main thought of “I am the self”.

Shri Krishna says that this method could take weeks, months or years. Therefore, he asks us to do it “shanaih shanaih” or slowly slowly, with great fortitude and patience. We should constantly meditate over the thought : “ I am the self”. Other than this thought, there should be no other thought. Each time the mind strays, we should not think that we have failed and get dejected. We should again bring the mind back slowly to the one main thought. A time will come when even that one thought will slowly dissipate, leaving the mind motionless and enabling the self to shine through.

When done correctly, we generate a lot of energy will radiate from our personality. This “tapas” or energy was always within us, but used to leak out through our mind and sense organs.

Now, the mind has another issue. It moves from thought to thought with great speed. This is taken up in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

ध्यान लगाने और सीखने वालो के लिए यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ध्यान किस का लगाए।

ध्यान लगाने के आसन पर बैठने के बाद जब आंखे मूंद कर ध्यान की प्रक्रिया शुरू करते है तो मन भी भागने –  दौड़ने लगता है। यह कभी भूतकाल तो कभी भविष्य की कल्पना, व्यक्ति, वस्तु, रंग, आकाश, प्रकृति, कामना, आसक्ति, क्षोभ, घृणा, लोभ, मोह, अनैतिक-नैतिक उन क्रियाओं की ओर भागता है जो किसी घटना क्रम से जाने अनजाने में जुड़ी है और उस के प्रति हम जो नही कर सके, वह करना। काफी कुछ स्वप्न जैसा।  अष्टावक्र जी कहते हैं, जब मन वश में न हो तो  पवित्र- अद्वैत- तत्त्व में स्थित होने के बाद भी और मुमुक्षु पुरुष,  काम के वशीभूत होकर काम भोगों के लिए बेचैन  ( विकल ) होता है । यह बहुत आश्चर्यजनक बात है । इस भागते हुए मन को बार बार एक ही बिंदु  अर्थात संकल्प विहीन सगुणाकार निर्गुण ब्रह्म को ओर ले जाने का प्रयास करते रहना पड़ता है। मन को संकल्प त्याग कर के वश में करना ध्यान की प्राथमिक एवम अत्यंत आवश्यक प्रक्रिया है। अतः भगवान श्री कृष्ण पुनः इसी बात पर जोर देते हुए कहते है।

एक मंजिल से दूसरी मंजिल जाने के आज कल लिफ्ट का सहारा ले ले तो हमे ऊंचाई या वस्तुत: अपनी स्थिति का सही ज्ञान नही हो सकता, हमारा व्यवहार मन और बुद्धि में प्रथम तल से 18वें तल या और भी ऊपर वही होगा। किंतु यदि सीढ़ी दर सीढ़ी हम मंजिल की ओर चढ़ते है तो हमे ऊंचाई का अहसास होता है। ध्यान में भी यदि कोई तत्काल आत्मा का ध्यान लगाए तो विकार उसे ध्यान नहीं लगाने देंगे। इसलिए जीव को क्रमश; पहले अपना ध्यान संसार और अपनी सामाजिक गतिविधियों से निकलना होगा। मन में अपना भूत और भविष्य, परिवार, मित्र, रिश्तेदार या व्यापार और जिम्मेदारियां ही घूमती रहेगी तो ध्यान लगाने वाला भी भूत और भविष्य में ही रह जाएगा, जब की ध्यान में वर्तमान अवस्था में रहना आवश्यक है।

दूसरा ध्यान शरीर से हटाना है।प्रकृति से प्राप्त देह पर जीव का अत्यंत मोह होता है। इसलिए वह आईने में अपने को न देखे तो बैचेन हो जाए। शरीर की स्वांस प्रक्रिया को धीरे धीरे सम करते जाना है।

संसार और शरीर से ध्यान हटने के बाद ध्यान में मन रह जाता है, इस मन से ध्यान रखने से राग – द्वेष, कामनाएं, आसक्ति, मोह, लोभ और अहम आदि जीव को घेरे रहते है, तो फिर ध्यान किस पर?

ध्यान लगाना चाहिए, परमात्मा पर। परमात्मा निराकार और निर्गुण है, इसलिए मन नहीं भटके, इसलिए शुरुवात सगुण ध्यान अर्थात फोटो, मूर्ति, दीपक की लौ या किसी बिंदु से हो कर शैनै: शैनै: निराकार निर्गुण की ओर बढ़ना है। शैनै: शैनै:  अत्यंत महत्वपूर्ण है जो शुरू में लिफ्ट और सीढ़ी के अंतर से हम समझ सकते है।

विषय चिंतन करना मन का अनादि काल का अभ्यास है, उसे चिर अभ्यस्त विषय चिंतन से हटा कर परमात्मा में लगाना है। मन जिस भी वस्तु में लग जाये वहां से जल्दी नही हटता। इसलिये लक्ष्य पर निश्चय कर के दृढ़ बुद्धि से फुसला कर, डांट कर, रोक कर और समझा कर परमात्मा की ओर लगाना पड़ता है। इस के लिये धैर्य एवम निरंतर अभ्यास एवम दृढ़ता की आवश्यकता होती है।

साधकों को उकताहट होती है निराशा होती है कि ध्यान लगाते विचार करते इतने दिन हो गये पर तत्त्व प्राप्ति नहीं हुई तो अब क्या होगी कैसे होगी इस बात को लेकर भगवान् ध्यानयोग के साधक को सावधान करते हैं कि उस को ध्यानयोग का अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो तो भी उकताना नहीं चाहिये प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। जैसे सिद्धि प्राप्त होने पर सफलता होने पर धैर्य रहता है विफलता होने पर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिये कि वर्ष के वर्ष बीत जायँ शरीर चला जाय तो भी परवाह नहीं पर तत्त्व को तो प्राप्त करना ही है। 

पहले के श्लोक में living in sixth sense की बात कही थी। यहाँ वो ही बात समस्त कामनाओं एवम आसक्ति को परमात्मा से जोड़ने की बात है जिस से कुछ भी न बचे। आप घर गृहस्थी, व्यापार, आमोद प्रमोद, लाभ हानि, सुख दुख में साक्षी बने। आप आत्म स्वरूप है और जो हो रहा है एवम आप जो भी कर रहे है,  वो प्रकृति अपना कार्य कर रही है, आप निमित है। अपना अहम की ‘मैं’ कर रहा हूँ यह निकाल कर यह सोचे कि परमात्मा ही कर रहा है वो ही करवा रहा है।

इस उपराम की स्थिति को प्राप्त करने के लिये कुछ और भी क्रिया है जैसे इस प्रकार बुद्धि को वश में कर ले अर्थात् बुद्धि में मान बड़ाई आराम आदि को लेकर जो संसार का महत्त्व पड़ा है उस महत्त्व को हटा दे। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोक में जिन विषयों का त्याग करने के लिये कहा गया है धैर्यपूर्वक बुद्धि से उन विषयों से उपराम हो जाय। उपराम होने में जल्दबाजी न करे किन्तु धीरे धीरे उपेक्षा करते करते विषयों से उदासीन हो जाय और उदासीन होने पर उन से बिलकुल ही उपराम हो जाय। इस के धृति अर्थात मजबूत इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।

यदि आप बीमार है और डॉक्टर ने मिठाई खाने को मना किया है। तो मिठाई की प्लेट सामने आ जाने पर यदि आप की इच्छा शक्ति मजबूत है तो आप मिठाई खाने की इच्छा को नकार देंगे। किंतु यह नकारना खाने से बीमार होने के भय से है। परंतु बार बार यदि आप खाने से इंकार करते रहेंगे तो शैने: शैने: यह आप महसूस करेंगे की मिठाई खाने की इच्छा ही समाप्त हो गई, फिर डॉक्टर द्वारा खाने को हां कहने पर भी आप नही खायेंगे।

कामनाओं का त्याग और मन से इन्द्रियसमूह का संयमन करने के बाद भी यहाँ जो उपराम होने की बात बतायी है उस का तात्पर्य है कि किसी त्याज्य वस्तुका त्याग करने पर भी उस त्याज्य वस्तु के साथ आंशिक द्वेष का भाव रह सकता है। उस द्वेषभाव को हटाने के लिये यहाँ उपराम होने की बात कही गयी है। तात्पर्य है कि संकल्पों के साथ न राग करे न द्वेष करे किन्तु उन से सर्वथा उपराम हो जाय।

जिस सूर्य के प्रकाश से दीपक बिजली आदि प्रकाशित होते हैं वे दीपक आदि सूर्य को कैसे प्रकाशित कर सकते हैं कारण कि उन में प्रकाश तो सूर्य से ही आता है। ऐसे ही मन बुद्धि आदि में जो कुछ शक्ति है वह उस परमात्मा से ही आती है। अतः वे मन बुद्धि आदि उस परमात्मा को कैसे पकड़ सकते हैं नहीं पकड़ सकते। दूसरी बात संसार की तरफ चलने से सुख नहीं पाया है केवल दुःख ही दुःख पाया है। अतः संसार के चिन्तन से प्रयोजन नहीं रहा। तो अब क्या करें उससे उपराम हो जायँ। यहाँ उपराम होने की बात इसलिये कही गयी है कि परमात्म तत्त्व मन के कब्जे में नहीं आता क्योंकि मन प्रकृति का कार्य होने से जब प्रकृति को भी नहीं पकड़ सकता तो फिर प्रकृति से अतीत परमात्म तत्त्व को पकड़ ही कैसे सकता है अर्थात् परमात्मा का चिन्तन करते करते मन परमात्मा को पकड़ ले यह उसके हाथ की बात नहीं है। जिस परमात्माकी शक्ति से मन अपना कार्य करता है उस को मन कैसे पकड़ सकता हैं।

सब जगह एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही परिपूर्ण है। संकल्पों में पहले और पीछे (अन्तमें) वही परमात्मा है। मन में कोई तरंग पैदा हो भी जाय तो उस तरंग को परमात्मा का ही स्वरूप माने। अब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है ऐसा चिन्तन भी न करे। कारण कि जब मन को परमात्मा में स्थापन कर दिया तो अब चिन्तन करने से सविकल्प वृत्ति हो जायगी अर्थात् मन के साथ सम्बन्ध बना रहेगा जिस से संसार से सम्बन्धविच्छेद नहीं होगा। इस प्रकार उपराम होने से स्वतःसिद्ध स्वरूप का अनुभव हो जायगा जिस बुद्धिमें धीरज है ऐसी बुद्धि के द्वारा धीरे धीरे उपराम हो जाय। संसार की कोई भी बात मन में आये तो उस से उपराम हो जाय। साधक की भूल यह होती है कि जिस समय वह परमात्मा का ध्यान करने बैठता है उस समय सांसारिक वस्तु की याद आने पर वह उस का विरोध करने लगता है। विरोध करने से भी वस्तु का अपने साथ सम्बन्ध हो जाता है और उस में राग करने से भी सम्बन्ध हो जाता है। अतः न तो उस का विरोध करें और न उस में राग करें। उस की अपेक्षा करें उससे उदासीन हो जायँ। 

जब हम अपना एक व्यक्तित्व पकड़ लेते हैं तब मैं हूँ ऐसा दीखने लगता है। यह व्यक्तित्व मैं पन भी जिसके अन्तर्गत है ऐसा वह अपार असीम सम शान्ति सद्घन चिद्घन आनन्दघन परमात्मा है। 

उस परमात्मा में स्थित होकर कुछ भी चिन्तन न करे। एक चिन्तन करते हैं और एक चिन्तन होता है। चिन्तन करे नहीं और अपने आप कोई चिन्तन हो जाय तो उस के साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े तटस्थ रहे। वास्तव में हम तटस्थ ही हैं क्योंकि संकल्प विकल्प तो उत्पन्न और नष्ट होते हैं पर हम रहते हैं। इसलिये रहनेवाले स्वरूप में ही रहें और संकल्प विकल्प की उपेक्षा कर दें तो हमारे पर वह (संकल्प विकल्प) लागू नहीं होगा। साधक एक गलती करता है कि जब उसको संसार याद आता है तब वह उससे द्वेष करता है कि इसको हटाओ इस को मिटाओ। ऐसा करने से संसार के साथ विशेष सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसलिये उसको हटाने का कोई उद्योग न करे प्रत्युत ऐसा विचार करे कि जो संकल्पविकल्प होते हैं उनमें भी वह परमात्मतत्त्व ओतप्रोत है। जैसे आकाशमें बादल आते हैं और शान्त हो जाते हैं ऐसे ही मन में कई स्फुरणाएँ आती हैं और शान्त हो जाती हैं। आकाश में कितने ही बादल आयें और चले जायँ पर आकाश में कुछ परिवर्तन नहीं होता वह ज्यों का त्यों रहता है। ऐसे ही ध्यान के समय कुछ याद आये अथवा न आये परमात्मा ज्यों का त्यों परिपूर्ण रहता है। कुछ याद आये तो उस में भी परमात्मा है और कुछ याद न आये तो उस में भी परमात्मा है। देखने में सुनने में समझने में जो कुछ आ जाय उन सब के बाहर भी परमात्मा है और सबके भीतर भी परमात्मा है। चर और अचर जो कुछ है वह भी परमात्मा है। दूर से दूर भी परमात्मा है नजदीक से नजदीक भी परमात्मा है। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे वह बुद्धि के अन्तर्गत नहीं आता । ऐसा वह परमात्मा सद्घन चिद्घन आनन्दघन है। सब जगह पूर्ण आनन्द अपार आनन्द सम आनन्द शान्त आनन्द घन आनन्द अचल आनन्द अटल आनन्द आनन्द ही आनन्द है एकान्त में ध्यान करने के सिवाय दूसरे समय कार्य करते हुए भी ऐसा समझे कि परमात्मा सब में परिपूर्ण है। कार्य करते हुए सावधान होकर परमात्मा की सत्ता मानेंगे तो ध्यान के समय बड़ी सहायता मिलेगी और ध्यान के समय संकल्प विकल्प की उपेक्षा कर के परमात्मा में अटल स्थित रहेंगे तो व्यवहार करते समय परमात्मा के चिन्तन में बड़ी सहायता मिलेगी। जो साधक होता है वह घंटे दो घंटे नहीं आठों पहर साधक होता है। जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपने में निरन्तर स्थित रहता है ऐसे ही मात्र जीव परमात्मा में निरन्तर स्थित रहते हैं।

यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि सब कामनाओं का निशेष त्याग करना आवश्यक है। इससे आत्मानुभूति की स्थिति के स्वरूप के सम्बन्ध में किसी भी साधक के मन में कोई शंका नहीं रह जानी चाहिए। अशेषत से तात्पर्य यह है कि ध्यान के अन्तिम चरण में साधक को योग के पूर्णत्व की प्राप्ति की इच्छा का भी त्याग कर देना चाहिए।

शनैःशनैः अर्थात् सहसा नहीं क्रम क्रम से उपरति को प्राप्त करे। किस के द्वारा बुद्धिद्वारा। कैसी बुद्धि द्वारा धैर्यसे धारण की हुई अर्थात् धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा तथा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी वस्तुका भी चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।

ध्यान की प्रक्रिया में यह छोटा सा भाग है, गीता में अपनी प्रकृति के स्वरूप अर्थात क्षेत्र के ज्ञान से यह अधिक स्पष्ट होगा। योगाभ्यास में प्रवृत्त जिन साधकों का मन चंचल और अस्थिर होता है उनके लिए अगले श्लोक में मन को स्थिर करने के उपाय पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 6.25।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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