।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.06 ।। Additional II
।। अध्याय 06.06 ।। विशेष II
।। चित्तशुद्धि और मन ।। विशेष 6.06।।
ध्यान एक प्रक्रिया है जिस से जीव अपने को परब्रह्म से जोड़ता है। जो स्वयं प्रकाशवान है उसे किसी भी रोशनी की आवश्यकता नही। किन्तु जब जीव प्रकृति से संयोग से सृष्टि में आता है तो वह प्रकृति से भ्रमित हो कर उस से अपना सम्बन्ध बना लेता है। यही भ्रम अज्ञान है और जैसे ही यह अज्ञान का परदा हटता है तो प्रकाश स्वतः ही फैल जाएगा।
मोह, कामना, आसक्ति एवम अहम से यह अज्ञान फैला हुआ है। जिसे प्रवृति या निवृति दो ही मार्ग से हटा कर जीव अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
गीता में प्रथम चरण में निष्काम हो कर कर्मसन्यास से भोक्तत्व एवम कर्तृत्त्व भाव का वर्णन हम ने अध्याय पांच तक पढा। किन्तु यह ज्ञान नही है जब तक शरीर- इन्द्रिय- मन एवम बुद्धि एक ही लय में न हो। इस के यह जानना जरूरी है कि इन चारों में सब से सशक्त माध्यम यदि कोई है तो वह मन ही है। मन पूरे शरीर एवम जीव की क्रिया का माध्यम है जिसे बुद्धि से नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन जब बुद्धि ही मोह, कामना, आसक्ति एवम अहम की चेतना से ग्रसित हो तो मन न ही शुद्ध होगा और न ही वश में। जब मन शुद्घ और वश में नही तो उस का व्यवहार जीव के साथ शत्रुवत अर्थात वह जीव को नीचे और नीचे तमो गुणों की ओर ले जाएगा, जीव निकृष्ट जीवन जीने को मजबूर होगा। यदि उस पर जितना अधिक नियंत्रण होगा तो मन जीव को सत गुणों की ओर ले जाने का कार्य करेगा जिस से जीव अपने प्रवृति या निवृति मार्ग से मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयास करेगा।
जब भी हम दुविधा में हो तो अक्सर बुजुर्ग कहते है तू वही कर जो तेरा मन कहे। धर्म, सहानुभूति, रिश्ते, समाज, देश, व्यापार, व्यवसाय, घर परिवार में अनेक बार ऐसे संकट आते है कि हम अनिर्णय की स्थिति में आ जाते है। धर्म मे आपस में अनेक विरोधाभासी निर्णय होते है कि क्या सही है और क्या गलत। इस मे जब मन पर सभी छोड़ दिया जाता है तो वह मन भी उसी के अनुसार शुद्ध, निर्लिप्त, निद्वन्द एवम निष्काम और कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त होना चाहिये। यही शुद्ध-बुद्ध मन ही परब्रह्म से जुड़ सकता है। यही चित्तशुद्धि है। जिसे ध्यान से हम आगे कैसे प्राप्त करे, पढ़ेंगे। किन्तु ध्यान से पूर्व हमारी क्या तैयारी होनी चाहिए, उसे अभी भगवान श्री कृष्ण द्वारा हमे बताया जा रहा है।
मनुष्य में मन में असीम शक्ति होती है. व्यर्थ की बातचीत, व्यर्थ के सोच विचार और बेकार काम करने में वह अपने मन की शक्ति को नष्ट कर देता है. यदि वह अपनी उर्जा को इन बेकार कार्यों में लगाकर किसी अच्छे काम में लगाये तो वह संसार में महान और निराले कार्य कर सकता है।
सफलता पाने के लिये यह बहुत जरुरी है कि हम अपने मन की शक्ति को सिर्फ अपने लक्ष्य के कार्य में लगायें. यदि इधर उधर की फ़ालतू बातें हमारे दिमाग में आती हैं तो उसे दिमाग से निकालकर अपने लक्ष्य पर फोकस बनाये रखना चाहिए।
हमें दूसरों की कमजोरियों और गलतियों की ओर नहीं देखनी चाहिए. अपने अपने मन के अन्दर झांक कर देखना चाहिए. अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए. यह हमें और भी शक्तिशाली बनने में सहायक होगा. ऐसा कर हम निरंतर परिष्कृत होकर सफल होते चले जायेंगे।
द्वैत जीव और ब्रह्म का सृष्टि की रचना का स्वरूप है, इसे स्वीकार करना पड़ता है। किंतु जो द्वैत भाव बाह्य जगत की वस्तु का मन के अंदर भावनात्मक स्वरूप में उत्पन्न होता है, यह जीव का अपना द्वैत भाव है। जीव जिस में अपने प्रकृति स्वरूप को अपना समझ लिया है, वह बाह्य जगत की वस्तुओ से अपना सम्बन्ध जोड़ने लगता है। इसलिए उसे मेरा घर, बच्चे, संपत्ति, पत्नी, मां, बाप, भाई आदि दिखते है। फिर उस बाह्य जगत में उन से अपनी भावना, राग – द्वेष, मोह, ममता, क्रोध, अहम से अपना सम्बन्ध को स्थापित करता है। युद्ध भूमि में अर्जुन के साथ यही हुआ, युद्ध से पूर्व वह युद्ध की तैयारी में था किंतु जैसे ही उस में बाह्य जगत में अपने सामने पक्ष में अपने सगे संबंधी, मित्र, भाईयो, गुरु आदि को देखा, तुरंत ही वह उन से अपना सम्बन्ध जोड़ कर भावुक हो गया। किंतु जो अन्य जीव जिन्हे वह नही जानता था, उन से कोई संबंध नहीं जोड़ने से उसे कोई असर नहीं था। इस लिए बाह्य जगत की वस्तुएं भी मन के अंदर संबंध और भावना को जागृत करती है। आप बिना मिठाई के रह रहे है किंतु जब मिठाई सामने हो तो मन में उस के प्रति खाने की लालसा उठने लगती है। किसी स्त्री के साथ अकेले में बैठने या उस को गलत अवस्था में देखने से ही मन में काम जाग्रत हो जाता है। इसलिए मन पर नियंत्रण के जीव को बाह्य जगत को ध्यान में रखते हुए, करना चाहिए।
मन के हारे हार मन के जीते जीत. अर्थात दुनिया में वाही व्यक्ति विजयी होता है जिसने अपने मन को अपने आप को जीत लिया है. जो अपने मन को जीत नहीं पाता, वह अपनी इन्द्रियों का गुलाम बन जाता है, और वह सफलता से दूर चला जाता है।
अत: सफलता या जिंदादिली के लिए मन की दृढता आवश्यक है । हारा हुआ मन कभी कुछ नहीं कर पाता। जीता हुआ मन ही अंत में सफल हुआ करता है । इसलिए मन को हार के निकट तक भी नहीं फटकने देना चाहिए।
मनोशुद्धि के लिये कुछ बातों को हम और जान लेते है।
अमृत बिंदु उपनिषद में कहा है कि मन ही मनुष्य के बन्धन का और मोक्ष का कारण है। इन्द्रिय विषयो में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयो से विरक्त मन मोक्ष का कारण है।
मनके अतिरिक्त अविद्या/अज्ञान और कुछ नहीं है। मन ही भव- बन्धनकी कारणभूत अविद्या है। उसके जाग्रत होनेपर समस्त जगत्-प्रपंच प्रतीत होता है और उसके नष्ट हो जानेपर यह प्रपंच संपूर्णरूपसे नष्ट हो जाता है।
यह मन ही देह, इन्द्रिय, रूप, रस आदि सारे विषयोंमें राग-आसक्ति की सृष्टि करता है और पुरुषको बाँधता है। फिर बाद मेंं देहादि विषवत् विषयोंके प्रति विरक्ति पैदा करके उसको बन्धनसे छुड़ा देता है।।
अतः पूर्वोक्त कथनोंके अनुसार मन ही जीवके बन्धन और मोक्षके विधानमें कारण है। रजोगुणसे मलिन हुआ मन बन्धनका कारण है तथा रज-तमसे रहित शुद्ध हुआ मन मोक्षका कारण होता है।
विवेक और वैराग्य– इन दो गुणोंकी वृद्धिसे शुद्धताको प्राप्त हुआ मन मुक्तिका हेतु होता है। अतः बुद्धिमान मुमुक्षुको इन दोनों गुणों को दृढ़ करना चाहिए।।
जैसे वायु ही बादल को आकाश में लाता है और फिर वही उन्हें हटाकर ले जाता है, वैसे ही मन से बन्धन की कल्पना की जाती है और उसीसे मोक्षकी भी।।
एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भ्रम होने (अध्यासदोष) से ही पुरुषको यह जन्म-मरणरुपी संसार प्राप्त होता है। यह अध्यासरूपी बन्धन मनका ही कल्पित किया हुआ है। यह.मन ही रज,तमादि दोषयुक्त अविवेकी पुरूषके जन्मादि दु:खोंका मूल कारण है।
मनोमय प्रपंच अर्थात मन के द्वारा बाह्य जगत से जोड़ा संबंध दुख और सुख का कारण होता है। घर में बच्चे जब बाहर किसी कार्य से निकलते है तो उन के जरा सी देरी होने से मन में अनेक आशंकाएं जन्म लेने लगती है और मन व्यथित हो जाता है। बाहर चाहे बच्चे क्लब या साथियों के साथ मजे भी कर रहे हो, किंतु मन पर्याप्त जानकारी के अभाव में अन्यथा जानकारियां, शंकाए उत्पन्न कर देता है जिस से व्यथित हो कर व्यक्ति रोने भी लगता है या अस्वस्थ हो जाता है। कभी स्वप्न में या विचारो में जब कोई घटना या व्यक्ति दिखे जो जाग्रत अवस्था में है ही नही, तो भी जीव उस के कारण सुखी या दुखी हो जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है, जो वास्तव में बाह्य जगत में होता है और जो हम महसूस करते है, उस का मनोमय शरीर से कोई संबंध नहीं है। सारा प्रभाव हमारे शरीर पर मन का है। क्योंकि यह जगत नित्य नही है इसलिए कोई भी प्रभाव भी नित्य नही है। यदि नित्य और सच्चा आनंद लेना है तो मन को आत्मा से जोड़ना होगा। क्योंकि जीव के स्वरूप रूपी आत्मा ही सत्य है और वही सत चित्त आनंद भी है।
इसलिए ईश्वर के बनाए द्वैत पंचतत्व आकाश, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी तो स्वीकार करने योग्य ही द्वैत है। इसी प्रकार शास्त्र और गुरु जिन से हम को अद्वैत का ज्ञान प्राप्त होता है, इसे अस्वीकृत नही किया जा सकता है। यह अद्वैत को प्राप्त करने के आवश्यक भी है। ज्ञान को समझने के लिए मन, बुद्धि और शरीर के साथ साथ गुरु, शास्त्र और ज्ञान की आवश्यकता होती है। अज्ञान यही है कि अद्वैत को प्राप्त करने के ईश्वर प्रदत्त द्वैत से ही हम अपना सम्बन्ध बनाने लग जाते है और उस से ही चिपक जाते है। यही मन को समझना होता है अद्वैत के लिए जिस द्वैत की सीढ़ी पर हम चढ़ते है, ऊंचाई पर पहुंचने पर उसे छोड़ना होता है या हम यूं समझे कि ज्ञान की नदी पार कर के द्वैत स्वरूप में जिस नाव पर हम सवार होते है उसे दूसरे किनारे पर पहुंच कर छोड़ना ही पडता है। इसलिए पूजा, जप, दान, निष्काम कर्म, ध्यान आदि सभी साधन से मन का निग्रह हो जाने के बाद, ब्रह्मसंध मन और बुद्धि को अहम के साथ त्याग कर पूर्ण ब्रह्म में विलीन होता है अर्थात परमात्मा के स्वरूप ही हो जाता है।
अभी गीता में प्रवेश की पूर्व तैयारी चल रही है। मनशुद्धि एवम नियंत्रण के बाद हम ध्यान की प्रक्रिया एवम ध्यान को समझेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 6.06 ।।
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