।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.24 ।।
।। अध्याय 05.24 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 5.24॥
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
“yo ‘ntaḥ-sukho ‘ntar-ārāmas,
tathāntar-jyotir eva yaḥ..।
sa yogī brahma-nirvāṇaḿ,
brahma-bhūto ‘dhigacchatip”..।।
भावार्थ :
जो मनुष्य अपनी आत्मा में ही सुख चाहने वाला होता है, और अपने मन को अपनी ही आत्मा में स्थिर रखने वाला होता है जो आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है, वही मनुष्य योगी है और वही ब्रह्म के साथ एक होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। (२४)
Meaning:
One who finds bliss in the self, who revels in his self, whose knowledge is the self; he is a yogi and attains liberation through identification with the eternal essence.
Explanation:
Shri Krishna now starts describing how one who is established in the eternal essence eventually attains the eternal essence, in other words, is liberated. The word yogi here refers to a realized seeker. The entire personality of such a seeker is completely turned inward toward the eternal essence. This state is described by three words: antahasukhaha, antaraaraamaha and antarjyotihi.
The person who finds bliss within is called antahasukhaha. He does not expect anything from the outside world. The idea that something other than himself will make him happy, that idea has completely gone. To recap a point from the earlier shloka, he experiences bliss by seeking positivity within him, it is not negating what is outside. It is like the sun reflected in water. The reflection will never match the brightness of the sun itself. Similarly, the joy obtained through the senses is “reflected happiness”. But a yogi who has shifted attention to his inner self gets the real deal.
Typically, our mind needs to constantly come into contact with an object, person or situation. This causes agitation in our minds. However, objects, people and situations keep changing. The economy changes, our friends change, our health changes and so on. But the realized seeker is antararaamaha. He revels in himself. Another way to look at this word is “antara-aarama”, which means that he rests in himself. He has eliminated all agitations and is completely at ease with himself. There is nothing that compels him to do anything, he just “is”.
Furthermore, the realized seeker stops looking towards more and more sources of knowledge. He is antarjyotihi. He knows that the eternal essence alone is the ultimate knowledge, the ultimate source of light. In most traditional temples, the only source of light is inside the central room where the deity is located. Symbolically, it depicts the internal light of the self.
And what is his status; Brahmabhūtaḥ, he has become one with Brahman and he has become “one with Brahman”; not that he has become one; but he has discovered the fact that I am really none other than Brahman. Brahman means what? it is a technical word for fullness. I am full and complete. I do not need anything to be happy. I do not need anything to be secure, so that is called brahmatvam and how long he will enjoy this, as long as he is alive, he will enjoy this. When the prārabdhaḥ, karma is over, the body will fall.
And what will happen to him, nothing will happen to him, because he has discovered I am not the body. I am not the mind, therefore, previously he was embodied consciousness, now he is un-embodied consciousness, which is called vidēha mukthiḥ; Krishna calls it brahmanirvāṇam. So Brahma nirvāṇam; unembodied consciousness; oneness with Brahman. Otherwise called vidēha mukti; thus he is free while living, he is free after death also.
In this manner, one who is happy in his own self, revels in his own self and finds knowledge in one’s own self, such a person is a true enlightened seeker. By such deep identification with the eternal essence, he becomes the eternal essence. In other words, he attains the ultimate liberation or “nirvaana”. Liberation is the destruction of all limitations and all notions of finitude. It is the realization that what is in oneself is the same as what is in everything else.
Saint Yamunacharya states:
“Ever since I have begun meditating upon the lotus-like feet of Lord Krishna, I have been experiencing ever-increasing bliss. If by chance the thought of sex pleasure comes to my mind, I spit at the thought and curl my lips in distaste.”
।। हिंदी समीक्षा ।।
सामान्यत मनुष्य तीन प्रकार के सुख जानता है शारीरिक उपभोगों का सुख तथा भावनाओं एवं विचारों का आनन्द। इन की उपयोगिता मात्र शरीर के पालन के लिये होती है, जैसे भोजन, किन्तु यह अधिक या कम दोनों ही दुख दायी है। पहले के श्लोकों से यह बात स्पष्ट होती है कि तत्त्ववित् पुरुष का आनन्द तो इन से भिन्न स्वरूप में ही होता है।
अन्नमय कोश से ले आनंदमय कोश तक जो भी है वह प्रकृति है। इस को आत्मसात करने के मनन की आवश्यकता है। मनन का अर्थ हम प्रकृति की प्रत्येक क्रिया को पहचाने और जो इस को पहचानता है और करते हुए देखता है, महसूस करता है, वहां तक पहुंचे। इस में संशय नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो किसी का नाम, घर, परिवार, संपत्ति या शरीर है, वह बदलता रहता है, परंतु जिसे हम “मैं” कह कर संबोधित करते है, वह नही बदलता। इसी “मैं” को जो मनन से संशय त्याग कर पहचान लेता है, उसे ही अपनी आत्मा का ज्ञान हो जाता है।
संशय रख कर गीता पढ़ने से ले कर आत्मचिंतन तक सभी व्यर्थ है। क्योंकि “मैं” को खोजने से पहले उस के होने का विश्वास ही हमे एकनिष्ठ, श्रद्धावान बना कर चिंतन, मनन और निदिध्यासन की ओर ले जाता है। जिन का विश्वास सांसारिक और प्रकृति का है, वे “मैं” को जानते हुए भी नही प्राप्त होते।
जिन्हे विपर्य हो कि मैं ब्राह्मण हूं, सन्यासी हूं, आचार्य हूं, वकील हूं, CA हूं, उस ने देह की परिस्थिति को ले कर यह पर्याय या नाम अपने आप में आरोपित कर लिया। विपर्यय का अर्थ है जो हम नही है, उसे हम अपने ऊपर आरोपित कर लेते है। जीव तो आत्मा का स्वरूप है, वह अपने को प्रकृति के स्वरूप में देखता है। इसलिए हम अपने को शिवोSहम की बजाय अपने नाम, व्यवसाय, पारिवारिक रिश्ते, पद और पढ़ाई के नाम से जानने लगते है। इसी कारण हमारा सुख दुख इसी प्रकृति के अन्नमय कोश से ले कर आनंदमय कोश अर्थात मन और बुद्धि से भोगे कर्म फलों तक रह जाता है।
सुख बाह्य एवम आन्तरिक होता है, बाह्य सुख विषय जानित है जिसे इंद्रियाओ से ग्रहण करते है, अस्थायी है। इसलिये पिछले श्लोक में काम- क्रोध के वेग को समाप्त करने की बात की गई थी।
जब मनन फिर निदिध्यासन से हमे अपने आत्म स्वरूप का बोध होता है तो हम निर्विकल्प होने लगते है। वेदांत में निर्विकल्प का अर्थ है भ्रम रहित अद्वैत भाव में रहना। जो मनुष्य ध्यान तो लगाता है, पूजा भी करता है किंतु उस के बाद तुरंत व्यापार में जोड़ तोड़ में लग जाए, और उस समय उस की कामना आसक्ति और अहम पुनः जाग्रत हो कर राग एच द्वेष करने लगे तो वह निर्विकल्प नही है। निर्विकल्प का सही अर्थ यही है कि कर्म भी करते हुए वह अपने को आत्मस्वरुप समझे और देह अर्थात प्रकृति को कार्य करते हुए देखे।
इस प्रकार उस को प्रकृति जनित भोग विलास की आवश्यकता भी नहीं रहती, वह आत्मा को साक्षी मान कर प्रकृति के क्रियाओं को देह के साथ प्रारब्ध के अनुसार होने देता है। उस का आनंद आत्मा के आनंद से जुड़ा रहता है।
ब्रह्मज्ञानी के विषय बृहदारण्क उपनिषद में लिखा है कि वह कर्म कांडी नही हो सकता। आप कितनी पूजा करते है, व्रत उपवास रखते है, तीर्थ जाते है, दान दक्षिणा देते है, इन से ब्रह्म ज्ञानी नही हो सकता। ब्रह्म ज्ञानी वही है जिस ने अपने “मैं” को प्राप्त कर लिया है, जिस ने अपनी कामना, आसक्ति, मोह और अहम को त्याग दिया है। यदि हम संसार में जितनी भी सात्विक भाव की पूजा पाठ सांसारिक सुखों के लिए करते है या इस का अभिमान करते है या समस्त वेदों के नियमानुसार कर्म करते है तो हम ब्रह्म ज्ञानी नही, विधिकिंकर कहलाएंगे। नियमो का पालन करने वाले, प्रकृति के बंधन में फल की आशा से कर्म करने वाले विधिकिंकर कहलाते है। ब्रह्म में कर्मकांडी और कर्मयोगी दोनो को समझना जरूरी है। निष्काम कर्मयोगी जो अपनी आत्मा के साक्षी भाव में है, वह प्रकृति की देह से दिव्य कर्म ही करता है। इसे और विस्तृत हो कर अगले श्लोक में पढ़ते है।
इस प्रकार जो अंतः सुखी अर्थात अन्तः करण में ही सुखी हो जाये, जो अन्तः स्थित परम आनन्दस्वरूप परमात्मा में ही सुख मानता है, जो अपने आप मे ही आराम पाने लगे, जो नित्य ही आसक्ति रहित हो कर परमात्मा में रमा रहता है और ऐसे ही जिसे अन्तः प्रकाश मिल जाय, वह योगी ब्रह्म रूप हो जाता है एवम उसे ही ब्रह्म निर्वाण अर्थात ब्रह्म में मिल जाने का मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
सांख्ययोग का ऊँचा साधक ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करता है जो परिच्छिन्नताका द्योतक है। कारण कि साधक में मैं स्वाधीन हूँ मैं मुक्त हूँ मैं ब्रह्म में स्थित हूँ इस प्रकार परिच्छिन्नता के संस्कार रहते हैं। ब्रह्मभूत साधक को अपनेमें परिच्छिन्नता का अनुभव नहीं होता। जब तक किञ्चिन्मात्र भी परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व शेष है तब तक वह तत्त्वनिष्ठ नहीं हुआ है। इसलिये इस अवस्थामें सन्तोष नहीं करना चाहिये। ब्रह्मनिर्वाणम्पद का अर्थ है जिसमें कभी कोई हलचल हुई नहीं है नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं ऐसा निर्वाण अर्थात् शान्त ब्रह्म। इस को हम मान सकते कि नदी में समुन्द्र के विलय होने पर मात्र समुन्द्र ही रहता है वैसे ही आत्मा से परमात्मा का विलय होने पर परमात्मा ही रहता है।
यद्यपि अन्तः सुख, अन्त आराम, अन्त ज्योति इन तीनो के साथ जीव को सांख्य योग की परम स्थिति ब्रह्मभूतः एवम ब्रह्मनिर्वाणम से विभूषित किया गया है तो भी यह कंही भी यह नही माना गया है कि कर्मयोगी की यह स्थिति नहीं है, सांख्य योग एवम कर्म योग दोनों एक ही स्थिति को प्राप्त होते है अतः कर्मयोगी भी अनासक्त भाव से कर्म करते हुए भी अंतर्मन से शान्त, सुखी एवम आनंद को प्राप्त करता है। वस्तुतः यह स्थिति धैर्य एवम विवेक के साथ कार्य करते रहने की जिस से सांसारिक विषयो से कोई भी बाधा नही उत्पन्न होती है।
वस्तुतः हम जीवनोमुक्त ब्रह्मभूत स्थिति में व्यक्ति को पढ़ रहे है, जो प्रत्यक्ष हमारे सामने है। मृत्यु के बाद इन गुणों का औचित्य कुछ रहे या न करे किन्तु शेष जीवन मे ब्रह्मभुत जीव में यह गुण होते ही है। इस मे हम स्थितप्रज्ञ, समभाव, बाह्य इन्द्रियों से कोई लगाव न होना, मन एवम इन्द्रियों के सुख में भी कोई रुचि न होना, काम-क्रोध के वेग को संयम पूर्वक संभालने की क्षमता का होना एवम अभी आत्मा में ही स्थायी आनन्द के अनुभव के साथ रहना आदि गुण पढ़े। कुछ लोग यह सब सन्यासियों के गुण कह कर ध्यान नही देते किन्तु व्यवहार में यह गुण कर्मयोगी पुरुष में ही मिलते है, जितने भी लोग उच्च पद या प्रतिष्ठा में जन मानस के आदर्श हुए है उन में इन्ही गुणों का न्यूनाधिक मात्रा में संचार देखा जाता है। जब तक शिक्षा एवम संस्कार में हम अपने अंदर एवम आने वाली पीढ़ी में इन गुणों को संचारित नही करते, तब तक परिवार, समाज, देश एवम विश्व का कल्याण नही हो सकता।
राजा जनक कहते हैं कि आश्चर्य की बात है कि शरीर के साथ संसार का त्याग करने से , थोड़ी-सी कुशलता से ही इस समय मुझे परमात्मा के दर्शन हो रहे हैं। सत्य एवं वास्तविकता का ज्ञान हो जानेपर असत्य एवं संसार अपने-आप ही छूट जाते हैं ।
।।हरि ॐ तत सत ।। 5.24।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)