।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.17 ।। Additional II
।। अध्याय 06.17 ।। विशेष II
।। पातंजलि योग सूक्तम – संक्षिप्त परिचय ।। विशेष गीता 6.17 ।।
गीता अध्याय 6 ध्यान योग का उत्कृष्ट अध्याय है जो योग के लिये उन सभी विचारणीय बातों की बात रहा है जो योगी के आवश्यक है। यह अध्याय पातंजलि के योग सूक्तम के प्रथम पांच अध्याय शारीरिक एवम मानसिक बल के सात्विक गुणों एवम स्वस्थता पर अधिक बल देता है जिस के बिना न तो योग होगा और न ही चिंतन-मनन और ध्यान। अतः हम पातंजलि योग सुक्तम की जानकारी भी ले लेते है।
परिचय:
योग दर्शन छः भारतीय आस्तिक दर्शनों में से एक शास्त्र है । योगसूत्रों की रचना ४०० ई॰पूर्व महान भारतीय मनीषा महर्षि पतंजलि ने की थी । योगसूत्र में चित्त को एकाग्र कर के ईश्वर में लीन करने का विधान है । पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।
षड् आस्तिक दर्शनों में योगदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। कालांतर में योग की नाना शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर प्रभाव डाला। “चित्तवृत्ति निरोध” को योग मानकर यम, नियम, आसन आदि योग का मूल सिद्धांत उपस्थित किये गये हैं । प्रत्यक्ष रूप में हठयोग, राजयोग और ज्ञानयोग तीनों का मौलिक यहाँ मिल जाता है। इस पर भी अनेक भाष्य लिखे गये हैं। आसन, प्राणायाम, समाधि आदि विवेचना और व्याख्या की प्रेरणा लेकर बहुत से स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना हुई। योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है। उन्होंने भी वही पचीस तत्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्व ‘पुरुषविशेष‘ या ईश्वर भी माना है, जिससे सांख्य के ‘अनीश्वरवाद‘ से ये बच गए हैं।
पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों या भागों में विभक्त है। समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उस का साधन किस प्रकार होता है। साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उस का परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। पतंजलि ने इन सब से बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय कर्म फल के बंधन से सर्वथा मुक्त और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं।
महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ (योगःचित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने ‘योगसूत्र’ नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:
१) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि
अष्टांग योग की स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें ‘अंग’ कहते हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है। ‘यम‘ और ‘नियम‘ वस्तुतः शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना)। इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो देह स्थिरता की साधना है। आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति= प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)।
अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना ‘धारणा’ कहलाता है।
ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।
ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है।
जिस ध्येय पर चित्त लगाया जाए, उस के साथ चित्त एकाग्र हो जाए तो उसे ध्यान कहते है।
ध्यान करते हुए जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, तो उस के अपने स्वरूप का अभाव हो जाता है, उसे समाधि कहते है।
किसी एक ध्येय पदार्थ में धारणा, ध्यान और समाधि तीनो होने से संयम कहलाता है।
जो योगी संयम पर विजय प्राप्त कर लेता है तो उस की बुद्धि में अलौकिक ज्ञान शक्ति आ जाती है। उस से जिस भी पदार्थ से संयम करता है, उस पर नियंत्रण कर लेता है। इसे से सिद्धियों की प्राप्ति होने लगती है
सिद्धियों जन्म, औषधि, मंत्र, तप और समाधि से मिलने वाली अतिरेक शक्ति है। प्रत्येक जीव में जीवन की लालसा बनी रहती है किंतु समाधि से संयम तक योगी दग्ध हुए बीज के समान हो जाता जिस के वह अपना शेष जीवन व्यतीत कर केवल्य को प्राप्त होता है।
अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
योग के अष्टांगों का परिचय
यमनियमाSSसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोSष्टावङ्गानि ।।
यम
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहा:यमा ।।
पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा –
अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्याग: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/35।।
अर्थात अहिंसा से प्रतिष्ठित हो जाने पर उस योगी पास वैरभाव छूट जाता है । शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य – सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफ़लाश्रययत्वम् ।। पातंजलयोगदर्शन 2/36 ।।
अर्थात सत्य से प्रतिष्ठित (वितर्क शून्यता स्थिर) हो जाने पर उस साधक में क्रियाओं और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है अर्थात जब साधक सत्य की साधना में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके किए गए कर्म उत्तम फल देने वाले होते हैं और इस सत्य आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर कल्याणकारी होता है। विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
(ग) अस्तेय – अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।। पातंजलयोगदर्शन 2/37 ।।
अर्थात अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी रत्नों की उपस्थति हो जाती है । अस्तेय अर्थात चोर-प्रवृति का न होना।
(घ) ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/ 38 ।।
अर्थात ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य (सामर्थ्य) का लाभ होता है ।
ब्रह्मचर्य दो अर्थ हैं- चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह – अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध :।। पातंजलयोगदर्शन 2/ 39।।
अर्थात अपरिग्रह स्थिर होने पर (बहुत, वर्तमान और भविष्य के ) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है । अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
नियम
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/32 ।।
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान – नियम कहे जाते हैं ।
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच – शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप – स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना
(ड़) ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
आसन
योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण आसन शरीर को साधने का तरीका है।
पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है (स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥)।
पतंजलि के योगसूत्र में ने आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इन से सम्बंधित ‘हठयोगप्रदीपिका’ ‘घेरण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।
उच्च प्रकार की शक्ति प्राप्त होने तक नित्यप्रति शारीरिक और मानसिक आसन करने पड़ते हैं । योगियों ने इस प्रकार के आसन, प्राणायाम आदि का वर्णन किया है, जिनके करने से शरीर एवं मन पर संयम होता है।
आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं शरीर व मन को स्फूर्ति प्राप्त होती है। उद्देश्यों के भेद के कारण ये आसन दो श्रेणियों में आते हैं; एक जिनका उद्देश्य प्राणायाम या ध्यान का अभ्यास है और दूसरे वे जो कि शरीर को निरोग बनाये रखने के लिए किये जाते हैं। क्योंकि शरीर और मन का संबंध स्थूल और सूक्ष्म का है इसलिए इन दोनों ही श्रेणियों को एक-दूसरे से अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। दूसरे शब्दों में, प्राणायाम और ध्यान का अधिकारी तो वही है, जिसने शरीर का पूरी तरह से शोधन कर लिया हो, और यह शोधन बिना आसनों के संभव नहीं है। स्थिर और सहज बैठने के लिए जो शक्ति और धैर्य चाहिए वह भी आसनों से ही मिलता है।
प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/49 ।।
उस ( आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है । योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
बहुत से लोग प्राण का अर्थ श्वास या वायु लगाते हैं और प्राणायाम का अर्थ श्वास का व्यायाम बताते हैं, किन्तु यह धारणा गलत और भ्रामक है क्योंकि प्राण वह शक्ति है, जो वायु में क्या विश्व के समस्त सजीव और निर्जीव पदार्थों में व्याप्त है।प्राणायाम का उद्देश्य शरीर में व्याप्त प्राण शक्ति को उत्प्रेरित, संचारित, नियंत्रित और संतुलित करना है। इससे हमारा शरीर तथा मन नियंत्रण में आ जाता है। हमारे निर्णय करने की शक्ति बढ़ जाती है और हम सही निर्णय करने की स्थिति में आ जाते हैं।
शरीर की शुद्धि के लिए जैसे स्नान की आवश्यकता है, वैसे ही मन की शुद्धि के लिए प्राणायाम की। प्राणायाम से हम स्वस्थ और निरोग होते हैं, दीर्घायु प्राप्त करते हैं, हमारी स्मरण शक्ति बढ़ती है और मस्तिष्क के रोग दूर होते हैं।
प्रत्याहार
इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं।
जब इंद्रियाँ अपने विषयों से मुड़कर अंतर्मुखी होती हैं, उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं । सामान्यत: इंद्रियों की स्वेच्छाचारिता प्रबल होती है। प्रत्याहार की सिद्धि से साधक को इंद्रियों पर अधिकार, मन की निर्मलता, तप की वृद्धि, दीनता का क्षय, शारीरिक आरोग्य एवं समाधि में प्रवेश करने की क्षमता प्राप्त होती है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम के अभ्यास से साधक का शरीर शुद्ध और स्वस्थ हो जाता है, मन और इंद्रियां शांत हो जाती हैं, उनमें एकाग्रता आ जाती है। प्रभु की असीम शक्ति का आभास होता है और साधक अपने को प्रभु में लीन रखने लगता है। इस प्रकार इस अभ्यास से प्रत्याहार के लिए सुदृढ भूमिका तैयार हो जाती है।
धारणा
मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय का ध्यान में बनाए रखना।
स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि के उचित अभ्यास के पश्चात् यह कार्य सरलता से होता है। प्राणायाम से प्राण वायु और प्रत्याहार से इंद्रियों के वश में होने से चित्त में विक्षेप नहीं रहता, फलस्वरूप शांत चित्त किसी एक लक्ष्य पर सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। विक्षिप्त चित्त वाले साधक का उपरोक्त धारणा में स्थित होना बहुत कठिन है। जिन्हें धारणा के अभ्यास का बल बढ़ाना है, उन्हें आहार-विहार बहुत ही नियमित करना चाहिए तथा नित्य नियमपूर्वक श्रद्धा सहित साधना व अभ्यास करना चाहिए।
ध्यान
किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
ध्यान का तात्पर्य है, वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीकर ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है, एकाग्रता लायी जा सकती है। इसी से मानसिक शक्ति के सारे भंडार खुलते हैं। उसी के लिए ही ध्यान की अनेक विधियां हैं।
समाधि
यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
विक्षेप हटाकर चित्त का एकाग्र होना ही समाधि है। ध्यान में जब चित्त ध्यानाकार को छोड़कर केवल ध्येय वस्तु के आकार को ग्रहण करता है, तब उसे समाधि कहते हैं अर्थात इस स्थिति में ध्यान करने वाला ध्याता भी नहीं रहता, वह अपने-आपको भल जाता है. रह जाता है मात्र ध्येय, यही ध्यान की परमस्थिति है। यही समाधि है। समाधि ध्यान की चरम परिणति है । जब ध्यान की पक्वावस्था होती है, तब चित्त से ध्येय का द्वैत और तत्संबंधी वृत्ति का भान चला जाता है।
समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
अष्टांग योग का महत्व | Ashtanga Yoga Ka Mahatva
अष्टांग योग सप्ताह में छः दिन का अभ्यास किया जाता है, आमतौर पर रविवार से शुक्रवार, शनिवार के दिन आराम ले सकते है। ईमानदार प्रयास और दैनिक अभ्यास के साथ, अष्टांग योग शरीर और दिमाग को शांति और स्थिरता की स्थिति में लाता है जो अंततः आध्यात्मिक जागरूकता और मुक्ति है।
अष्टांग योग के लाभ
अष्टांग योग का अभ्यास आपको फिर से जीवंत होते है और आपके शरीर, दिमाग और आत्मा को संतुलिन मिलता है ।
शारीरिक शक्ति
अष्टांग योग शारीरिक शक्ति और मांसपेशियों के प्रशिक्षण पर केंद्रित है। अष्टांग न केवल आपके दिमाग को शांत और आत्मा को शांतिपूर्ण बनाता है, यह शरीर की शक्ति पर भी काम करता है। योग की इस शैली का अभ्यास करने से आप का शरीर मजबूत और नियंत्रित होता है। यह वजन कम करने में मदद भी करता है, शरीर को लचीला और सहनशक्ति को बढ़ता है।
मानसिक उपचार
हम सभी जानते हैं कि योग केवल शारीरिक फिटनेस के बारे में नहीं है, यह आपके दिमाग और आत्मा पर भी काम करता है। अष्टांग का अभ्यास आपको तनाव, तनाव इत्यादि जैसे विभिन्न मानसिक बीमार से बच सकते है । यह आपके विचार को बढ़ता है और ज्ञान समझने मे आपकी मदद करता है । अष्टांग उन लोगों के लिए बहुत बढ़िया है जो किसी मस्तिष्क बीमार से पीड़ित हैं। उदाहरण के लिए, तनाव या सिरदर्द से पीड़ित।
आध्यात्मिक कल्याण
अष्टांग आध्यात्मिक उपचार पर भी काम करता है। अष्टांग आत्मा की खुलेपन को बढ़ावा देता है, यह आपके आत्मा से जुड़ने का एक शानदार तरीका है। यह आपको स्वयं को समझ ने भी सहायता करेगा । अष्टांग का अभ्यास करने से आप आसपास सकारात्मकता और खुश महसूस करेंगे ।
भावनात्मक लाभ
भावनात्मक लाभ में भावनाओं को नियंत्रित और संतुलित करना शामिल है। ऐसा कहा जाता है कि अधिकांश पीड़ा भावनाओं के कारण होती है। उदाहरण के लिए, उदास भावनाएं मानसिक बीमारी का कारण बन सकती हैं यह आपके शरीर को बहुत प्रभावित करते है ।
गीता में योग का महत्व चित्तवृत्ति निरोध एवम संयम तक ही है जिस से स्वस्थ शरीर एवम मन से निष्काम भाव से कर्म किया जाए। युगसूक्तम निवृति मार्ग से मोक्ष अर्थात कैवल्य मार्ग को प्राप्त करने का ग्रन्थ है, गीता यही मार्ग लोकसंग्रह के कर्म करते हुए संसार मे जीवन के मार्ग को प्रशस्त करती हैं। गीता आसन में भी हठ योग का समर्थन नही करती।
पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने ‘चित्तभूमि’ रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है। यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। योगसाधन के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए। चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं वह इस प्रकार हैं:- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें ‘विभूति’ या ‘सिद्धि’ कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को ‘ज्ञानयोग’ और योग को ‘कर्मयोग’ भी कहते हैं। पतंजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य वेदव्यास जी का है। उस पर वाचस्पति मिश्र का वार्तिक है। विज्ञानभिक्षु का ‘योगसारसंग्रह’ भी योग का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। योगसूत्रों पर भोजराज की भी एक वृत्ति है (भोजवृत्ति)। पीछे से योगशास्त्र में तंत्र का बहुत सा मेल मिला और ‘कायव्यूह’ का बहुत विस्तार किया गया, जिसके अनुसार शरीर के अंदर अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किए गए। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक अलग शाखा निकली; जिसमें नेति, धौति, वस्ति आदि षट्कर्म तथा नाड़ीशोधन आदि का वर्णन किया गया। शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, घेरण्डसंहिता आदि हठयोग के ग्रंथ है। हठयोग के बड़े भारी आचार्य मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) और उनके शिष्य गोरखनाथ हुए हैं | यह चार पादों या भागों में विभक्त है-
समाधि पद (५१ सूत्र)
साधना पद (५५ सूत्र)
विभूति पद (५५ सूत्र)
कैवल्य पद (३४ सूत्र)
कुल सूत्र = १९५
इन पदों में योग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के उद्देश्य, लक्षण तथा साधन के उपाय या प्रकार बतलाये गये हैं और उसके भिन्न-भिन्न अंगों का विवेचन किया गया है। इस में चित्त की भूमियों या वृत्तियों का भी विवेचन है। इस योग-सूत्र का प्राचीनतम भाष्य वेदव्यास का है जिस पर वाचस्पति का वार्तिक भी है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है। यह धार्मिक ग्रंथ माना जाता है लेकिन इस का धर्म किसी देवता पर आधारित नहीं है। यह शारीरिक योग मुद्राओं का शास्त्र भी नहीं है। यह आत्मा और परमात्मा के योग या एकत्व के विषय में है और उस को प्राप्त करने के नियमों व उपायों के विषय में। यह अष्टांग योग भी कहलाता है क्योंकि अष्ट अर्थात आठ अंगों में पतंजलि ने इसकी व्याख्या की है। ये आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि| अनेक परवर्ती धार्मिक व्यक्तियों ने इन पर टीका की और इस शास्त्र के विकास में योगदान किया। विशेष रूप से जैन धर्म के हेमचंद्राचार्य ने अपभ्रंश से निकलती हुई हिंदी में इस को वर्णित करते हुए बड़े संप्रदाय की स्थापना की। उन के संप्रदाय के अनेक मूलतत्व पतंजलति योगसूत्र से लिए गए हैं। पूज्य स्वामी रामदेव, महर्षि महेश योगी आदि अनेक धार्मिक गुरुओं ने योग सूत्र के एक या अनेक अंगों को अपनी शिक्षा का प्रमुख अंग बनाया है।
।। हरि ॐ तत सत ।। योगसूक्तम गीता 6.17 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)