।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.08-09 ।। Additional II
।। अध्याय 05.08-09 ।। विशेष II
।। गीता पुनरावलोकन एवम स्थितप्रज्ञ।। विशेष 5.8-9।।
जीव का मुख्य धैय मोक्ष है। हमारे पूर्वजों एवम ऋषि- मुनियो के वर्षो के चिन्तन एवम मनन का यही निष्कर्ष है कि यह सृष्टि एवम ब्रह्मांड उस परमब्रह्म का संज्ञान है जिस का कोई स्वरूप भी नही है, जो नित्य है, अजन्मा है, दृष्टा है, अकर्ता है। यह जीव उसी का अंश है, प्रकृति भी उसी की अंश है। इस लिये किसी ने कहा भी है। ब्रह्म ही ब्रह्म के साथ खेलता है।
मोक्ष को लेकर प्रवृति एवम निवृति के दो मार्ग बताये है, जिन्हें हम कर्मयोग एवम सांख्य अर्थात सन्यास योग भी कहते है। प्रकृति क्रिया शील है जब वह जीव के चारो ओर अपनी क्रिया का मोहक रूप में नृत्य करती है तो जीव भ्रमित हो कर कि वह परमब्रह्म का अंश है, प्रकृति से सम्बन्ध जोड़ लेता और उस सभी क्रियाओं का स्वयं को कर्ता भी मान लेता है और प्रकृति के कर्म के फल में कामना, आसक्ति एवम मोह भी पैदा कर लेता है। जिस के फलस्वरूप वह कर्म फल के बंधन में फसता चला जाता है और जन्म-मरण के विभिन्न योनियों को भोगता हुआ दुख को प्राप्त होता है, इसे ही अज्ञान कहा गया है।
सृष्टि की रचना परमब्रह्म का अज्ञान ही है जिस में परमब्रह्म ने एक से अनेक होने की रचना की। रचियता के तौर पर ब्रह्मा ने रचना है बाद कहा कि जो प्रकृति के अधिदेव है उन का कार्य इस रचना को चलाना है और जीव एवम मनुष्य उन के लिये यज्ञ अर्थात कर्म करे और जो भी शेष बचे उस से निर्वाह करे। यह अधिदेव जितना भी उन्हें प्राप्त होगा उस से अधिक लौटा देंगे। इस मे संग्रह या अधिपत्य की कोई बात नही थी, किन्तु मनुष्य ने सृष्टि के नियम विरुद्ध कर्म से अधिक संग्रह एवम अधिपत्य जमाना शुरू कर दिया जिस से इस सृष्टि की रचना में असंतुलन पैदा हो जाता है और प्रकृति बीच बीच मे अपने को संतुलित करती है। यहाँ अधिकार को ले कर मतभेद भी पैदा हो गए।
प्रवृति का अर्थ है कि कर्म तो किया जाए किंतु उस के फल की आशा को छोड़ दे। इस से शनैः शनैः कर्म का बन्धन कम होगा और ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग शुरू होगा। निवृति का अर्थ है कि जिस कर्म से बंधन होता है उस के कर्ता भाव को ही त्याग दे, जिस से कर्म ही नही होगा तो फल भी मिलेगा। अर्थात आईने में जमी कर्म की आसक्ति एवम कर्ता की धूल को साफ करें तो कम से कम अपना चेहरा तो नजर आए।
मनुष्य जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास एवम वानप्रस्थ चार भाग में बांटा गया है। ज्ञान एवम अध्ययन के बाद निष्काम हो कर गृहस्थ आश्रम को सामाजिक व्यवस्था का आधार माना गया है, जिस से अन्य आश्रम का व्यवस्था भी चले और सृष्टि यज्ञ चक्र भी। हिन्दू देवताओं में अधिकतर देवी देवता गृहस्थ आश्रम में ही आते है। अतः गृहस्थ होना या न होना सांख्य या सन्यास आश्रम का भाग नही है। अनेक ऋषि मुनि भी गृहस्थ ही थे। मूल विचार है कि कर्मो का त्याग या कर्मो की आसक्ति का त्याग। गीता कर्म के त्याग की अपेक्षा कर्म की आसक्ति के त्याग को महत्व देती है, इसलिये यह ज्ञान युद्ध भूमि की पृष्ठभूमि में दिया गया जिस से कर्तव्य धर्म को भी परिभाषित किया जा सके और किस प्रकार जीव भयमुक्त हो मोह, आसक्ति, कामना और अहम से मुक्त हो कर ज्ञान को प्राप्त कर सके। स्वयं परमब्रह्म भी दिव्य जन्म एवम दिव्य कर्म से इस सृष्टि यज्ञ चक्र की रक्षा करता है।
आईने की जमी धूल से समझ मे आता है कि कितने चेहरे है इंसान के। पारिवारिक माँ-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी और पुत्र-पुत्री और भी अनेक रिश्ते इत्यादि इत्यादि। व्यावसायिक व्यापारी, CA, Dr, वकील, इंजीनियर, किसान, मजदूर आदि आदि और सामाजिक राजा-प्रजा, नेता, अधिकारी, पुलिस, सेना और परमार्थ में बाबा, योगी, सन्यासी, प्रवचक, कीर्तन मंडली, पुजारी आदि आदि। फिर जब प्रकृति भी एक है तो मेरा मेरा करते करते गाते रहना, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा देश आदि आदि। पूरा जीवन में ज्ञान का अर्थ है कि कैसे हमारी लौकिक सुविधा में , परिवार में, समाज में सम्मान आदि में वृद्धि हो। जब चित्तशुद्धी की प्रत्येक क्रिया और अध्यात्म सांसारिक होगा तो लाभ भी सांसारिक होगा। मंदिर में पूजा से ले कर यज्ञ, दान और धर्म इस प्रकृति के शरीर के लिए होंगे तो आत्मशुद्धि की बात करना ही बेमानी होगी। किन्तु यह धूल जब तक ही है जब तक जीवन है, प्रकृति कुछ भी नही जोड़ती, जो जैसा जन्म लेता है, वह वैसा ही विदा होता है, साथ मे उस के संस्कार, कर्म की आसक्ति, कामना और अहम की धूल रहती है जो पुनः पुनः जन्म और मृत्यु तक चलती है। इसी धूल को साफ करना ही निर्वाण या मोक्ष का मार्ग है। संसार मे अज्ञान में कोई अपने चेहरे की धूल भी नही देखता, बस भागता रहता है।
जन्म-मरण का 84 लाख योनियों का हिसाब, कर्म संस्कार, उस के फलों का बंधन से मुक्ति के दो मार्ग बताये गए। जीव का कर्तृत्व भाव एवम भोक्तत्व भाव को यदि breaking the chain के अनुरूप किसी एक को तोड़ दे तो दूसरा स्वतः ही टूट जाएगा। कर्ता भाव को तोड़ना कठिन है क्योंकि कर्म जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया है। इस के उचित स्थान, संसार का त्याग, अभ्यास एवम जो स्वयं ब्रह्म में लीन है, ऐसे गुरु की आवश्यकता है। तो अपेक्षाकृत सरल मार्ग तो भोक्तत्व भाव तो तोड़ना है, जिस में कर्म तो करते रहो किन्तु उस की आसक्ति को तोड़ दो। क्योंकि किसी भी कर्म में पांच तत्व होते है तो कर्म होता है, इसलिये फल पर किसी का अधिकार नही है। भगवान श्री कृष्ण भी कहते है कि
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
अतः अपना अधिकार क्षेत्र सिर्फ कर्म तक सीमित करो और उस के फल की आशा छोड़ दो। यहाँ यह भी स्पष्ट कर ही देते है कि निष्क्रियता भी कर्म है और आलस्य एवम निंद्रा भी।अतः यह कर्म विहीन होना भी चाहे तो नही हो सकते, इसलिये अपने अधिकार क्षेत्र के कर्म को पूर्ण दक्षता, ईमानदारी एवम लग्न से पूरी क्षमता के साथ करना चाहिये। क्योंकि जिस मोक्ष के लिये प्रयास दोनो ही मार्ग में किया जा रहा है वह आलसी, कामचोर एवम निंद्रा ले कर करने वालो के लिये नही है। परीक्षा में उतीर्ण होना है तो मेहनत भी सही दिशा में करना आवश्यक है।
जीव में मोह, कामना एवम आसक्ति के साथ कर्ता भाव है, वह अपने को इन सब के साथ सुरक्षित महसूस करता है। जब भी इस पर कोई प्रहार होता है तो असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। यह असुरक्षा के प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद की। अपने मोह की। भय उत्पन्न हो जाता है कि यह छूट गया तो पता नही क्या होगा। अर्जुन को भी मोह का भय था। यही भय हम सब मे है।
जन्म लेने से पूर्व और बाद में भी यह धरती, गगन, वायु, जल, अग्नि, पेड़, पौधे, पक्षी, पशु व्यक्ति सभी कुछ है और मरने के बाद भी रहेगा। किन्तु आंख खुलते ही माँ-पिता, भाई बहन जैसे रिश्ते बन्ध जाते है, फिर व्यवसाय, पत्नी-पुत्र, घर आदि। पूरी पृथ्वी पर हम सिर्फ वो जगह देखते है जिस पर मेरा नाम या सम्बन्ध हो। यही मोह है, मान-सम्मान, कुल, संपत्ति, रिश्ते नाते आदि आदि। इन के लिये कर्म किये जाते है और यही मोह अर्जुन को भी था। इस के छूटने के भय बहुत बड़ा है। कौन भला सोच सकता है कि भक्ति में यह सब छोड़ कर बाबा बनना है। इन का मोह, कामना, आसक्ति, अहम यही त्यागने वाला संशय रहित, भय रहित योगी ही स्थितप्रज्ञ है। वह भी प्रकृति की अनेक क्रियाओं में अपने को भी उसी रूप में देखता है।
कितना भी वेद, गीता या धार्मिक ग्रन्थ पढ़े किन्तु यह मोह का भय नही जाता। तो breaking the chain से जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो उसे भी अज्ञान बना देते है। आसक्ति तो नही है किंतु कर्ता भाव बना रहना चाहिए, संस्था में लोकसंग्रह के लिये कर्म तो करे किन्तु कुर्सी या पद ले लिए भी जोड़ तोड़ जारी करते रहना चाहिए। मोक्ष के लिये प्रवचन तो दे किन्तु इस ले सम्मान हेतु आश्रम, आसन और साधन बने रहने चाहिए। यदि कर्मयोग या सांख्य योग का आधार ही सांसारिक सुखों के लिये हो या मन, बुद्धि एवम चेतन आशंका, आसक्ति एवम अहम के कारण भयभीत रहे तो ज्ञान की प्राप्ति में त्याग नही, आडंबर ज्यादा होता है। शारीरिक वेशभूषा, उत्तम वचन, यज्ञ, पूजा एवम शाब्दिक ज्ञान में रावण भी महान ज्ञानी था, किन्तु स्थितप्रज्ञ नही।
कर्मयोग हो या सांख्य योग, जब तक संसार से बने रहने का भय है तब तक अज्ञान बना ही रहता है। यही अज्ञान अधिकार पैदा करता है कि मेरा कार्यक्षेत्र यही है। पिता पुत्र पालन में, माँ ममता में, सन्त प्रवचन में और मेरा जैसा अज्ञानी पुरुष गीता जैसे ग्रन्थ द्वारा निर्गुणकार को सगुणाकार कर के लिखना अपना अधिकार समझता है। प्रकृति अपना कार्य करती रहती है। चलचित्र में पटल पर आया कोई भी चित्र स्थायी नही होता वैसे ही कोई भी अधिकार स्थायी नही होता है। काल अपना कार्य करता रहता है, चित्र बनते और बिगड़ते रहते है। परमब्रह्म ने सृष्टि की रचना भी स्थायी नही की, यह भी शनैः शनैः फैलती जाती है और सिकुड़ का मिट जाती है, फिर पुनः सिकुड़ कर फैलती है। काल की गणना कौन कर सकता है।
जब कर्म योग या सांख्य योग से ज्ञान तत्व का उदय होता है, तो आईने की धूल साफ होने लगती है। अतः भय से मुक्त होने से ज्ञान होता है जिसे तत्व दर्शन कहते है। भय युक्त को तो अज्ञान ही होगा। तत्वदर्शन का अर्थ ही है कि जीव के भ्रम का स्वरूप नष्ट हो गया, उसे ज्ञान हो गया कि वह अकर्ता, नित्य एवम दृष्टा है, वह परमब्रह्म का अंश है। फिर उस के कर्म दिव्य हो जाते है, उस के कर्म अकर्म कहे जाते है।
ज्ञान के विषय मे यह भी समझना जरूरी है कि ध्यान से मन, बुद्धि एवम चेतना पर नियंत्रण प्राप्त किया जाता है किंतु ध्यान कर्ता को ज्ञात रहता है कि वह ध्यान लगा रहा है, अर्थात कर्ता भाव बना रहता है। समग्र भाव जिस में जीव परमब्रह्म से जुड़ जाए वह निदिध्यासन से अपनी वृति परमब्रह्म से जोड़ने से होगी।
जगत-जीव-ईश्वर जब पृथक पृथक दिखते है तो यह द्वेत का ज्ञान है, किन्तु ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाये यह अद्वेत का ज्ञान है। वेदान्त कहता है तत त्वमसि और अहम ब्रह्मास्मि। जो प्रत्यक्ष है वह भी तुम हो और मै भी ब्रह्म हूँ। अर्थात अब दूसरा कोई बचा ही नही।
यही स्थिति स्थितप्रज्ञ की है। उस की वृत्ति निदिध्यासन द्वारा परमब्रह्म से जुड़ी है, उस मे न कर्ता भाव है और न ही भोक्ता भाव। उस का सम्बंध जैसे ही प्रकृति से छूट कर परमब्रह्म से जुड़ता है, उस के प्रारब्ध एवम संचित कर्म भी छूट जाते है। कुम्हार के चाक को एक बार घुमाने के बाद वह अपनी गति में कुछ समय तक स्वतः ही घूमता है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपना शेष जीवन लोकसंग्रह हेतु व्यतीत करता है। वह असामान्य होने पर भी सामान्य जैसा ही दिखता है। वह जन मानस की भांति सोता है, जगता है, खाता है, बोलता है, चलता है और व्यवहार भी करता है किंतु उस के समस्त कर्म दिव्य है जिस में न कर्तृत्त्व है और न ही भोक्तत्व। वह समभाव में न दुखी होता है और न ही सुखी। वह निर्भय है, ह्रदय से संशय रहित है, निर्द्वन्द्व, शांत और ज्ञानी होता है।
स्थितप्रज्ञ अद्वेत भाव मे जीता है, रहता है, उस के सभी कर्म अकर्म हो गए। उसे कौन पहचान सकता है क्योंकि जब वह दिखता है तो सामान्य ही दिखता है। सभी सारथी, कभी सखा तो कभी गुरु और कभी कर्मयोद्धा आदि आदि।
निष्काम या सन्यास योग में अधिकार जो कर्म के बताए गए है, स्थितप्रज्ञ होने से समाप्त हो जाते है। यह ज्ञान की वह अवस्था है जिस में न छूटने का भय है, न पाने का। एकमाद्वितीय की वह अवस्था जिस में ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नही हो, स्थितप्रज्ञ की अवस्था है। जिस का चित्त, अंतःकरण शुद्ध-बुद्ध एवम परमानन्दमय हो, वही स्थितप्रज्ञ की स्थिति को भी प्राप्त करता है।
अंत मे यही कहना है कि जो ज्ञान अनुभव एवम अभ्यास से प्राप्त न किया गया हो, वह ब्रह्म की सीमा तक पहुचे श्रेष्ठ गुरु का ज्ञान है। यह जब तक स्वयं अभ्यास एवम भय से मुक्त हो कर प्राप्त न किया जाए, सांसारिक कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव मे मिल कर अज्ञान ही रहता है। एकमाद्वितीय ब्रह्म में विलीन भला किस को ज्ञान देगा जब द्वितीय है ही नही। यह तो मार्ग है, जिस पर जीव को स्वयं चलना है और स्वयं को ही प्राप्त होना है।
स्थितप्रज्ञ की स्थिति को प्राप्त करना, संभव नही तो असंभव भी नही। संसार मे उच्च कोटि के जीवन को जीने वाले महापुरुष, दार्शनिक, वैज्ञानिक या उद्योगपति , ऋषि, मुनि सभी के जीवन मे जो भी गुण उन को महान बनाता है, वह गुण स्थितप्रज्ञ की ओर ही जाता है। निष्काम कर्म एकाग्रता एवम दक्षता के साथ कर्म को प्रेरित करता है। हमारे अधिकार क्षेत्र में यदि कुछ है तो वह है अभ्यास, लग्न एवम संयतेंद्रीय द्वारा कर्म को करना। यही ज्ञान का मार्ग है, कहते है जब कोहरा घना हो और रास्ता नही दिखे तो भी सही मार्ग पर कदम बढ़ाते जाओ, मंजिल तक पहुच ही जाओगे।
यह प्रकृति अत्यंत मनोहर, आनंददायक, मन को सुख देने वाली है, जीव प्रकृति से बंधा है किंतु नित्य नही है। जो आज है वह कल नही रहेगा, जो कल आएगा वह भी स्थिर नहीं है। हमे अपने वैराग्य को पहचानना है। बचपन से ले कर न जाने कितने लोगो, खिलौनों, सहपाठियों और खाने की कितनी वस्तुओ से मिले। सब अब वैराग्य से छूट गई। यात्रा के दौरान किसी स्थान को जब देखते है तो अत्यंत आनंद आता है किंतु वैराग्य से हम उस स्थान पर रमण या बस नही जाते। वापस अपने स्थान पर पहुंच कर सकून को प्राप्त करते है। यह जीव का मोक्ष या मुक्ति है। आत्मा की यात्रा प्रकृति के संयोग से शुरू होती है, इस का आनंद एक यात्री की भांति लेना चाहिए, फिर अपने स्थान वापस लौटना है तो स्थान में कुछ नही चाहिए। यदि भटक गए तो जन्म जन्मांतर तक रास्ता ही खोजते रहेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। 5. 8-9 ।।
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