।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.20 ।। Additional II
।। अध्याय 06.20 ।। विशेष II
।। स्वामी रामसुखदास जी द्वारा ध्यान के स्वरूप की समीक्षा उन लोगो के लिये जो ध्यान लगाते है या लगाना चाहते है, महत्वपूर्ण है ।। विशेष 6.20 ।।
मन को केवल स्वरूप में ही लगाना है यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होने के बाद स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय तो उस की उपेक्षा कर के उसे हटा देने और चित्त को केवल स्वरूप में ही लगाने से जब मन का प्रवाह केवल स्वरूप में ही लग जाता है तब उस को ध्यान कहते हैं। ध्यान के समय ध्याता ध्यान और ध्येय यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यान के समय अपने को ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है स्वरूप में तद्रूप होने वाली वृत्ति को ध्यान मानता है और साध्य रूप स्वरूप को ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जब तक इन तीनों का अलग अलग ज्ञान रहता है तब तक वह ध्यान कहलाता है।
ध्यान में ध्येय की मुख्यता होने के कारण साधक पहले अपने में ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यान की वृत्ति भी भूल जाता है। अन्त में केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इस को समाधि कहते हैं। यह संप्रज्ञातसमाधि है जो चित्त की एकाग्र अवस्था में होती है। इस समाधि के दीर्घकाल के अभ्यास से फिर असंप्रज्ञात समाधि होती है। इन दोनों समाधियों में भेद यह है कि जब तक ध्येय, ध्येय का नाम और नाम-नामी का सम्बन्ध ये तीनों चीजें रहती हैं तब तक वह संप्रज्ञात समाधि होती है। इसी को चित्त की एकाग्र अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नाम की स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है तब वह असंप्रज्ञात समाधि होती है। इसी को चित्त की निरुद्ध अवस्था कहते हैं।
निरुद्ध अवस्था की समाधि दो तरह की होती है सबीज और निर्बीज। जिस में संसार की सूक्ष्म वासना रहती है वह सबीज समाधि कहलाती है। सूक्ष्म वासना के कारण सबीज समाधि में सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टि से तो ऐश्वर्य हैं पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतनतत्त्व की प्राप्ति में) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियों को निस्तत्त्व समझ कर इन से उपराम हो जाता है तब उस की निर्बीज समाधि होती है जिस का यहाँ (इस श्लोक में) निरुद्धम् पद से संकेत किया गया है।ध्यान में संसार के सम्बन्ध से विमुख होने पर एक शान्ति एक सुख मिलता है जो कि संसार का सम्बन्ध रहने पर कभी नहीं मिलता।
संप्रज्ञात समाधि में उस से भी विलक्षण सुख का अनुभव होता है। इस संप्रज्ञात समाधि से भी असंप्रज्ञात समाधि में विलक्षण सुख होता है। जब साधक निर्बीज समाधि में पहुँचता है तब उसमें बहुत ही विलक्षण सुख आनन्द होता है। योग का अभ्यास करते करते चित्त निरुद्ध अवस्था निर्बीज समाधि से भी उपराम हो जाता है अर्थात् योगी उस निर्बीज समाधि का भी सुख नहीं लेता उस के सुख का भोक्ता नहीं बनता। उस समय वह अपने स्वरूप में अपने आप का अनुभव करता हुआ अपने आप में सन्तुष्ट होता है।उपर मते पदका तात्पर्य है कि चित्त का संसार से तो प्रयोजन रहा नहीं और स्वरूप को पकड़ सकता नहीं। कारण कि चित्त प्रकृतिका कार्य होनेसे जड है और स्वरूप चेतन है। जड चित्त स्वरूप को कैसे पकड़ सकता है नहीं पकड़ सकता। इसलिये वह उपराम हो जाता है। चित्त के उपराम होने पर योगी का चित्तसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।तुष्यति कहने का तात्पर्य है कि उस के सन्तोष का दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं रहता। केवल अपना स्वरूप ही उस के सन्तोष का कारण रहता है। इस श्लोक का सार यह है कि अपने द्वारा अपने में ही अपने स्वरूप की अनुभूति होती है। वह तत्त्व अपने भीतर ज्यों का त्यों है। केवल संसार से अपना सम्बन्ध मानने के कारण चित्त की वृत्तियाँ संसार में लगती हैं जिससे उस तत्त्व की अनुभूति नहीं होती। जब ध्यान योग के द्वारा चित्त संसार से उपराम हो जाता है तब योगी का चित्त से तथा संसार से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। संसार से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होते ही उस को अपने आप में ही अपने स्वरूप की अनुभूति हो जाती है।
जिस तत्त्व की प्राप्ति ध्यानयोग से होती है उसी तत्त्व की प्राप्ति कर्मयोग से होती है। परन्तु इन दोनों साधनों में थोड़ा अन्तर है। ध्यानयोग में जब साधक का चित्त समाधि के सुख से भी उपराम हो जाता है तब वह अपने आपसे अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोग में जब साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है तब वह अपने आप से अपने आप में सन्तुष्ट होता है ।ध्यान योग में अपने स्वरूप में मन लगने से जब मन स्वरूप में तदाकार हो जाता है तब समाधि लगती है। उस समाधि से भी जब मन उपराम हो जाता है तब योगीका चित्तसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और वह अपने आपमें सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोग में मन बुद्धि इन्द्रियाँ शरीर आदि पदार्थों का और सम्पूर्ण क्रियाओँका प्रवाह केवल दूसरों के हित की तरफ हो जाता है तब मनोगत सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं। कामनाओं का त्याग होते ही मन से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और वह अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 6.20 ।।
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